पाकिस्तान से उम्मीद ही बेमानी
नियंत्रण रेखा और अंतरराष्ट्रीय सीमा पर रह-रह कर हो रही गोलाबारी में नया कुछ भी नहीं है.
पाकिस्तान से उम्मीद ही बेमानी |
दरअसल पाकिस्तान जब कुछ नहीं कर रहा होता है तो आश्चर्य होता है. सीमा पर उसने जिस तरह के हालात पैदा किये हुए हैं वह भारत के लिए तो चिंताजनक हैं ही, पाकिस्तान भी कुछ कम आफतों से नहीं घिरा है. नवाज शरीफ की निर्वाचित सरकार पर लगातार संकट बढ़ता जा रहा है. बहुत संभव है कि पाकिस्तान अपने अंदरूनी हालात से अपने लोगों का ध्यान बंटाने के लिए सीमा पर गोलीबारी करवा रहा हो. जो लोग इस बात से उत्साहित थे कि नवाज शरीफ को भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित कर जिस सद्भावनापूर्ण संबंधों का संदेश दिया है, उसका प्रत्युत्तर पाकिस्तान भी उसी रूप में देगा, वे मुंह के बल गिरे होंगे. ऐसा होना भी था. पाकिस्तान से आप ज्यादा उम्मीद नहीं रख सकते. लेकिन यह भी सच है कि उससे बगैर उम्मीद रखे आप रह भी नहीं सकते.
अभी दोनों देशों के बीच बातचीत भले रुकी हो, लेकिन कुछ महीनों के बाद दोनों तनाव भूलकर वार्ता की मेज पर फिर से बैठे मिलेंगे. उस समय उम्मीदों का माहौल बनाने की कोशिश की जाएगी. लेकिन यह स्पष्ट सोच है कि पाकिस्तान के साथ वार्ता एक ऐसा रास्ता है जो कहीं नहीं ले जाता. यह भारतीय कूटनीति के लिए शर्मनाक है कि छह दशक से ज्यादा समय बीत गए, लेकिन भारत अपने आठवें हिस्से के बराबर वाले देश की दुर्भावना को भी बेअसर नहीं कर सका है. आज सीमा पर वह जो गड़बड़ी मचा रहा है, वह भारत के करारे जवाब के बाद रुक जाएगी, लेकिन इसके बाद वह फिर से इसी ताक में होगा कि कब फिर ऐसी हिमाकत करे. वैसे पाकिस्तान के अंदरूनी हालात बिगड़ रहे हैं और ऐसे में सीमा पर हालात बिगाड़ने का खेल फिलहाल कुछ समय तक जारी रहने वाला है. नवाज शरीफ की यह मजबूरी है. ठीक वैसे ही जैसे अंदरूनी उठापटक होते ही वहां की कई पूर्ववर्ती सरकारों की सीमा पर उकसावे की कार्रवाई करने की मजबूरी रही.
पाकिस्तान के साथ अच्छे संबंधों के हम आकांक्षी रहे हैं लेकिन हमें समझना होगा कि क्या ऐसा ही पाकिस्तान भी चाहता है. भारतीय विदेश सचिव सुजाता सिंह को 25 अगस्त को पाकिस्तान जाना था और अपने समकक्ष के पाकिस्तानी अधिकारी अजीज अहमद चौधरी से वार्ता करनी थी. यह सितम्बर 2012 के बाद इस तरह की पहली बैठक थी. बैठक को रोकने का कारण भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त अब्दुल बासित द्वारा कश्मीर के अलगाववादी नेताओं से मुलाकात थी. भारत का तीव्र प्रत्युत्तर वाजिब था. आखिर भारत के आंतरिक मामलों में पाकिस्तान के लगातार हस्तक्षेप को स्वीकारा नहीं जा सकता. पाकिस्तान का यह तर्क कि पहले भी भारत-पाक वार्ता के पहले उसके अधिकारी अलगाववादी नेता से मिलते हैं, बेजा है. यह सच भले हो लेकिन आप यह कहकर गलती नहीं कर सकते कि ऐसी गलती हमने पहले भी की है. अब तक पाकिस्तान लगातार भारत पर कार्रवाई वाला रुख रखकर उसकी कूटनीतिक पूंजी और सैन्य ताकत पर चोट करता रहा है. पाकिस्तान अलगाववादी ताकतों को बढ़ावा देता है, सीमा पर हमले करता है;
दूसरी तरफ भारत इस चर्चा में लगा रहता है कि पाकिस्तानी कलाकारों को अपने यहां प्रवेश करने से भला क्यों रोका जाए. मैं यह नहीं कहता कि कलाकारों को रोकना चाहिए लेकिन आप यह देखिए कि पाकिस्तान की स्पष्ट रणनीतिक प्राथमिकता के बीच हमारी रणनीति विरोधाभासी है और दृष्टिकोण सीमित. यूपीए सरकार के नीति निर्माता कहते हैं कि बातचीत की सारी प्रक्रियाएं मनमोहन सिंह की सोच का नतीजा रहीं. लेकिन यूपीए सरकार को मालूम था कि बातचीत के अलावा कोई रास्ता नहीं है. यही कारण है कि मुंबई हमले के बाद लोगों के गुस्से और भारत की कोई मांग पाकिस्तान द्वारा नहीं माने जाने के बावजूद सरकार अंतरराष्ट्रीय दवाब में आई और बातचीत के लिए राजी हो गई. मेरा मानना है कि मोदी सरकार भी आगे बातचीत को तैयार होगी.
