संवाद : हूटिंग पर बवाल, गरिमा का सवाल

Last Updated 24 Aug 2014 12:49:04 AM IST

प्रधानमंत्री की मौजूदगी में गैर भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को हूट करने की राजनीति ने राजनीतिक दलों की बेचैनी बढ़ा दी है.


संवाद : हूटिंग पर बवाल, गरिमा का सवाल

ये घटनाएं उन राज्यों में घटी हैं जहां विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. आश्चर्य इस बात को लेकर भी है कि विकास कार्यक्रमों में मुख्यमंत्रियों की हूटिंग हो रही है, जहां वह प्रधानमंत्री के साथ मंच साझा कर रहे हैं. इसलिए लगातार हो रही इस तरह की घटनाओं के राजनीतिक मतलब निकाले जा रहे हैं. आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो गया है. इस राजनीति में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री पद की गरिमा तार-तार जरूर हो रही है. ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि क्या ये घटनाएं सुनियोजित राजनीति का हिस्सा हैं?

क्या ‘हूट’ की इस राजनीति के जरिए चुनाव वाले राज्यों के मुख्यमंत्रियों को वहां की जनता के बीच अलोकप्रिय साबित करने की कोशिश तो नहीं हो रही है? कहीं विकास कार्यक्रमों के जरिए इन राज्यों की सरकारों के खिलाफ वातावरण तैयार करने का प्रयास तो नहीं हो रहा है? इन तमाम आशंकाओं के चलते महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री के कार्यक्रम का बहिष्कार कर दिया है, तो हरियाणा और झारखंड के मुख्यमंत्रियों ने प्रधानमंत्री के साथ मंच साझा न करने का ऐलान कर दिया है. ऐसे में प्रधानमंत्री के ‘सबका साथ सबका विकास’ और ‘मेक इन इंडिया’ के सपने को कैसे पंख लगेगा? क्या यह केंद्र और राज्यों के बीच कटुता बढ़ाने वाली राजनीति नहीं है, जिसका प्रतिकूल असर संघीय ढांचे पर पड़ेगा? ये सारे सवाल इन दिनों राजनीतिक हलकों में तैर रहे हैं.

कांग्रेस इन घटनाओं को भाजपा की सुनियोजित साजिश मान रही है. उसका आरोप है कि गैर भाजपा मुख्यमंत्रियों को अपमानित करने के लिए ऐसा हो रहा है, जबकि भाजपा का कहना है कि ‘हूटिंग’ के शिकार मुख्यमंत्री अपने राज्यों में अलोकप्रिय हो चले हैं, इसलिए जनता अपना आक्रोश इस तरह प्रकट कर रही है. ऐसे में पीएम का क्या दोष है.

यह सच है कि प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ चरम पर है, आमजन पर उनका जादू सर चढ़कर बोल रहा है. इसी पंद्रह अगस्त को उन्होंने स्वच्छता और ‘मेक इन इंडिया’ का नारा देकर राष्ट्र निर्माण की अपनी परिकल्पना को उजागर कर जनता का मन मोह लिया है. लोगों को यकीन हो चला है कि उनके सपनों के हकीकत में बदलने का समय आ गया है. जनता के इन्हीं मनोभावों को भांपकर ही भाजपा विस चुनाव वाले राज्यों में किसी प्रांतीय नेता की जगह प्रधानमंत्री के चेहरे के साथ ही मैदान में उतर रही है.

ऐसा हर पार्टी अपनी विस्तारवादी राजनीति के तहत करती है. ऐसे में प्रधानमंत्री को अब आम चुनाव जैसे चुनावी आचरण से बचना चाहिए क्योंकि वह बहुमत की सरकार के मजबूत मुखिया हैं. लोकतंत्र की उच्च परंपराओं के पालन की उनसे बड़ी उम्मीदें हैं इसलिए प्रधानमंत्री को विवादों से दूर रहने की कोशिश करनी चाहिए. इस समय उनके कार्यक्रमों को लेकर गैर भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने बहिष्कार की जो राजनीति शुरू की है, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. इससे कटुता की राजनीति को और बढ़ावा मिलेगा जो लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है. इसका असर विकास पर भी पड़ेगा. इतना ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी प्रधानमंत्री पद की गरिमा पर प्रतिकूल असर पड़ेगा.

