गठबंधन धर्म तोड़ने में कांग्रेस की राह पर भाजपा

Last Updated 31 Aug 2014 02:01:56 AM IST

हरियाणा विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा की हरियाणा जनहित कांग्रेस (कुलदीप विश्नोई) से साढ़े तीन साल पुराने गठबंधन को तोड़ने की घटना ने उसके अन्य सहयोगियों की धड़कनें बढ़ा दी हैं.


गठबंधन धर्म तोड़ने में कांग्रेस की राह पर भाजपा

महाराष्ट्र में शिवसेना भी चौकन्नी हो उठी है. वहां भी हरियाणा की तरह सीटों के बंटवारे को लेकर मारामारी है. इतना ही नहीं, लोकसभा चुनाव के समय उससे जुड़ने वाले अन्य छोटे-छोटे दल भी सदमे में हैं. शह-मात के इस राजनीतिक खेल में भाजपा अब हरियाणा के अलावा झारखंड और जम्मू कश्मीर में ‘एकला चलो’ की राह पर है, तो महाराष्ट्र में पार्टी का एक बड़ा वर्ग शिवसेना से हाथ छुड़ाने के लिए लगातार दबाव बनाए हुए हैं. जबकि इसके विपरीत विपक्ष ने बिहार उपचुनाव में गठबंधन की सफलता के बाद अब हरियाणा और झारखंड में भाजपा को रोकने के लिए महागठबंधन बनाने का अभियान तेज कर दिया है. हरियाणा में हजकां, तो झारखंड में कांग्रेस महागठबंधन की राजनीति को आगे बढ़ाने में पूरी ताकत से लग गई है.

अभी तक राजनीति में गठबंधन धर्म निभाने के लिए भाजपा की मिसाल दी जाती थी. किंतु जिस तरह हरियाणा में पार्टी ने हजकां से ऐन चुनाव से पहले कुट्टी की है, उससे उसके सहयोगी दलों की बेचैनी बढ़ गई है. लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने देशभर में लगभग 28 दलों से गठबंधन किया था. अभी तक भाजपा नुकसान सहकर भी अपने सहयोगियों का मान रखती रही है. महाराष्ट्र इसका उदाहरण है. किंतु हरियाणा की घटना ने उसके सहयोगियों को आत्मालोचन के लिए विवश कर दिया है.

भाजपा के हजकां से अलगाव की चर्चा लोस चुनाव के बाद से ही शुरू हो गई थी. वहां की दस में से सात सीटें जीतकर भाजपा अतिविश्वास में है, जबकि हजकां एक भी सीट नहीं जीत सकी थी. इसीलिए भाजपा को उसका साथ नुकसानदेह लगने लगा था. वैसे वर्ष 2011 में दोनों दलों के बीच यह गठबंधन हुआ था. किंतु बदले  हालात में भाजपा अपने पुराने समझौते से पलटी मार गई जिसके तहत दोनों ही दलों को राज्य में आधी-आधी सीटों पर चुनाव लड़ना था और ढाई-ढाई साल के लिए दोनों दलों के मुख्यमंत्री बनाए जाने थे. अब वह अपने इस सहयोगी को कुल 90 में से 45 की जगह 15-20 सीटें देने को राजी थी. पार्टी को उम्मीद थी कि हजकां इसे स्वीकार नहीं करेगी और स्वत: गठबंधन तोड़ने का ऐलान कर देगी. फलत: भाजपा पर गठबंधन तोड़ने का आरोप भी नहीं लगेगा. हुआ उसकी रणनीति के मुताबिक ही है. बावजूद इसके भाजपा का राजनीतिक चरित्र उजागर हो उठा है, उससे जुड़े अन्य छोटे-छोटे दलों को अब यह भय सताने लगा है कि कहीं आगे चलकर उनके साथ भी इसी तरह का व्यवहार न हो. हरियाणा के बाद अब सबकी नजरें महाराष्ट्र पर टिक गई हैं. वहां भी सीटों के बंटवारे को लेकर बात बन नहीं रही है. इतना ही नहीं, शिवसेना अपना मुख्यमंत्री चाहती है जो अभी भाजपा को कतई मंजूर नहीं है. इसके अलावा लोस चुनाव के दौरान भाजपा का गठबंधन आरपीआई, स्वाभिमानी शेतकारी संगठन आदि अन्य दलों से हुआ था. विस चुनाव में ये सभी अपेक्षित सीट चाहते हैं. किंतु उनसे भी अभी सार्थक बात नहीं बन पाई है. फलत: इन दलों की भी परेशानी बढ़ गई है. यहां भी सीटों का बंटवारा टेढ़ी खीर ही है. किंतु इतना तो सच है कि भाजपा के बदले राजनीतिक तेवर ने उसके सहयोगियों की नींद उड़ा दी है. चुनाव में जाने से पहले वह क्या गुल खिलाएगी, इसको लेकर सहयोगी सशंकित हैं.

