बीमारी इलाज नहीं हो सकती

Last Updated 31 Aug 2014 01:45:17 AM IST

जब हम विचार क्रांति की बात करते हैं तो सीधे-सीधे इस बिंदु पर आकर ठहरते हैं कि आखिर हमें किस तरह का मानवीय समाज चाहिए,


विभांशु दिव्याल, लेखक

हम किस तरह के मानवीय समाज में रहना चाहते हैं, अपने रहने के लिए किस तरह के मनुष्य समाज का निर्माण करना चाहते हैं. जिस समाज की ओर मैं संकेत करना चाह रहा हूं उसका सपना नया नहीं है. आधुनिक विश्व पिछली कुछ सदियों से एक समतावादी समाज के सपने से टकरा रहा है- कभी किसी रूप में तो कभी किसी रूप में. आधुनिक लोकतांत्रिक भारत की आत्मा में भी यह सपना पिरोया गया था, मगर कथित आगे बढ़ते भारत ने जितना ज्यादा बलात्कार इस आत्मा से किया है उतना किसी और चीज से नहीं.

आज भारतीय लोकतंत्र की कोई भी ऐसी संस्था नहीं है जो समतावादी समाज की अवधारणा से खिलवाड़ नहीं कर रही हो.- चाहे ये राजनीतिक संस्थाएं हों या न्यायिक संस्थाएं, चाहे ये आर्थिक संस्थाएं हों या धार्मिक. देश की कोई भी आर्थिक गतिविधि, वह निजी क्षेत्र में घट रही हो या सार्वजनिक क्षेत्र में, ऐसी नहीं है जो परोक्ष या अपरोक्ष तौर पर आर्थिक विषमताओं को बढ़ावा न दे रही हो और आर्थिक संसाधनों को उनकी हवस के हवाले न कर रही हो जिनका समतावादी समाज के विचार से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है. देश की कोई भी राजनीतिक गतिविधि ऐसी नहीं है जो भ्रष्ट अर्थतंत्र से पोषित नहीं हो रही हो और बदले में इस आपराधिक अर्थतंत्र का पोषण न कर रही हो. देश की कोई भी धार्मिक गतिविधि ऐसी नहीं है जो इस भ्रष्ट अर्थतंत्र से अपना हिस्सा न वसूल रही हो और लोगों की वैचारिक चेतना को कुंद करके उन्हें हर तरह के अन्यायपूर्ण कृत्य के प्रति जिम्मेदारियों से विमुख न कर रही हो और सामाजिक-सांप्रदायिक विभाजनों को धार न दे रही हो. इनके लिए आर्थिक-सामाजिक विषमताओं का हल ईश्वर की शरण है और ईश्वर की शरण तक पहुंचने के लिए वही प्राधिकृत एजेंट हैं. और ये सारे एजेंट विषमताओं का दोहन भी करते हैं और विषमताओं के विरोध के प्रयासों-विचारों को लोगों के दिमाग से मिटाने-हटाने का काम भी निरंतर करते हैं. मगर सबसे बड़ी विडंबना यह है कि सभी संस्थाएं अन्याय, गरीबी, भ्रष्टाचार जैसी प्रवृत्तियों के विरुद्ध होने का भरपूर स्वांग भी रचती रहती हैं. इस स्वांग की परिणति यह होती है कि वर्तमान व्यवस्था के वास्तविक चरित्र की लोगों की पहले से ही उलझी हुई समझ और भी उलझ जाती है.