यह सर्वमान्य परंपरा रही है कि जब राज्यों में प्रधानमंत्री की उपस्थिति होती है तो मुख्यमंत्री उनसे अपने राज्य के लिए मांग करते हैं. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने भी प्रधानमंत्री से अपने राज्य के लिए मांग की थी. किंतु प्रधानमंत्री ने उन पर सीधा कटाक्ष कर निश्चित तौर पर उचित नहीं किया. उनका यही रुख बहिष्कार की राजनीति का दुखद कारण बना है. हरियाणा और झारखंड की घटनाओं ने इसे और तूल दे दिया है. हमें याद है कि बिहार की मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की मौजूदगी में ही केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा पर हमला बोल दिया था. इससे असहज स्थिति उत्पन्न हो गई थी.

किंतु वाजपेयी ने उनके आरोपों को अनसुना कर खुद को विकास की राजनीति की सीमाओं के भीतर ही बांधे रखा था, जिसकी बाद में तारीफ हुई थी और राबड़ी को आलोचनाओं से जूझना पड़ा था. वर्तमान प्रधानमंत्री से भी आमजन की वैसी ही उम्मीदें हैं. उन्हें भी बहिष्कार की राजनीति से बेपरवाह होकर राजनीति की ऐसी रेखा खींचनी चाहिए ताकि गैर भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री उनके कार्यक्रमों के बहिष्कार का साहस ही न जुटा सकें.

प्रधानमंत्री मोदी जनता में लोकप्रिय है, तो भाजपा में उनके इशारे का ही अनुशासन चलता है. हरियाणा के कैथल की रैली को भाजपा ने राजनीतिक रैली का रूप देने में कोई कसर उठा नहीं रखी थी. यह सरकारी कार्यक्रम था, बावजूद इसके भाजपा ने जो बैनर लगाए थे उसमें रैली के स्थान और समय का उल्लेख था. कुछ ऐसा ही झारखंड में भी होने का आरोप है. ऐसा नहीं है कि देर-सबेर इसकी जानकारी प्रधानमंत्री को न रही होगी. लोगों का ऐसा मत है कि यदि प्रधानमंत्री ने ऐसा करने वालों को इशारा मात्र किया होता तो लगातार मुख्यमंत्रियों के हूटिंग की घटनाएं नहीं होतीं. यद्यपि पीएम ने झारखंड में ऐसी कोशिश जरूर की, किंतु इससे उनके विरोधियों को बोलने का अवसर जरूर मिल गया है.

उनका कहना है कि विकास कार्यक्रमों में भीड़ जिस तरह का व्यवहार कर रही है, उससे आम चुनाव की याद ताजा हो जाती है. उस समय भी मोदी के मंच पर होने पर भीड़ ऐसा ही व्यवहार करती थी. विरोधियों का आरोप यह भी है कि भाजपा के पास आम चुनाव के समय से ही प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं की टीम है जो रैलियों में माहौल बनाने का कार्य करती है. यह सब वे लोग ही कर रहे हैं. ऐसे में प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है. फलत: कांग्रेसियों ने प्रधानमंत्री को महाराष्ट्र में काले झंडे दिखाने में तनिक देर नहीं की. ऐसा प्रधानमंत्री के सौ दिन के कार्यकाल के भीतर हुआ है. फिर आगे और क्या होगा, फिलहाल कुछ कह पाना मुश्किल है.

यह सच है कि जनता कांग्रेस से नाराज है और कुछ सुनने को तैयार नहीं है. किंतु विकास कार्यक्रमों में जनता की इस तरह की ‘हूट’ की राजनीति ने कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी पार्टियों के संदेह को और गहरा कर दिया है. केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा और प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के बीच अविास और कटुता की खाई और चौड़ी होती जा रही है. इतना ही नहीं, उत्तराखंड के राज्यपाल को हटाने का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच चुका है, तो सर्वोच्च अदालत ने भी केंद्र सरकार से पूछा है कि विपक्ष के नेता के बिना लोकपाल का चुनाव कैसे होगा. इन सारी स्थितियों के बीच प्रधानमंत्री को मर्यादा की लक्ष्मण रेखा खींचनी होगी ताकि इस गरिमामयी पद की प्रतिष्ठा पर आंच न आ सके. साथ ही उन्हें संदेश भी देना होगा कि राजनीतिक तौर पर ताकतवर होने के बावजूद वह अपने धुर विरोधियों को साथ लेकर चलते हैं. इससे उनकी राजनीति से इतर एक और अलग पहचान बनेगी जो राष्ट्र निर्माण के उनके सपनों को साकार करने में मददगार होगी.

ranvijay_singh1960@yahoo.com

रणविजय सिंह
समूह सम्पादक, राष्ट्रीय सहारा दैनिक


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