सही वक्त पर उद्घाटित सत्य का ही महत्व

Last Updated 31 Aug 2014 01:31:42 AM IST

प्रत्यक्ष प्रमाण होता है. प्रत्यक्ष के माध्यम से अज्ञात को जानने का प्रयास अनुमान कहा जाता है.


हृदयनारायण दीक्षित, लेखक

दर्शन चिंतन में प्रत्यक्ष और अनुमान की खासी भूमिका है. इन दो के बाद तीसरा उपकरण है- शब्द प्रमाण. आगम या सिद्ध पुरूषों के वाक्य. वैदिक ऋषियों के वाक्य ज्ञान यात्रा में प्रमाण माने जाते हैं. शब्द भी महत्वपूर्ण साक्ष्य हैं. इसलिए पुस्तकों की सामाजिक भूमिका है. पुस्तकों में समाज की श्रुति, स्मृति और अभीप्सा होती है. संस्कृति, सभ्यता और कुरूपता का दर्शन-दिग्दर्शन भी होता है. पुस्तकें ज्ञान कोष होती हैं. केवल सूचना नहीं. पुस्तकों को ज्ञान परिपूर्ण होना भी चाहिए. सूचना के लिए समाचार पत्र हैं. उनमें तात्कालिक घटनाओं पर वैचारिक टिप्पणियां भी होती हैं.

भारत के पूर्व महालेखाकार विनोद राय की किताब ‘नाट जस्ट एन एकाउंटेंट’ चर्चा में है. अखबारों ने इसे किताब बम कहा है. इसमें पूर्ववर्ती सरकार के मंत्रियों की कारस्तानी की चर्चा है. बातें गंभीर हैं. कांग्रेस को स्पष्टीकरण देना चाहिए. लेकिन रहस्योद्घाटन काफी विलंब से हुआ. पुस्तक के ऐसे प्रसंग कालवाह्य टिप्पणी हैं. त्वरित नहीं. महालेखाकार संवैधानिक संस्था हैं. राय ने इस प्रतिष्ठित पद पर काम करते हुए न तो तत्कालिक टिप्पणी की और न ही कोई कार्रवाई. बेशक उनकी टिप्पणियां सत्य हैं लेकिन ठीक समय पर बोले गए सत्य और ठीक समय पर न बोले गए सत्य में भारी अंतर होता है. प्रतिष्ठित पदों पर आसीन महानुभावों ने सेवानिवृत्ति के बाद अनेक पुस्तकें लिखी हैं. उन्होंने सेवाकाल के समय के अनेक रहस्योद्घाटन किए हैं. संयज बारू की किताब भी ऐसी है और नटवर सिंह की भी. किताबों के तथ्य महत्वपूर्ण भी हैं लेकिन अधिकांश सत्य-तथ्य विलंबित रहस्योद्घाटन की श्रेणी में हैं. क्या इन्हें पुस्तक जैसा सम्मान दिया जाना चाहिए?

पुस्तकें समाज के मन दर्पण का शब्द प्रमाण हैं. वैदिक काल और उत्तरवैदिक काल का शब्द सृजन अनूठा है. वेद मंत्र परमव्योम से उतरी गीत गाती कविताएं ही हैं. उपनिषद् साहित्य धरती पर आकाश दिव्य नक्षत्र मालिका लाया है. पूरा वैदिक साहित्य आनंदवर्धन है. हषर्वर्धन के साथ ज्ञानवर्धन भी. पहले यह पुस्तक रूप नहीं था. भारतीय प्रीति के चलते यह लाखों युवा जिज्ञासुओं का कंठहार था. स्मृति में रचा बसा, बार-बार गाया और दोहराया जाता रहा. फिर किताब में आया. गांधी जी ने सत्य के प्रयोग किए. सारे प्रयोग किताब बने. किताब बनते ही वे विश्व संपदा हो गए. पतंजलि योग विज्ञानी थे, कौटिल्य में अर्थशास्त्र की मौलिक अनुभूति थी, भरतमुनि नाट्य विज्ञान के धुरंधर चिंतक थे. बादरायण ने समूची सत्ता को एक देखा. सारी अनुभूतियां निजी हैं. अनुभूति सार्वजनिक नहीं होती. बेशक अनुभूति की सामग्री संसार और प्रकृति से ही मिलती है लेकिन अनुभूति खिलती है हमारे गोपन अंतस् में. यही अनुभूति पुस्तक बनती है तो लाखों-करोड़ों को आंतरिक समृद्धि से भर देती है. पतंजलि के ‘योग सूत्र’, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, वादरायण का ब्रह्मसूत्र और भरतमुनि का रचा नाट्यशास्त्र पुस्तक बनने के कारण विश्वप्रतिष्ठ हैं.

लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद रहस्योद्घाटन के लिए लिखी गई पुस्तकों के लेखकों से प्रश्न है कि उन्होंने तत्काल ऐसा लेखन क्यों नहीं किया, सामयिकता के भीतर ही ऐसे तथ्य क्यों नहीं प्रकट किए गए? पहले मजे से काम किया. सुरक्षित नौकरी या नेतागीरी की. फिर रिटायर हो गए तो पुस्तक. पुस्तक में अपना दर्द या प्रतिकार. सृजन धर्म ऐसी अनुमति नहीं देता. तसलीमा नसरीन से सहमत या असहमत होने की बात दीगर है लेकिन उनके लेखन में सुरक्षित या संरक्षित बने रहने की परवाह नहीं है. अनंतमूर्ति, सलमान रुश्दी या अरूण शौरी लेखन में सुरक्षा की परवाह नहीं करते. सोवियत रूस में अनेक लेखक प्रताड़ित हुए. अमेरिकी विचारक और विद्वान नोम चोमस्की से अमेरिका का बहुत बड़ा भाग असहमत रहता है. सावरकर के लेखन को भी रोका गया था. लेखन चुनौतीपूर्ण सृजन है. ऐसा सृजन प्रेरक होता है. अधिकांश जीवन मजे से काटकर ‘वन लाइफ इज नाट एनफ’ कहना आरामदायक लोकप्रियता तो दिला सकता है लेकिन इसे प्रेरक सृजन नहीं कहा जा सकता.



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