दरअसल वार्ता उपाय है, लेकिन तब जब मन से की जाए और इसके पीछे कोई कूटनीति नहीं हो. कुछ वर्षो के अंतराल पर ऐसा होता रहा है कि दोनों देश बातचीत की मेज पर बैठते हैं लेकिन कोई नतीजा नहीं निकलता. बहुधा यह भी होता है कि बातचीत शुरू होने के पहले ही किसी घटना के कारण बात रुक जाती है. आज पूरी दुनिया एक सार्थक बातचीत की उम्मीद लगाए बैठी है और उम्मीद पर आशंका के बादल लगातार गहराते जा रहे हैं. भारत की कूटनीति पर गौर करें तो पाएंगे कि हमारा रणनीतिक धरातल पिछले कई वर्षो से संकुचित होता जा रहा है. हमारे शीर्ष नेतृत्व का मानना है कि इस्लामाबाद से संपर्क करने और आतंकवाद को रोकने के लिए अमेरिका से संपर्क साधना बेहतर होगा. भारत बातचीत चाहता है जबकि पाकिस्तान नहीं. पाकिस्तान और खासकर इसके वास्तविक सत्ता केंद्र सेना को बातचीत से कोई वास्तविक फायदा नहीं है.
भारत की विशाल आर्थिक, सैन्य, भौगोलिक बढ़त को देखते हुए पाकिस्तान ने गैर पारंपरिक साधनों पर अपनी निर्भरता बढ़ाई. भारत को रोकने मात्र के लिए उसने परमाणु हथियार बनाए. सोच यह थी कि इससे भारत के साथ बराबरी हो जाएगी. साथ ही आतंकवाद को उसने अपनी विदेश नीति का मुख्य हथियार बनाया. पाकिस्तान का सैन्य और खुफिया तबका भारत के साथ हमेशा विरोध का माहौल चाहता है ताकि इसके जरिए पाकिस्तानी समाज में उसकी सशक्त भूमिका बनी रहे. पाकिस्तान की चाह यही है कि कश्मीर मामले में यथास्थिति बदले, जबकि भारत इसे बरकरार रखना चाहता है. नई दिल्ली को लगता है कि बातचीत लगातार जारी रहे तो पाकिस्तान आखिर मौजूदा स्थिति की पुष्टि करने को मजबूर हो जाएगा. वहीं पाकिस्तान की सोच है कि कश्मीर से कम कौन सी चीज है जिससे वह संतुष्ट हो सके. फिलहाल उसे ऐसी कोई चीज दिख नहीं रही.
रही बात पाकिस्तान में बढ़ते आतंकवादी हमलों की तो अब कुछ नहीं हो सकता. जिस विषबेल को उसने खुद रोपा था, उसका समूल नाश करने को भी उसे ही आगे बढ़ना होगा. पाकिस्तान में सबसे जरूरी है कि लोकतांत्रिक शासन को अहमियत दी जाए. वहां की जरूरत शासन में स्थिरता की है. फिर शासन में सेना-आईएसआई का प्रभाव कम से कम होना चाहिए.
हमें चाहिए कि अनिवार्य रूप से पाकिस्तान के साथ वार्ता जारी रखें. हां, हमें इसके लिए भी तैयार रहना चाहिए कि उसे कुछ अलग तरीके से भी नियंत्रित करना पड़ सकता है. हम कश्मीर घाटी पर तो अपना नियंत्रण छोड़ने वाले नहीं, भले ही पाकिस्तान वहां हमले पर हमले करता रहे. हम यकीनन आगे सीमा पर मुंहतोड़ जवाब देते रहेंगे. हमें यह याद रखना चाहिए कि पाकिस्तान जिस तरह से खुद को परिभाषित करता है, उसे देखते हुए भारत कभी भी स्थाई समाधान के पहले अस्थाई राहत नहीं पा सकता. हमें ही नहीं पूरे वि को यह कटु सचाई स्वीकार करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए.
(लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं)
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