इस उलझन का परिणाम यह होता है कि लोग बीमारी को ही इलाज समझने लगते हैं और कभी-कभी बदलाव के जो ईमानदार प्रयास होते भी हैं, तो उन्हें भी शंका की दृष्टि से देखने लगते हैं. कभी-कभी ईमानदार प्रयासों की अपनी अधूरी समझ भी भ्रम की स्थिति पैदा करती है और अंतत: इन प्रयासों को विफलता की ओर ले जाती है. हाल ही के भ्रष्टाचार विरोधी प्रयासों की विफलता के कारक इस अधूरी समझ में ही निहित थे. इनकी समझ यह थी कि मौजूदा चुनावी लोकतंत्र में कुछ फौरी प्रशासनिक या नियमगत परिवर्तन करके भ्रष्टाचार पर काबू पाया जा सकता है. किंतु वास्तविकता यह है कि एक प्रतिद्वंद्वात्मक खुला अर्थतंत्र हर स्तर पर व्यक्तियों-समूहों को भ्रष्ट बनाता है और समाज में पहले से मौजूद राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक-सांस्कृतिक विकृतियों का अपने हित में दोहन भी करता है और उन्हें अधिक रूढ़ भी बनाता है. इनके चलते भ्रष्टाचार व्यक्ति के सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधों का ऐसा हिस्सा बन जाता है कि एक व्यक्ति या समूह के लिए इसके बिना जीना संभव नहीं रह जाता है. तब इसे मात्र लोकपाल जैसे कुछ पद स्थापित करके या प्रशासनिक प्रक्रियाओं में थोड़ी-बहुत फेरबदल करके समाप्त नहीं किया जा सकता. भ्रष्ट संबंध व्यक्ति को, वह चाहे पंचायत स्तर पर काम कर रहा हो या संसद के स्तर पर, अपनी गिरफ्त में ले ही लेते हैं.

यहां मैं अरविंद केजरीवाल की पुस्तक ‘स्वराज’ का उल्लेख करना चाहूंगा. यह पुस्तक हाल ही के भ्रष्टाचार विरोधी गैर-राजनीतिक और राजनीतिक प्रयोग की सैद्धांतिकी को प्रस्तुत करती है. इसमें कोई शक नहीं कि यह देश में हर स्तर पर व्याप्त उस भ्रष्टाचार का प्रामाणिक दस्तावेज है जिसने सामान्य जनता से उसके ईमानदारी से जीने के अधिकार और अवसर दोनों छीन लिए हैं. लेकिन जहां तक इस भ्रष्टाचार से मुक्ति का सवाल है तो यह पुस्तक स्वराज की अवधारणा प्रस्तुत करती है. इस अवधारणा का आधारभूत पक्ष है केंद्र और राज्यों की भ्रष्ट व्यवस्थाओं में केंद्रीय सत्ता को पंचायतों को हस्तांतरित करना और अपने विकास के सारे निर्णय अधिकार गांवों में ग्राम सभाओं को और शहरों में मुहल्ला सभाओं को प्रदान करना. इस अवधारणा में यह मान कर चला गया है कि केंद्र और राज्यों की सरकारी व्यवस्थाएं जिन कारणों से भ्रष्टाचार का शिकार हुई, वे कारण ग्राम सभाओं के निर्णयाधिकार के आगे निष्क्रिय हो जाएंगे. लेकिन यह वैसी ही अवधारणा है जिसे संविधान सभा की लंबी बहसों के बाद संविधान में निहित किया गया था और माना गया था कि स्वयं जनता द्वारा चुनी जाने वाली सरकारें जनता के हित में ठीक से काम करेंगी. लेकिन वस्तुत: यह हुआ नहीं. जब अपने द्वारा चुनी जाने वाली सरकारों से जनता अपना भला नहीं करवा पाई, तो अपने द्वारा चुने जाने वाली या चलाई जाने वाली ग्राम सभाओं और मुहल्ला सभाओं से वह अपना भला कैसे करवा पाएगी, जबकि सत्ता को भ्रष्ट करने वाले कारक यथावत मौजूद हों? अरविंद केजरीवाल ने कुछ उदाहरण देकर बताया है कि जाति-धर्म जैसे विभाजक तत्व, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं, लालच तथा अन्य विचलनकारी कारक भी जनतो को प्रत्यक्ष सत्ता मिलते ही निष्प्रभावी हो जाएंगे. क्या सचमुच ऐसा होगा?

यह असाध्य और असंभव नहीं है, लेकिन कठिन अवश्य है. अगर संभव है तो केवल तभी जब लोगों को स्पष्ट तौर पर ज्ञात हो कि मौजूदा व्यवस्था किस तरह भ्रष्ट संबंधों को पैदा करने के लिए अभिशप्त है, सामान्य लोगों पर किस तरह भ्रष्ट होने दबाव बनाती है, कैसे-कैसे पल्रोभन सामने रखती है और साथ ही कैसे भ्रष्टाचार विरोधी होने का नाटक भी करती है. इस समझ के साथ इनके निषेध के लिए अविचल विचार दृष्टि अपरिहार्य है. (जारी)



Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment