साल-दर साल बाढ़ से बिगड़ते हालात

Last Updated 23 Aug 2014 12:32:08 AM IST

देश के मैदानी इलाके इस समय बाढ़ की विभीषिका से जूझ रहे हैं.


साल-दर साल बाढ़ से बिगड़ते हालात

हर साल बाढ़ प्रभावित अनेक समुदाय अपनी जड़ों से उजड़ते हैं और बाढ़ का पानी उतर जाने के बाद वह उसी जगह नये सिरे से अपनी जीवनचर्या को संवारने का प्रयास करने लगते हैं. अधिक विनाशकारी बाढ़ में तो बहुत से लोग मारे भी जाते हैं. यही नहीं, बाढ़ के बाद की स्थिति में भी अनेक लोग बीमारी और जरूरी वस्तुओं के अभाव में दम तोड़ देते हैं या बहुत विकट स्थिति में जीते हैं. कई बार नदी का कटाव होने से या मलबा व बालू बहकर आने से ग्रामीणों के खेत बह जाते हैं या खेती योग्य नहीं रह जाते हैं. यानी उनकी रोजी-रोटी छिन जाती है. बाढ़ प्रभावित तमाम परिवार अस्थाई शिविर व झोपड़ियों में बहुत ही कठिन स्थिति में रहने को विवश होते हैं.

वास्तव में बाढ़ को हर वर्ष आने वाली आपदा मानकर इससे होने वाले दुख-दर्द को उपेक्षित करना पीड़ितों के प्रति बहुत बड़ा अन्याय है, अनुचित है. हमें इस सवाल का सामना करना चाहिए कि आखिर बाढ़ नियंत्रण पर इतना खर्च करने के बाद भी बाढ़ से जुड़ा दुख-दर्द क्यों बढ़ता ही जा रहा है. मौजूदा समय में यह मुख्य रूप से दो कारणों से बढ़ा है. पहली वजह है फ्लड प्रोन एरिया का बढ़ना. आज की तारीख में फ्लड प्रोन एरिया या बाढ़ प्रभावित क्षेत्र  हजारों किमी बाढ़-रक्षा तटबंध बनने के बाद भी बढ़ता जा रहा है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1980-2010 के तीन दशकों में इसमें लगभग 25 प्रतिशत की वृद्धि हो गई है.

बाढ़ से बढ़ते दुख-दर्द का एक अन्य कारण यह है कि जो बाढ़ अधिक वेग से आती है और जिसकी विनाशक क्षमता अधिक होती है, वह अब अधिक आने लगी है. अचानक और तेजी से अधिक जलराशि वाली बाढ़ को फ्लैश फ्लड भी कहा जाता है. इस तरह की बाढ़ तब आती है जब बांध या बैराज से बहुत सा पानी एक साथ छोड़ा जाता है या अचानक कोई तटबंध टूट जाता है. इस तरह से आई बाढ़ बहुत विनाशक सिद्ध होती है और इससे जान-माल के नुकसान का बहुत बड़ा खतरा होता है.

सदियों से बाढ़ प्रभावित कुछ क्षेत्रों में पहले बाढ़ के साथ जीना इसलिए सरल था क्योंकि बाढ़ का पानी बड़ी मात्रा में बेशक आता था पर जितनी तेजी से आता था, उतनी ही तेजी से निकल भी जाता था. इसका सकारात्मक पहलू यह था कि उसके साथ आई उपजाऊ मिट्टी खेती के बहुत अनुकूल होती थी और जो भी फसल इन खेतों में बोई जाती थी वह बहुत लाभ देती थी लेकिन अब देर तक जल-भराव रहने के कारण समय से खेती नहीं हो पाती है. यही नहीं, ठहरे हुए पानी के कारण तमाम तरह के संक्रामक रोगों के साथ ही मच्छरजनित बीमारियों का प्रकोप बढ़ रहा है. शहरों में निर्माण कार्यों में असावधानी, निकासी की गड़बड़ी व मलबे के ढेर के कारण भी जल-भराव की समस्या तेजी से बढ़ रही है. पॉलीथीन कचरे ने भी यह समस्या बढ़ाई है.

