मीडिया : सेंसर बोर्ड का रिश्वत कांड
सेंसर बोर्ड के सीईओ को सत्तर हजार रुपए की रिश्वत ‘मांगते हुए’ पकड़ लिया गया!
सुधीश पचौरी, लेखक |
चैनलों और अखबारों ने बड़ी खबर बनाई कि बोर्ड का सीईओ रिश्वत मांगते गिरफ्तार!
अगले ही सीन में पुलिस उसे ले जाते हुए दिखी. यों उसे कुछ शर्मिंदा होते हुए दिखना चाहिए था लेकिन वह नहीं दिख रहा था. उसने अपने चेहरे को नहीं ढका था, न पुलिस ने ही उसका चेहरा ढंका था. आप उसे देख सकते थे, पहचान सकते थे कि यह वही है जिसने रिश्वत मांगी होगी और जिसके हस्ताक्षरों के बाद पिछली तमाम फिल्में रिलीज हुई होंगी.
इस ‘रिश्वत’ प्रकरण के दौरान ईमानदारी कुछ इसी तरह पेश हुई. शाम की बहसबाजी के विशेषज्ञ जुट गए. एंकरजनों को जितनी जानकारी थी उससे काम चलाया गया. एक एंकर ने बीच बहस में सेंसर बोर्ड के कामों पर प्रकाश डाला और डलवाया. सेंसर बोर्ड में पूर्व सदस्य रहे एक चरचाकार ने कहा कि यह आश्चर्य की बात है, सेंसर बोर्ड की एक नियमावली है जिसके आधर पर सेंसर की कैंची चलती है. रिश्वत की बात कभी नहीं सुनी गई.
एक विलेन बनने वाले अभिनेता ने ‘रिश्वत देने और लेने की प्रक्रिया’ के बारे में फरमाया कि निर्माता का बहुत सारा धन फिल्म बनाने में लगा होता है. वह रिलीज में जरा-सी देरी बर्दाश्त नहीं कर सकता. फिल्म की रिलीज पूर्व योजना के अनुसार होती है, डेट फिक्स होती हैं, वितरक तैयार रहते हैं, सिनेमाघर एडवांस बुकिंग किए रहते हैं. अगर कोई फिल्म अपने तय समय से रिलीज नहीं होती तो उसके निर्माता को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है. इस नुकसान के डर के कारण फिल्म निर्माता सेंसर सर्टिफिकेट पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं. पैसा टेबिल के नीचे से दिया जाता है.
यानी कि रिश्वत दी जाती है क्योंकि सर्टिफिकेट लेना अनिवार्य होता है जिसके बिना फिल्म रिलीज नहीं की जा सकती. यानी कि रिलीज की प्रक्रिया में ही रिश्वत की प्रक्रिया निहित है. अगर सर्टिफिकेट न लेना हो तो रिश्वत भी न देनी पड़े.
‘रिश्वत मांगने’ की प्रसारित कहानी में ‘रिश्वत मांगी गई’ की खबर एकमात्र सच की तरह आती रही. इसमें ‘मांगने वाले’ का पक्ष नहीं आया. किसी ने नहीं पूछा उससे कि क्या उसने सचमुच मांगी या उसे फंसाया गया. हमारी कल्पना में जांच में या मुकदमे के दौरान एक दिन वह यही कहेगा कि उसे ‘फांसा’ गया है, उसे बदले का शिकार बनाया गया है.
रिश्वत लेना सच हो सकता है, फांसना भी सच हो सकता है. सच कुछ भी हो सकता है. सच का इंतजार नहीं किया जा सकता. इसलिए खबर को पूरा सच मानकर खबर को इस्तगासे की तरह चलाया जाता है. यही इस बार भी हुआ.
हम जानते हैं कि बहुत बाद में भी पूरा सच सामने नहीं आएगा. अगर गलती से कभी आया तो उसका मतलब यह भी हो सकता है कि सिर्फ एक सीईओ ही रिश्वतखोर नहीं रहा होगा जबकि पकड़ा वही गया. हमारा शक्की मिजाज सिर्फ एक को दोषी मानने से इनकार करता है.
