मीडिया और अफवाह

Last Updated 31 Aug 2014 01:55:50 AM IST

अफवाह का समाजशास्त्र सूचना के समाजशास्त्र के बरक्स ही बनता है. मीडिया को, उसकी खबर को विशेषज्ञ बनाते हैं जबकि अफवाह को साधरण समाज या लोक बनाता है.


सुधीश पचौरी, लेखक

मीडिया के सूचना-स्रोत बड़े कानूनी और प्रामाणिक होते हैं जबकि अफवाह को किसी की प्रामाणिकता की दरकार नहीं होती. मीडिया कानून में अनुशासित रहता है लेकिन अफवाह कानून के उपर चलती है और पकड़ में आनी मुश्किल होती है. सूचना का स्रोत होता है लेकिन अफवाह का स्रोत पक्का नहीं होता. वह कहां से चली, कैसे चली इसका पता लगाना असंभव-सा ही रहता है.
अफवाह का कारण है: मीडिया की संदिग्धता! यानी मीडिया का किसी न किसी पक्ष से जुड़ा होना और जनता का उससे अलग-थलग और वंचित होना. मीडिया के संदिग्ध होने का कारण उसका सतहीपन और आधिक्य है. वह एक ऐसी अति को दुहराता रहता है जिससे जनता जल्दी ऊब जाती है लेकिन वह समझता हैकि जनता उसे पसंद करती है और जनता ज्यों ही ऊबती है त्यों ही उसकी कल्पना उर्वर होकर अपने ढंग की खबर बनाने लगती है.

अफवाह के होने का कारण यह भी है कि मीडिया एलीटिस्ट स्वभाव का है इसलिए जितना अधिक मीडिया है उतना ही अधिक संदिग्ध है. वह जितना संदिग्ध है उतना ही अफवाह-प्रेरक होता है.
कभी माना जाता था कि अधिक मीडिया होगा तो उतना ही सबल सूचना-समाज बनेगा जिसमें अफवाह की जरूरत नहीं हेागी. लेकिन ऐसा संभव नहीं हुआ. मीडिया रहा लेकिन अफवाहें भी रहीं और कई बार अफवाहें मीडिया पर भारी पड़ीं. जैसा कि पिछले सप्ताह सरकार के एक मंत्री द्वारा अफवाहों के खंडन के प्रसंग में नजर आया.

हमने देखा कि जो खबर बहुत मामूली गप्प की तरह एक अंग्रेजी अखबार के ‘गप्प कॉलम’ में छपी थी वही कालांतर में बड़ी बन गई और जब अफवाह का खंडन किया गया तो अफवाह पर उल्टी मुहर लग गई कि अफवाह में शायद कुछ सच रहा हो.

अफवाहें ‘अग्नि-धूम्र’ के न्याय से चलती हैं. वे धुएं से आग के होने का प्रमाण देती हैं. अगर धुआं है तो आग होगी ही. यानी अफवाह है तो कुछ सच होगा ही. लेकिन वह धुएं की तरह जल्दी से विलीन नहीं होती बल्कि गिनती या पहाड़े की तरह बढ़ती जाती है. अफवाह किसी किस्से की तरह बनती और फैलती है. उसमें हर बार कुछ न कुछ नया जुड़ता जाता है और इस तरह हरअफवाह अपने मूल रूप से हटकर ऐसा गोलमोल रहस्यलोक बन जाती है कि उसका सिरा मिलना मुश्किल होता है लेकिन वह फूंक मारकर हवा में उड़ाई नहीं जा सकती. इसकी काट यही है कि आप पूरी तरह पारदर्शी रहें लेकिन संदेहवादी समाज उससे भीसंतुष्ट नहीं हो सकता. संदेहवादी समाज की कला है अफवाह! वह ऐसे समाज में पनपती है जिसमें हरआदमी एक-दूसरे पर संदेह करता है, जिसमें हरआदमी एक-दूसरे से कंपटीशन में है और बेहद हड़बड़ी में है.

जैसे-जैसे आम आदमी में सत्ता की हवस बढ़ी है और जहां हर आदमी राजनीतिक प्रक्रिया का ऐसा निरीह हिस्सेदार है जो बनी हुई राजनीति को कुछ हद तक तो पसंद करता है लेकिन बहुत हद तक नापसंद करता है और सत्ता से वंचित होने के कारण जिसका उसके प्रति एक प्रकार का चिर बैरभाव है, उसके लिए सत्ता एक काल्पनिक राक्षस है जिससे पार न पाकर और जिसका मनगढंत किस्सा बनाकर वह उसे ध्वस्त कर देना चाहता है. अफवाह में एक प्रकार का ‘साडिज्म’ काम करता है.

आज हमारे यहां हर आदमी के हाथ में मोबाइल है. नब्बे फीसद तक रेडियो की पहुंचहै, अस्सी फीसद तक टीवी की पहुंच है. साथ ही सोशल मीडिया भी एक बड़े मध्यवर्ग तक खूब पहुंच रखता है और अखबारों की पहुंच भी कम नहीं है. तब भी अफवाह का अपना आकषर्ण बना हुआ है.

पश्चिमी समाज अफवाहप्रिय समाज नहीं है. उसका कारण है कि वहां मीडिया की पहुंच इतनी प्रामाणिक है कि उपभोक्ता खबर से आगे सोचने की आदत ही खो बैठा है. वह उसे एकमात्र और प्रमाणिक मानता है. वहां सत्ता-वितरण भी कुछ ऐसा है कि हर आदमी सत्ता चलाने की पिपासा नहीं रखता. सत्ता ने नागरिक से एक तर्कसंगत दूरी बना ली है और जो हर नागरिक के लिए एक-सा काम करती हुई दिखती है. वहां सत्ता संदिग्ध वस्तु नहीं है बल्कि फंक्शनलऔर भरोसे की वस्तु है.

नई सरकार ने मीडिया से एक सुरक्षित दूरी रखने की जो नीति अपनाई है उसने भी अफवाहों के लिए उर्वर वातावरण बनाया लगता है. इस नीति में कोई बुराई भी नहीं क्योंकि मीडिया से दोस्ती महंगी पड़ सकती है जैसा कि पिछली सरकार के संग हुआ. सच तो यह है कि अपना मीडिया किसी का सगा नहीं. वह सिर्फ अपने मालिक का सगा है और उसकी एक गलतफहमी यह भी है कि वह खुद को सरकार बनानेवाला, उठानेवाला और गिरानेवाला समझता है. लेकिन यहीं एक जोखिम नजर आता है: मीडिया से सुरक्षित दूरी बनाए रखने की नीति के कारण सरकार और जनता के बीच एक अबूझ-सी दूरी बन जाती है. नेता जनता से अलग-थलग पड़ जाते हैं और सरकार से एक दूरी बढ़ती रहती है, जबकि यहां का आदमी सरकार को ‘अपनी’ समझता है और अपने नेता से सीधी बात करने का आदी है. साथ ही, अपने समाज में तथ्य से अधिक कल्पना, सीधे प्रमाण से अधिक अनुमान प्रमाण का सहारा लेकर काम करने का चलन है. यह हमारे सोच-विचार में भी है कि हम कल्पना से सत्य बनाने के आदी हैं, न कि सत्य को तथ्य से मिलाकर परखने के. ऐसे समाज में अफवाह एक मनोरंजन भी है और मजा भी. अफवाह के उस्ताद मसखरे को इस बात से मतलब नहीं होता कि उसका असर क्या होता है, वह तो किस्से का रस बांटता है, भले किसी का नुकसान हो या फायदा.



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