पहले वष्रा का बहुत सा पानी तालाबों, पोखरों में समा जाता था, लेकिन आज इन पर अतिक्रमण हो जाने या पाट दिए जाने के कारण यह वष्राजल बाढ़ का कारण बन रिहायशी इलाके या खेती को क्षतिग्रस्त कर रहा है. अनेक क्षेत्रों में आज भी बाढ़ और सूखे दोनों का समाधान यह है कि इन तालाबों, पोखरों को पुननिर्मित कर जलापूर्ति और बाढ़ की रोकथाम की जाए. वष्रा का बहुत सा पानी इन तालाबों में समाने पर सूखे दिनों में राहत देगा और भू-जल में वृद्धि करेगा. जहां-जहां छोटे चेक डैम, मेढबंदी, वाटर हारवेस्टिंग आदि  उपाय वष्रा जल रोकने में कारगर होंगे, वहीं बाढ़ व सूखे दोनों से भी बचाव होगा. पहले से बने तटबंधों व बांधों के बेहतर रख-रखाव व बेहतर प्रबंधन पर भी ध्यान देना जरूरी है. इनके रख-रखाव में होने वाले भ्रष्टाचार व लापरवाही को रोकना बहुत जरूरी है.

एक शोध पत्र के मुताबिक बाढ़ के खतरे के प्रबंधन के लिए पिछले 50 वर्षों के दौरान तटबंधों का निर्माण मुख्य रणनीति रहा है. अध्ययन में बताया गया है कि तटबंध निर्माण से नदी प्रवाह क्षेत्र में मिट्टी-गाद की मात्रा बढ़ती है व नदी का स्तर आसपास की भूमि से ऊपर उठता है. गंगा घाटी के कुछ क्षेत्रों में जहां तटबंध बनाए गए हैं, वहां नदी स्तर में वृद्धि की दर दस सेंटीमीटर प्रति वर्ष या एक मीटर प्रति दशक से भी अधिक पाई गई है. इसका अर्थ यह हुआ कि निर्माण के चार दशक बाद नदी स्तर आसपास की भूमि से चार मीटर तक ऊपर उठ सकता है. इस कारण नदी का तटबंध भीतर सिमटे रहने की संभावना कम होती है व तटबंध टूटने की आशंका बढ़ती जाती है.

एक अन्य अध्ययन की रिपोर्ट के अनुसार, तमाम लोगों से बातचीत के आधार पर पता चला कि उत्तर प्रदेश व बिहार के गांवों के अनेक निवासी बाढ़ को अपने गांव समाज की एक प्राकृतिक स्थिति मानते हैं और कहते हैं कि उनके गांव के हालात आज की अपेक्षा तटबंध बनने से पहले ज्यादा बेहतर थे. गांववासियों के अनुसार तटबंध बनने से पहले बाढ़ का पानी शीघ्रता से निकल जाता था और उपजाऊपन बढ़ाने वाली गाद की पतली परत उनके खेतों को उपजाऊ बना देती थी. लेकिन आज के समय में अनेक गांवों के सामने गंभीर समस्याएं हैं. जहां बाढ़ अधिक केन्द्रित है वहां बालू अधिक जमा हो रही है और बाढ़ व जल जमाव की समस्या बढ़ गई है. यही नहीं, जहां तटबंध के कारण थोड़ा सा भी बाढ़ का पानी नहीं पहुंचता है वहां भूजल रिचार्ज नहीं होता है और मिट्टी की नमी में ऐसी कमी आती है जैसी सूखे के समय आती है.

उत्तर प्रदेश व आसपास के क्षेत्रों में हाल के वर्षों में बाढ़ के विकट होते रूप के साथ अब तक के बाढ़ नियंत्रण उपायों के वास्तविक परिणामों को सही ढंग से समझने की बहुत जरूरत है. इस तरह की समझ बनाकर जो नीतिगत बदलाव जरूरी समझे जाएं, उसके लिए सरकार को तैयार रहना चाहिए. सही व संतुलित समझ बनाने में प्रभावित लोगों से विस्तृत चर्चा करने के साथ-साथ प्रभावित लोगों में कार्यरत सामाजिक कार्यकर्ताओं व संस्थाओं से भी परामर्श करना चाहिए व इस विषय पर गंभीरता से कार्य करने वाले अनुसंधानकर्ताओं से भी.
बाढ़ नियंत्रण के ऐसे पुनर्मूल्यांकन में विशेषकर इस बारे में विचार करने की जरूरत है कि जो भारी-भरकम बजट बांधों  और तटबंधों को बनाने के लिए प्राय: स्वीकृत हो जाता है, क्या उसका बेहतर उपयोग बाढ़-प्रभावित इलाकों में कृषि, पशुपालन, खाद्य व चारा उपलब्धि, स्वास्थ्य, स्वच्छता, पेयजल उपलब्धि व सबसे अधिक जल-निकासी सुधारने में नहीं किया जाना चाहिए!

भारत डोगरा
लेखक


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