चैनलों की चरचाओं में ऐसी बातें भी सामने आई कि पिछले दिनों कुछ बड़े हीरो वाली फिल्में भी रिलीज हुई हैं जिनमें से एक ने कुछ ही दिन में तीन सौ करोड़ रुपए की कमाई की है और एक अन्य फिल्म ने अपनी रिलीज के पहले ही दिन पैंतीस करोड़ की कमाई कर डाली है.
कमाई की बात तो की गई लेकिन एंकर ने यह साफ-साफ नहीं बताया कि इन फिल्मों को सेंसर सर्टिफिकेट क्या बिना किसी रिश्वत के मिल गया होगा? चरचा से ऐसा ही प्रतीत हुआ कि सर्टिफिकेट बिना रिश्वत के मिला होगा लेकिन अपना शक्की मन यह मानने को तैयार नहीं होता कि जहां इतना गुड़ है वहां मक्खियां नहीं होंगी.
हमारे बेबुनियाद शक का आधार फिल्म की इकोनॉमी है. जिन दिनों एक बड़ी फिल्म की इकोनॉमी ही पचास से सौ-डेढ़ सौ करोड़ के बजट से शुरू होती हो, जब एक हीरो बीस-तीस करोड़ से पचास करोड़ तक लेता कहा जाता हो, जब एक हीरोइन पांच करोड़ से पचीस-तीस करोड़ तक लेती बताई जाती हो, तब किसी का दस-बीस या पचास-पिचहत्तर हजार की रिश्वत लेना भी क्या कोई रिश्वत है? इतने बड़े खेल में कुछ हजार की रकम किसी का चाय-पानी तक नहीं बना सकती. हमारे कई मित्रों का मानना है कि सेंसर बोर्ड के सीईओ साहब की गिरफ्तारी होनी ही चाहिए थी क्योंकि रिश्वत मांगते हुए भी वे अपने छोटेपन से बाज न आए. लगता है कि सीइओ ऊंचे स्तर के बंदे थे ही नहीं. लगता है कि उनकी सोच भी छोटी था. अरे कुछ बड़ा सोचते, कुछ बड़ा हाथ मारते. जो बंदा पंजी-दस्सी पर मर जाए उसे तो अंदर ही होना चाहिए. कहा जाता है कि धंधे के हिसाब से रिश्वत का लेवल तय होता है. सीइओ ने लेवल ही गिरा दिया! कितनी गलत बात है!
हम सब जानते हैं कि फिल्मों की रिलीज एक जटिल प्रक्रिया है और फिल्म से तुरंत बड़ी कमाई करना और भी जटिल प्रक्रिया है. इस खेल में आजकल सिर्फ निर्माता के दांव ही नहीं लगे होते बल्कि हीरो-हीरोइनों के दांव भी लगे होते हैं. वे रिलीज के कई दिन पहले से कई चैनलों पर आकर आध-आध घंटे के प्रोमो करते रहते हैं, दर्शकों को स्वयं ही बेचते रहते हैं कि वे इस फिल्म को देखने जरूर जाएं. यह सब प्रोफेसनलिज्म है, बिजनेस है, यह लेनदेन से परे पेशेवराना काम है.
लेकिन जिस फिल्मी दुनिया में हर कदम पर पैसा चलता हो वहां रिश्वतखोरी न होती हो, ऐसा वही मान सकता है जिसे इस दुनिया की, उसके तंत्र की कोई समझ न हो. हम मान सकते हैं कि रिश्वत मांगने के अपराध में सीईओ पकड़े गए और बाकी जो नहीं पकड़े गए वे इसलिए नहीं पकड़े गए क्योंकि वे रिश्वत नहीं ही लेते होंगे. जो दोषी था वह पकडा गया, बाकी निर्दोष रहे. आखिरकार अब अपना सेंसर बोर्ड रिश्वतखोरी से मुक्त हो ही गया!
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