‘सफाई’ का सुनहरा मौका मत चूकिए

Last Updated 30 Aug 2014 04:45:44 AM IST

राजनीति के अपराधीकरण को रोकने की मुहिम में बीते बुधवार को आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला मील का पत्थर साबित होगा.


‘सफाई’ का सुनहरा मौका मत चूकिए

आपराधिक मामलों में आरोपित लोगों को केंद्र में मंत्री न बनने देने संबंधी याचिका पर अदालत ने बहुत साफ कहा कि वह इस मामले में कोई आदेश देने की स्थिति में नहीं है क्योंकि किसे मंत्री रखा जाए और किसे नहीं, यह तो प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों का विशेषाधिकार है. लेकिन भरोसा किया जाता है कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री खुद ही ऐसे लोगों को पद नहीं देंगे और संविधान ने उन पर जो भरोसा जताया है, उस पर वे खरे उतरेंगे. हैरानी नहीं कि अगले दिन प्राय: सभी अखबारों ने उन सभी मंत्रियों की सूची और उन पर चल रहे मुकदमों की पूरी लिस्ट छापकर यह सवाल और बड़ा बना दिया कि क्या प्रधानमंत्री इनके खिलाफ कार्रवाई करेंगे. गौरतलब है कि 44 केंद्रीय मंत्रियों में से 13 के खिलाफ मामले चल रहे हैं.

संसदीय लोकतंत्र के कामकाज पर गहरी नजर रखने वालों से लेकर मीडिया और स्वयंसेवी संगठनों के बीच राजनीति का अपराधीकरण एक चिंता का मुद्दा रहा है. इन लोगों की चर्चा से एक माहौल जरूर बन रहा था. लेकिन जितनी जोर से चर्चा बढ़ी, संसद और विधानसभाओं में पहुंचने वाले अपराधियों की संख्या भी बढ़ती गई. फिर ये लोग मंत्री बनने लगे. शुरू में गठबंधन की मजबूरी या बहुमत जुटाने के खेल के चलते, फिर आंखे तरेर कर भी.

और जब भी मसला उठा तो यह दलील दी गई कि राजनीति में विरोधी या शासक जमात फर्जी मुकदमे लगाकर राजनीतिक बदला लेते हैं, घेरने और निष्क्रिय करने का प्रयास करते हैं. यह बात भी काफी हद तक सही है पर पूरी तरह नहीं. एक तो विशुद्ध अपराधी भी बड़ी संख्या में आए हैं. दूसरे, जब अच्छे-खासे राजनेता भी सिर्फ वोट पाने और चुनाव जीतने के लिए जातिवाद, सांप्रदायिकता, क्षेत्रीयता, भाषायी अलगाववाद और लैंगिक भेदभाव बढ़ाने वाले काम करेंगे तो उनके खिलाफ आपराधिक मामले चलेंगे ही- लोग भी अदालतों में जा सकते हैं और सरकारें भी यह करके अपनी संवैधानिक जवाबदेही पूरी करेंगी ही. जिन तेरह मंत्रियों के खिलाफ मामले चल रहे हैं, उनमें इन तीनों श्रेणी के मामले हैं.

जैसा पहले कहा गया है कि जब तक राजनीति के मुख्य खिलाड़ी इस सवाल पर सचेत नहीं दिखे, बात बिगड़ती ही गई. राजनेता सार्वजनिक जीवन में मामले उठने के आरोप के बाद अपराधियों को सुधारने की दलील भी देते रहे. फिर यह कहा गया कि चुनावी राजनीति में ‘विनेबिलिटी’ अर्थात जीत की संभावना ही टिकट देने का सबसे बड़ा आधार है और जब तक सभी पक्ष ऐसे दागी उम्मीदवार उतारना बंद नहीं करेंगे, हम अकेले ऐसा करके नुकसान में रहेंगे.

जब मंडल के बाद पिछड़ों और दलितों की राजनीति परवान चढ़ी तो संग-संग और ज्यादा अपराधी भी संसद और विधानसभाओं में पहुंचने लगे. तब नेताओं की तरफ से तर्क दिया गया कि पिछड़े समाजों के मूल्य अलग हैं और दबंगपने के बगैर पिछड़ा इस समाज में आगे बढ़ ही नहीं सकता. जब चुनाव आयोग ने उम्मीदवारों से उनकी संपत्ति के ब्यौरे के साथ उनके खिलाफ चल रहे आपराधिक मामलों का विवरण देने की पहल की, तो मुख्य चुनाव अधिकारी लिंगदोह के खिलाफ पूरा मोर्चा ही खोल दिया गया. अदालत ने आयोग के उस फैसले को कानूनी रूप से सही बताया क्योंकि इससे किसी की उम्मीदवारी रद्द होने या किसी के लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन का खतरा नहीं था.