जानकार मानते हैं कि भाजपा की रणनीति शनै:-शनै: अपने छोटे-छोटे सहयोगी दलों का पार्टी में विलय कराने की है. इसी क्रम में ही उसने हजकां नेतृत्व के समक्ष भी विलय का प्रस्ताव रखा था. अब राजनीतिक हलकों में यह चर्चा शुरू हो गई है कि कांग्रेस अपने सहयोगियों के साथ जिस तरह का बर्ताव करती थी, अब भाजपा भी उसी राह पर है. वह अपने सहयोगी दलों को दबाने और उनका अस्तित्व समाप्त करने का कुचक्र रच रही है. इसी तरह जम्मू कश्मीर में भी भाजपा छोटे दलों का विलय चाहती है. इसी क्रम में जम्मू स्टेट मोर्चा के एकमात्र विधायक अिनी शर्मा ने पूरी पार्टी सहित भाजपा में विलय कर लिया है. इसके अलावा भाजपा जम्मू रीजन में प्रो. भीम सिंह की पैंथर्स पार्टी का विलय चाहती है.

किंतु बात न बनने की दशा में वह उनके तीनों विधायकों को तोड़ने की कोशिश में है. भाजपा येन-केन प्रकारेण जम्मू कश्मीर विस चुनाव में 44 प्लस का आंकड़ा पाना चाहती है. इसके लिए वह घाटी में सुरक्षाबलों पर पत्थर फेंकने वालों की भी दबी जुबान से वकालत करने में गुरेज नहीं कर रही है. झारखंड में भी भाजपा खुद से अलग होने वाले नेताओं को साथ लाने की कोशिश में है. किंतु इसमें सफलता न मिलने के कारण उसने झारखंड विकास मोर्चा (बाबूलाल मरांडी) के छह विधायकों को तोड़कर अपने साथ मिला लिया है, तो सुदेश महतो की ‘आजसू’ को कमजोर करने की कोशिश हो रही है. कुल मिलाकर भाजपा हरियाणा, जम्मू कश्मीर और झारखंड में आयातित नेताओं के सहारे चुनाव में जा रही है. ऐसे में सत्ता न मिलने की दशा में उसे बड़ी राजनीतिक परेशानी का सामना करना पड़ सकता है.

भाजपा के इस बदले तेवर पर लगाम लगाने के लिए बिहार की तर्ज पर महागठबंधन बनाने की भी रणनीति शुरू हो गई है. हरियाणा में विश्नोई जनचेतना पार्टी (विनोद शर्मा) के साथ गठजोड़ कर गैर जाट वोटों को साधने में लग गए हैं. इतना ही नहीं, वह बसपा को साथ लेकर महागठबंधन को अमलीजामा पहनाना चाहते हैं. ऐसे में भाजपा को नुकसान का भारी अंदेशा है क्योंकि गैर जाट वोटों पर उसकी और हजकां की मजबूत पकड़ है. इसी खतरे से निपटने के लिए भाजपा उन सीटों पर जहां वह मजबूत नहीं है, कांग्रेस, आईएनएलडी और हजकां के मजबूत नेताओं को तोड़कर चुनाव लड़ाने की जुगत में है.

इसलिए वहां चुनाव तक बड़े पैमाने पर आयाराम-गयाराम होने वाला है, जबकि विपक्षी सत्तारूढ़ कांग्रेस और भाजपा को रोकने के लिए अब महागठबंधन को ही कारगर हथियार मान रहे हैं. इसलिए इस दिशा में गंभीरता से पहल शुरू हो गई है. कुछ इसी तरह का प्रयास झारखंड में कांग्रेस कर रही है क्योंकि वहां उसके साथ सरकार में होने के बावजूद जेएमएम अकेले चुनाव लड़ने का संकेत दे चुकी है. इसलिए कांग्रेस यहां भी आरजेडी, जदयू के अलावा बाबूलाल मरांडी के साथ मिलकर महागठबंधन बनाना चाहती है. इतना ही नहीं, वह मरांडी को मुख्यमंत्री बनाने को लेकर सहमति कायम करने पर काम कर रही है. उसे लगता है कि मरांडी की छवि भाजपा को रोकने में कारगर हो सकती है. ऐसा इसलिए भी है कि झारखंड और बिहार के लोगों और राजनीतिक हालात में काफी कुछ समानता है.

बावजूद इसके भाजपा बेपरवाह है. उसका तर्क है कि जनमानस में प्रधानमंत्री मोदी का असर है, जिसका लाभ उसे राज्यों के विस चुनावों में मिलेगा. ऐसे में चुनाव वाले राज्यों में भाजपा की असल अग्निपरीक्षा है.

ranvijay_singh1960@yahoo.com

रणविजय सिंह
समूह सम्पादक, राष्ट्रीय सहारा दैनिक


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