नई फसल और पुराने चावल का फर्क

Last Updated 29 Aug 2014 12:48:32 AM IST

मीडिया में फिर भाजपा के संगठनात्मक बदलाव की जोरदार चर्चा है और परंपरा के अनुसार कौन आया से अधिक इस बात पर बहस छिड़ गई है कि कौन नहीं आया.


नई फसल और पुराने चावल का फर्क

इस बहस में मीडियाकर्मी यह तक भूल जाते हैं कि जिस त्रिमूर्ति को केंद्रीय संसदीय बोर्ड से बाहर रखने को बड़ी राष्ट्रीय खबर मान लिया गया है, उसमें एक अटल बिहारी वाजपेयी तो काफी अर्से से बीमार हैं. प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के चयन से लेकर मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने तक किसी भी काम में वे शामिल ही नहीं रह पाए थे. यह घटना न तो कोई नई बात कहती है और न ही किसी नई दिशा का संकेत करती है. जिस समय भारतीय जनता पार्टी ने तय किया कि उसे अब नए नेतृत्व में चुनाव में उतरना है, उसी समय यह भी तय ही था कि पुराने नेतृत्व को नए लोगों को आगे आने देना होगा. यह बात चुनाव के साल भर पहले की है.

नरेंद्र मोदी का नाम आगे आने लगा और कुछ ही समय में उन्हें पार्टी के चुनाव संचालन का काम सौंपा गया. ठीक चुनाव आते-आते वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी हो गए. आखिर में चुनाव अमेरिकी शैली में केवल एक ही नेता के नाम पर लड़ा गया. हर कदम पर विवाद था, कुछ लोगों को आपत्ति थी कि पुराने नेताओं को दरकिनार किया जा रहा है. नाराज लोगों में वे भी थे जिनके संसदीय बोर्ड में न आने पर मीडिया में चर्चा हो रही है.

सब विरोध और नाराजगी को शांत करते-करते मोदी को अभूतपूर्व बहुमत मिला. यानी जो काम साल भर पहले पार्टी ने आरंभ किया था उसका आम मतदाता ने समर्थन किया. मंत्रिमंडल का गठन करते समय भी मोदी ने आडवाणी और जोशी को नहीं लिया. क्या यह इस बात का साफ संकेत नहीं था कि पीढ़ियां बदल गई हैं? जो प्रक्रिया बहुत पहले आरंभ हो गई थी और जिस पर बार-बार समाचार पत्रों और टेलीविजन कार्यक्रमों में बहसें होती रहीं, उसी प्रक्रिया की अंतिम परिणति को अप्रत्याशित घटना बता कर प्रचारित करने का कोई तुक नहीं है.
भाजपा के नेता दावा करते हैं कि आडवाणी, जोशी और वाजपेयी पार्टी के मान्य नेता हैं और सदा मार्गदर्शक बने रहेंगे. इस बात में राजनीतिक प्रचार का पुट अधिक हो सकता है. राजनीति बीते कल को महत्व नहीं देती है. यूंंतो परिवार जैसी छोटी सामाजिक इकाई में भी यही होता है.

बुजुर्ग पिता को अवकाश देकर परिवार के मुख्य कामकाज का उत्तरदायित्व छोटे सदस्य ले लेते हैं. इसके पीछे व्यावहारिकता के साथ-साथ नैतिकता का भी महत्व होता है. लेकिन राजनीति जैसी विराट सामाजिक इकाई में नैतिकता का अंश बहुत कम होता है. वह आज के बाजार भाव को ही महत्व देती है. विश्व में ऐसे राजनीतिक संगठन अवश्य हैं जिनमें स्वाभविक तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सत्ता हस्तांतरित नहीं होती है.

सोवियत संघ में साम्यवादी दल के नेता या तो काम करते करते मर जाते थे या जबरदस्ती हटाए जाते थे. अधिकनायकवादी दलों के नेतृत्व में स्थायित्व इसीलिए नहीं आता कि उनमें सत्ता या नियंत्रण का उत्तरदायित्व स्वाभाविक जनतांत्रिक प्रणाली से नहीं होता. इसलिए तानाशाही दो-तीन पीढ़ी से आगे नहीं चलती. जनतांत्रिक देश में अगर राजनीतिक दलों या विचारधाराओं की सततता चाहिए तो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी का हस्तांतरण स्वाभाविक और सहज होना चाहिए. इसलिए बहस का मुद्दा यह नहीं होना चाहिए कि कौन पीछे छूट गया, बल्कि यह होना चाहिए कि इस कालांतर के मायने क्या हैं.