फिर अदालत ने यह फैसला दिया कि शपथपत्र में गलत जानकारियां देने पर उम्मीदवारी रद्द हो सकती है. फिर गंभीर अपराधों और सजा पाए लोगों द्वारा ऊपरी अदालत में अपील के नाम पर चुनाव लड़ने और मंत्री तक बन जाने का मामला आया. ऐसी नौबत भी आई कि मंत्री पद छोड़कर जेल जाना पड़ा. अदालत ने फिर दखल दिया और दो साल से ज्यादा सजा पाए सांसद और विधायक के चुनाव लड़ने पर रोक लगाई. जो उम्मीदवार आपराधिक मामलों वाली जानकारी नहीं देंगे उनकी उम्मीदवारी रद्द करने संबधी फैसला दिया. तब सभी दलों के नेताओं ने झटपट जनप्रतिनिधि कानून में बदलाव की कोशिश शुरू कर दी.

जब इसकी चारों ओर आलोचना शुरू हुई तो लोकप्रियता बटोरने के लिए या अपनी पहल पर राहुल गांधी ने इस कानून को फाड़ा और लालू यादव जैसे भरोसेमंद सहयोगी के भी चुनाव मैदान से बाहर होने का खतरा मोल लेकर अदालती आदेश के अनुरूप कानून की पहल की. फिर सुप्रीम कोर्ट ने ही फैसला दिया कि निचली अदालतें जनप्रतिनिधियों अर्थात सांसदों-विधायकों के खिलाफ चल रहे मुकदमों को एक साल के अंदर निपटा दें. मई 2014 में नया फैसला आया कि जिन जनप्रतिनिधियों के हलफनामे के ब्यौरे गलत साबित होंगे उनकी सदस्यता रद्द की जा सकती है. इस हिसाब से इस बार के अदालती फैसले ने नेताओं के लिए जवाबदेही से बचने की बहुत कम गुंजाइश छोड़ी है.

यह एकदम सही बात है कि राजनीति के अपराधीकरण को रोकने का सबसे बड़ा जिम्मा राजनेताओं पर ही है. इस गिरावट के लिए भी वही सबसे ज्यादा जिम्मेवार हैं. और इसमें भी सबसे ताकतवर व्यक्ति पर सबसे बड़ी जिम्मेवारी है. हर दल के जो लोग टिकट बांटने और मंत्री पद बांटने के जिम्मेवार होते हैं, वही अगर इस सवाल पर सचेत होंगे तभी कोई कारगर उपाय हो सकता है. इसका सबसे अच्छा उदाहरण बिहार है जो राजनीति के अपराधीकरण में सबसे आगे रहा है.

नीतीश कुमार की पार्टी चुनाव में हारती-जीतती रही थी और उनकी पार्टी से भी अपराधी जीतते रहे हैं. अपराधीकरण का यह हाल हो गया था कि हाईकोर्ट को बिहार में जंगलराज आ जाने जैसी टिप्पणी करनी पड़ी. पर जब नीतीश मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने सिर्फ यह किया कि किसी भी राजनीतिक अपराधी के लिए पुलिस-प्रशासन में पैरवी रोक दी और अदालतों में चल रहे मामलों में शासन की तरफ से कोई कोताही नहीं होने दी. इसलिए बिहार में मामला चलने और सजा पाने का औसत सबसे ऊपर हो गया. इससे न सिर्फ  कानून, शासन और पुलिस पर भरोसा बढ़ा बल्कि वहां की राजनीति में सुशासन लाने और अपराधमुक्त शासन देने की होड़ भी लगी.

यूपीए-1 में जब लालू प्रसाद और शिबू सोरेन आदि मंत्री बने थे, तब वकील मनोज नरुला ने एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में डाली थी. अदालत का ताजा फैसला उसी याचिका पर आया है. अब लालू सजा पाकर चुनावी राजनीति से छह साल के लिए बाहर हो चुके हैं. बिहार में नीतीश का सीधा शासन खत्म हो गया है और फिर से अपराधियों के सक्रिय होने की खबरें आने लगी हैं. बिहार की बेरोजगारी-आर्थिक स्थिति समेत काफी सारी चीजें इसके लिए जिम्मेवार हैं. पर जब तक राजनीति के अपराधीकरण में सबसे आगे रहने वाले बिहार में यह मर्ज दबता, तब तक पूरा मुल्क इसकी चपेट में आ चुका है- सबसे पढ़े-लिखे लोगों वाला केरल और धंधे से मतलब रखने वाले गुजराती-राजस्थानी इलाके भी इसकी चपेट में आ चुके हैं.

ऐसे में अगर अदालतें सक्रिय हैं, मीडिया सचेत है, सामाजिक रूप से सक्रिय लोग सचेत हैं और बात घूम-फिर कर सबसे जिम्मेवार लोगों को उनके संवैधानिक दायित्व का बोध कराने तक आ गई है तो उम्मीद करनी चाहिए कि केस दर केस मेरिट के आधार पर फैसला लेकर प्रधानमंत्री अपने मंत्रिमंडल और पार्टी की सफाई करके बाकी दलों और राज्यों पर भी ऐसा करने का दबाव बनाएंगे. अभी नरेंद्र मोदी जिस उत्साह और मूड से काम कर रहे हैं उसमें यह काम ज्यादा मुश्किल नहीं होना चाहिए. सभी तेरह मंत्री न तो अपराधी हैं, न ही सभी के खिलाफ सिर्फ राजनीतिक वजहों से गंभीर मुकदमे हो गए हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं)

अरविन्द मोहन
लेखक


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