परत दर परत : नेता प्रतिपक्ष या प्रतिपक्ष का नेता?

Last Updated 24 Aug 2014 12:16:37 AM IST

अच्छा हुआ कि नेता प्रतिपक्ष के मामले को देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी विचार-परिधि में ले लिया है.


राजकिशोर, लेखक

यह एक राजनीतिक मामला है और कायदे से इसे न्यायपालिका में जाने की जरूरत नहीं थी. राजनीतिक दलों को मिल-जुल कर इस विवाद को सुलझा लेना चाहिए था. लेकिन सत्तारूढ़ दल की खुदगर्जी और हठ ने मामले को अभी तक लटका रखा है. लोकतंत्र में अंतिम शरण तो मतदाता मंडल ही है, पर जब तक कोई मुद्दा उस तलक नहीं आता, न्यायपालिका को ही अंतिम फैसला करना पड़ता है. सर्वोच्च न्यायालय को ही संविधान की रक्षा का दायित्व सौंपा गया है. उसने ठीक ही कहा है कि नेता प्रतिपक्ष का पद इतना अहम है कि इससे संबद्ध प्रावधानों की समीक्षा आवश्यक है.

किसी भी विषय पर कोई कानून बनाते समय यह सावधानी बरतना होता है कि वह सभी संभव स्थितियों का निस्तारण कर सके. जाहिर है, जब इस पद के लिए लोकसभा की कम से कम दस प्रतिशत सीटों की अनिवार्यता तय की गई थी, तब इस संभावना पर विचार ही नहीं किया गया था कि अगर लोकसभा में प्रतिपक्ष के किसी भी दल को दस प्रतिशत सीटें न मिल सकीं तब क्या होगा? राजनीति को संभावनाओं का खेल बताया जाता है. इसमें कुछ भी संभव है. लोकसभा में सिर्फ दो सीटें हासिल करने वाली पार्टी आगे चल कर बहुमत भी प्राप्त कर सकती है और बहुमत की पार्टी को सिर्फ  40-44 सीटें भी मिल सकती हैं. शायद कानून बनाने वालों को अनुमान ही नहीं था कि प्रतिपक्ष में सबसे ज्यादा सीटें हासिल करने वाली पार्टी इतनी कमजोर हो सकती है कि उसे दस प्रतिशत सीटें भी न मिल पाएं.

अनेक उच्च पदों पर नियुक्ति में नेता प्रतिपक्ष की संवैधानिक भूमिका है. ऐसी स्थिति में यह कानूनी व्यवस्था होनी चाहिए थी कि यह पद कभी खाली न रहे. लेकिन 22 अगस्त 1979  से 18 दिसम्बर 1989 तक यह पद खाली था, क्योंकि विपक्ष के किसी भी नेता को नेता प्रतिपक्ष की मान्यता नहीं मिली थी. यह मान्यता लोकसभा का अध्यक्ष देता है. वास्तव में तब तक वह सिर्फ  औपचारिक पद था, जिसका लाभ यह है कि उसे कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया हुआ है. पिछले कुछ वर्षो में संवैधानिक महत्व के कई पदों की नियुक्ति में नेता प्रतिपक्ष की राय लेना अनिवार्य बना दिया गया है. लेकिन साथ ही, यह नियम भी बनाया गया है कि जब यह पद खाली होगा और संबंधित  पदों पर नियुक्ति होगी, तो उस नियुक्ति को अवैध नहीं माना जाएगा. अर्थात नेता प्रतिपक्ष की भूमिका अहम है, लेकिन इतनी अहम नहीं कि उसके बिना सरकार का कामकाज रु का रहे.

यह व्यवस्था आपत्तिजनक है, क्योंकि इसके अनुसार जब विपक्ष कमजोर हो यानी विपक्ष के किसी भी दल को दस प्रतिशत सीटें भी न मिल सकें, तो विपक्ष के नेता के बिना ही काम चलाया जा सकता है. लोकतांत्रिक आवश्यकता की दृष्टि से यदि लोकसभा में विपक्ष की एक ही सीट हो, तब भी उसे नेता प्रतिपक्ष का रुतबा मिलना चाहिए. सरकार का जितना महत्व है, प्रतिपक्ष का महत्व उससे कुछ कम नहीं है. इसलिए इस बार जब यह समस्या पेश आई कि यह पद किसे दिया जाए, क्योंकि किसी भी विपक्षी दल के पास दस प्रतिशत सीटें नहीं हैं, तब लोकसभा के स्पीकर को ही नहीं, सरकार और पूरे विपक्ष को भी चिंता होनी चाहिए थी कि इस पद को कैसे भरा जाए. इस लोकसभा का गठन होने के समय से ही कांग्रेस पार्टी अपने लिए इस पद की मांग कर रही है, पर सरकार को लोकतंत्र की बजाय कानूनी बारीकियों की ज्यादा चिंता है. क्या सरकार को इस मोटी-सी बात का एहसास नहीं है कि कानून हमारे लिए है, हम कानून के लिए नहीं हैं? जब कोई नई परिस्थिति आ जाए, तब कानून को ही बदलने के बारे में सोचना चाहिए न कि परिस्थिति के बदलने का इंतजार करना चाहिए. मान लीजिए कि अगली लोकसभा का ढांचा भी कुछ ऐसा ही रहता है, तब?

वास्तव में नेता प्रतिपक्ष के कानून की बुनियादी खामी यह है कि इसमें दल को महत्व दिया गया है, गठबंधन को नहीं. जबकि लोकसभा के दूसरे चुनाव के बाद ही यह स्पष्ट हो गया था कि जरूरी नहीं कि किसी एक पार्टी की ही सरकार को बहुमत मिले, गठबंधन सरकारें भी संभव हैं. 1967 के विधानसभा चुनावों के बाद यह तथ्य सामने आया कि गठबंधन सरकारों का बनना अब लगभग अनिवार्य हो चुका है. केंद्र में राजीव गांधी के बाद जितनी भी सरकारें बनीं, वे सब गठबंधन सरकारें थीं. इस बार भाजपा को अकेले पर्याप्त बहुमत प्राप्त है, फिर भी उसने भविष्य की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए अपने गठबंधन को तोड़ा नहीं है.

जो बात सत्तापक्ष पर लागू होती है, वही विपक्ष के संदर्भ में भी प्रासंगिक है. जरूरी नहीं कि विपक्ष का नेता कोई एक दल ही हो- किसी गठबंधन का नेता भी हो सकता है. कांग्रेस ने भी यूपीए के अपने गठबंधन को भंग नहीं किया है. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को दस प्रतिशत वाले नियम का अच्छी तरह पता है. तब भी वे नेता प्रतिपक्ष पद के लिए उतावली हैं, यह आश्चर्यजनक है. इसकी बजाय उन्हें विपक्षी दलों का वास्तविक नेता बनने का प्रयास करना चाहिए था.

कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष का पद न देकर स्पीकर सुमित्रा महाजन ने सिर्फ  कानून का सहारा लिया है, जो वैसे भी बिलकुल स्पष्ट था. अगर वे यह महसूस कर पातीं कि यह कानूनी नहीं, राजनीतिक मामला है, तो बेहतर होता. अब भी राजनीतिक समाधान के लिए दरवाजा खुला हुआ है. आशा है, सरकार सर्वोच्च न्यायालय में कोई ऐसा प्रस्ताव पेश करेगी जो सर्व स्वीकार्य हो.



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