भाजपा अब विकास के चौथे चरण में आ चुकी है. इसका पहला संस्करण जनसंघ था जो आजादी के बाद कांग्रेस के कथित हिंदू विरोधी व्यवहार की प्रतिक्रिया थी. इसलिए भी कि संघ के कई नेताओं को लगा कि बिना राजनीति के वे अपनी बात प्रभावी नहीं बना सकते. इसे बनियों और ब्राह्मणों की ही पार्टी माना जाता था. जनता पार्टी के बाद जो पार्टी बन कर आई उसे ही भाजपा नाम दिया गया. आपातकाल और जनता दौर में जनसंघ विभिन्न दलों और विचारधाराओं के मेल-मिलाप के कारण संस्कारित होकर निकल आया था.

इसलिए भाजपा में नए विचारों और दूसरी जातियों को मिलाने की क्षमता आ गई थी. कुछ लोध, कुछ कुर्मी, कुछ कायस्थ, कुछ राजपूत अब भाजपा में दिखाई देने लगे थे. वाजपेयी दूसरे चरण के नेता थे तो आडवाणी तीसरे चरण के नेता बन गए. अयोध्या के रथी ने भाजपा को एक नई पहचान दी. पहली बार जातियों की दीवारें तोड़ने की संभावना दिखाई दी. नरेंद्र मोदी की भाजपा पार्टी का चौथा संस्करण है जिसमें टेक्नोलॉजी और अर्थ को महत्व दिया जाने लगा है. व्यवहार और विचार, दोनों स्तरों पर वह आडवाणी की भाजपा से पर्याप्त भिन्न है.

तो क्या अब भाजपा हिंदुत्व से हट गई है? नहीं, कांग्रेस और भाजपा को यही तो अलग करता है. आडवाणी चाहे स्वयं कितने ही उदारवादी व्यक्ति क्यों न हों, वे ऐसे दल का नेतृत्व करते थे जिसकी राजनीति को हिंदू संस्कृति संचालित करती थी. मोदी कितने ही हिंदूवादी हों, उनका हिंदुत्व अर्थ, विज्ञान और भूमंडलीकरण की नीतियों द्वारा संचालित होता है. अमित शाह को पहले उत्तर प्रदेश का चुनाव प्रभारी बना कर फिर भाजपा का अध्यक्ष बनाना इसीलिए विरोधाभासी नहीं है. अमित शाह पर उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने का आरोप लगाया जा रहा है. पता नहीं ऐसा वे जानबूझ कर कर रहे हैं या ऐसा वर्तमान हालात में होना स्वाभाविक है, लेकिन उनकी समरनीति का मोदी की व्यापक अर्थनीति से कोई टकराव नहीं है.

वे एक फील्ड कमांडर की भूमिका निभा रहे हैं. उन्हें ऐसे सहायक चाहिए जिनसे वे काम ले सकें, जिन्हें विभिन्न मोर्चों पर तैनात किया जा सके. मुख्य बात यह है कि भाजपा ने लोगों, खासकर युवकों में नई आशाएं पैदा कर दी हैं. युवक पुराने विचारों और दावों से उदासीन होकर नए क्षितिज तलाशने में लग गए हैं. यह तात्कालिक तौर पर बहुत उपयोगी है और लोकसभा चुनावों में इसका प्रमाण भी मिल गया है, लेकिन दूरगामी लक्ष्य को देखते हुए भाजपा के साथ ही यह देश के लिए भी खतरनाक हो सकता है. अगर आशाएं बढ़ी हैं तो उनको पूरा होते देखने का धैर्य भी कम हुआ है. युवा तेजी से उन उम्मीदों को पूरा होते देखना चाहते हैं.

यदि ऐसा नहीं हुआ तो निराशा भी उतनी ही तेजी से बढ़ेगी जितनी तेजी से आशाएं जग गई थीं. इसीलिए मोदी काफी जल्दी में दिखाई देते हैं. जिस तेजी से वे दुनिया में पांव पसार रहे हैं, उस तेजी से शायद ही किसी प्रधानमंत्री ने पहले छह महीने में फैलाए हों. जापान से वे बुलेट ट्रेन लाएं, यूरोप और अमेरिका से नई मारक हथियार प्रणालियां आएं, लेकिन उनकी असली परीक्षा तो अपनी ही जमीन पर होगी क्योंकि यहीं पर वे लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं जो अपनी उम्मीदों का फलित जानना चाहते हैं. इसलिए इससे फर्क नहीं पड़ता कि आडवाणी संसदीय बोर्ड में रहें या परामर्श मंडल में, लोगों की नजरें तो मोदी के उन मंत्रियों पर है जिनके जिम्मे रोजगार बढ़ाने और महंगाई घटाने का काम है, बिजली-पानी  उपलब्ध कराने और नागरिकों की और रेलों में सुरक्षा सुनिश्चित करने का काम है और जो किसान और जवान दोनों की भलाई का आश्वासन दे रहे हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं)

जवाहरलाल कौल
लेखक


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