सुप्रीम कोर्ट की महत्वपूर्ण सलाह
इस सप्ताह उर्दू प्रेस पर जन-धन योजना का श्रीगणेश, सुप्रीम कोर्ट की दागी नेताओं के बारे में प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्रियों को सलाह और पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार पर खतरों के बादल जैसे मुद्दे छाये रहे.
सुप्रीम कोर्ट (फाइल फोटो) |
इनके अलावा उपचुनावों के संदेश, भाजपा में रस्साकशी, भारत-पाक संबंध और फायरिंग, गृहमंत्री राजनाथ सिंह की बेटे पर लगाए गए आरोपों से नाराजगी, रेलमंत्री गौड़ा के पुत्र पर रेप का आरोप, इस्राइल व हमास में युद्धविराम जैसे मुद्दों पर तमाम उर्दू दैनिकों ने संपादकीय भी प्रकाशित किए हैं.
उर्दू दैनिक \'मुंसिफ\' ने भारत-पाक सरहद पर फायरिंग की आलोचना करने के साथ अपने संपादकीय में लिखा है कि इतिहास गवाह है कि जंग किसी भी समस्या का हल नहीं रही बल्कि उसने हमेशा ही नई समस्याओं को जन्म दिया है. समस्या चाहे किसी भी हद तक कड़वी क्यों न हो, उसे वार्ता के द्वारा ही सुलझाया जा सकता है. इस सिलसिले में हमें कई सबूत इतिहास के पृष्ठों से मिल जाएंगे. कठोरता और आक्रामकता से बात बनती नहीं बिगड़ती है. शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने केंद्र सरकार को सुझाव दे डाला कि पाकिस्तान पर आक्रमण कर दिया जाए, जिसे अत्यधिक गैर जिम्मेदाराना करार दिया जा सकता है. यदि युद्ध के द्वारा ही दोनों देशों के बीच समस्याएं हल होनी होतीं तो आज से पहले लड़े गए युद्धों में यह उद्देश्य प्राप्त हो जाता. लेकिन ऐसा नहीं हुआ बल्कि हर युद्ध के बाद हालात और अधिक खराब होते गए.
उर्दू दैनिक \'राष्ट्रीय सहारा\' ने \'सुप्रीम कोर्ट की महत्वपूर्ण सलाह\' शीषर्क के तहत अपने संपादकीय में लिखा है कि सर्वोच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्रियों को सुझाव दिया कि दागी राजनेताओं को काबीना में शामिल न करें. सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए यह सलाह दी. अदालत ने कहा कि वह संविधान की धारा 75 (1) में अयोग्यता नहीं जोड़ सकती, अलबत्ता प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को अपराधिक पृष्ठभूमि रखने वाले व्यक्तियों को मंत्री बनाने पर विचार नहीं करना चाहिए. बेंच ने यह भी कहा कि संविधान प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों पर बहुत विश्वास करता है और उम्मीद करता है कि वे अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी नैतिक उसूलों के साथ पूरी करेंगे.
दरअसल, मामला यह है कि लगभग सभी सियासी पार्टियां अपने-अपने बयानों में नैतिकता पर चाहे कितना जोर दें, भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए प्रयास करने का कितना भी दिखावा करें और राजनीति को अपराध व भ्रष्टाचार से पाक करने के कितने भी दावे करें, लेकिन अधिकांश सियासी दलों का अमल इसके बिल्कुल विपरीत है. आजादी के बाद से अब तक केंद्र व विभिन्न राज्य सरकारों में शामिल मंत्रियों की सूची इस बात का सबूत है कि ज्यादातर सरकारों ने विभिन्न राजनीतिक मजबूरियों या जरूरतों की बुनियाद पर अपराधिक रिकॉर्ड रखने वाले व्यक्तियों को न केवल चुनाव लड़ने के लिए टिकट दिए, बल्कि ऐसे लोगों को काबीना में भी शामिल किया गया. वास्तव में समस्या यह है कि एक ओर हमारा कानून किसी सरकारी कर्मचारी के ऊपर लगने वाले किसी गंभीर आरोप के कारण उसे निलंबित करने का आदेश देता है, लेकिन दूसरी तरफ न संविधान में कोई धारा है और न कोई ऐसा कानून है जिससे किसी दागी नेता को मंत्री पद की शपथ लेने से रोका जा सके.
उर्दू दैनिक \'इंकलाब\' ने \'धर्मनिरपेक्ष जीत\' शीषर्क के तहत अपने संपादकीय में लिखा है कि बिहार में विधानसभा के उपचुनावों के परिणामों का ऐलान हुआ तो मालूम हुआ कि उपचुनाव में लोकसभा चुनावों की वह विशेष लिस्ट गायब थी जिस पर गर्व करने वाले \'एक बार जीत, बार-बार जीत\' के भ्रम में थे या इस गलत समझ से ग्रस्त थे कि बिहार की सियासत में लालू और नीतिश का स्थान अब हाशिये पर है. बिहार की दस सीटों में से आरजेडी को तीन, जेडीयू को दो और कांग्रेस को एक अर्थात महागठबंधन को छह सीटें मिली हैं, जबकि भाजपा चार सीटों से आगे नहीं बढ़ सकी. पत्र ने अंत में लिखा है कि निसंदेह यह धर्मनिरपेक्ष शक्तियों की सफलता है. यदि गठबंधन में शामिल तीनों दलों ने होश का सबूत न दिया होता बल्कि हर एक का अहं उसे अलग ही रखता तो अब भी इन दलों का वही बुरा हाल होता जो लोकसभा चुनावों में हुआ था.
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