चुनावी मशीन में बदलती भाजपा

Last Updated 22 Aug 2014 01:14:45 AM IST

जम्मू कश्मीर के भाजपा पदाधिकारी यह देखकर हैरान थे कि राष्ट्रीय अध्यक्ष ने उनके लिए मिशन-44 बनाकर रखा था.


चुनावी मशीन में बदलती भाजपा

भाजपा की एक राज्य इकाई के पदाधिकारी जब नए पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से पहली बैठक में मिले तो परिचय के शिष्टाचार के बाद यह प्रश्न सुन कर हैरान रह गए कि प्रदेश की सभी सीटों के लिए उनके पास आगामी चुनाव के लिए क्या योजना है. उनकी हैरानी यह जान कर और बढ़ गई कि शाह न सिर्फ  उन सीटों के नाम और अपनी संभावित सूची और पूरी रणनीति के साथ आए थे बल्कि उन्होंने मुख्य चर्चा भी वही रखी. अपनी झेंप और कमजोरी के प्रकट होने के बावजूद वे लोग अपने को उत्तराखंड के पार्टी पदाधिकारियों से ज्यादा भाग्यशाली मानते रहे, जिन्हें राज्य के तीन उपचुनावों में मिली हार के बाद नए अध्यक्ष से खासी फटकार मिली और अगले दिन तैयारी करके आने का आदेश भी.

जम्मू कश्मीर के भाजपा पदाधिकारी यह देखकर हैरान थे कि राष्ट्रीय अध्यक्ष ने उनके लिए मिशन-44 बनाकर रखा था. अब तक भाजपा राज्य में सबसे ज्यादा 11 सीटें ही जीत पाई है और 87 सदस्यीय विधानसभा का चुनाव इस साल ही होना है. वह यह इशारा पाकर भी थोड़े चकित थे कि भाजपा राज्य में किसी दल (संभवत: पीडीपी) से गठबंधन भी कर सकती है. यह मामला सिर्फ  तीन राज्यों के पदाधिकारियों के साथ का नहीं है. अमित शाह से भेंट करने वाले हर किसी को लगता है कि वे अपना काम और लक्ष्य ठीक से जानते हैं और इसके अलावा उनकी चिंता कुछ भी नहीं है.

केंद्र में सत्ता में आ चुकी पार्टी के इस नए राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए यह साफ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही पार्टी का ‘होरिजेंटल’ के साथ ‘र्वटकिल’ विकास भी चाहते हैं, लेकिन अमित शाह के जिम्मे अभी पार्टी का क्षैतिज विकास ही मुख्य लक्ष्य है. उन्हें सबसे पहले तो हरियाणा, महाराष्ट्र, जम्मू कश्मीर, झारखंड और दिल्ली जैसे राज्यों के विधानसभा चुनाव पर ध्यान देना है जहां कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों का राज रहा है.

फिर उन्हें पार्टी को उन इलाकों में मजबूत करना है जहां अब भी भाजपा ज्यादा मजबूत आधार नहीं बना पाई है. पिछले आम चुनाव के पहले तक भाजपा की मौजूदगी देश के चालीस फीसद इलाके से अधिक नहीं मानी जाती थी. लोकसभा चुनाव के समय मोदी की रणनीति भाजपा को उन सभी सीटों पर मुकाबले में लाने की थी जहां से पार्टी कभी चुनाव जीती थी या जहां वह मुकाबले में आ गई थी. पर जब मोदी के नाम का जादू चला तो ऐसी सीटें भी निकल गई जिन पर भाजपा कभी मुकाबले में भी नहीं रही थी.

जाहिर तौर पर अब भी भाजपा और अमित शाह, दोनों को मोदी के नाम और केंद्र सरकार के काम का ही सबसे बड़ा सहारा है. और जैसा हम पहले से चर्चा करते रहे हैं, मोदी को आगे करने के बाद अमित शाह को पार्टी का जिम्मा सौंपने का साफ मतलब है कि अब भाजपा का जितना रिश्ता पंडित दीनदयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के दर्शन और वैकल्पिक राजनीति से नहीं है, उतना चुनाव जीतने और कांग्रेस का विकल्प बनने से रह गया है.

दीनदयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पार्टी सिर्फ चुनाव जिताने के गुण वाले को सर्वेसर्वा बना दे, यह एक बड़ी घटना है. फिर शाह के पक्ष में यह बात भी जाती है कि जो भाजपा उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में तीसरे और लोकसभा के पिछले चुनाव में चौथे स्थान पर आकर मुख्य मुकाबले से बाहर होती लग रही थी, उसे उन्होंने अब तक की सबसे शानदार जीत दिला दी. इसलिए उत्तर प्रदेश की जीत को मुल्क में भाजपा का शासन लाने में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है तो इसका श्रेय शाह को मिलना ही चाहिए. वे इसी दम पर अध्यक्ष भी बने हैं. वे क्या-क्या करेंगे, अभी यह भविष्यवाणी करना उचित नहीं है, पर लक्षण यही लगते हैं कि वे पार्टी को चुनाव लड़ने-जीतने की मशीन में बदलने की तरफ बढ़ेंगे.

अमित शाह की तैयारियों की एक बड़ी झलक उनके नए पदाधिकारियों के चुनाव से दिखाई देती है जिसमें समाज के सभी वगरे और इलाकों को प्रतिनिधित्व देने जैसा कर्मकांड तो हुआ है, पर महिलाओं का कोटा जबरन 33 फीसद करने वाला कर्मकांड दोहराया नहीं गया है. इसमे वरुण गांधी, पंकज सिंह, अभिषेक सिंह, दुष्यंत सिंह जैसे ‘खानदानी’ लोगों को जगह नहीं दी गई है. इस बार कल्याण सिंह, सीपी ठाकुर, शांता कुमार, अहलुवालिया और बलबीर पुंज जैसे बुजुगरे को भी सिर्फ  ‘सम्मान’ देने भर के लिए उपाध्यक्ष नहीं बनाया गया है. एक कुछ ज्यादा उम्र के येदियुरप्पा को जगह मिली भी है तो हम सब उनके राजनीतिक महत्व को जानते हैं.

यहां भी चुनाव जीतना प्रमुख गुण है, सम्मान दिखाना या खपाना कम महत्व की चीज. और किसे लिया गया है उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि किसे छोड़ा गया है- नेता पुत्रों और दिग्गज नामों को छोड़ना नए दौर की नई राजनीति को बताता है. प्रवक्ताओं की टीम में सुंदर दिखने वाले चेहरों की जगह बहस करने वाले और पार्टी का पक्ष मजबूती से रखने वाले लोग आए हैं.

जिन राज्यों में चुनाव होने हैं, वहां के लिए शाह ने दौरे और जनसभाओं का काम भी किसी भी पार्टी से पहले शुरू कर दिया है. दिलचस्प है कि हरियाणा हो या झारखंड, बिहार हो या महाराष्ट्र, पार्टी के पास अगर विभिन्न सामाजिक समूहों के नेता नहीं रहे हैं तो अब बाकायदा दलबदल के जरिए उसकी भरपाई की जा रही है. भाजपा और मोदी की हवा देखकर पहले ही काफी नेता आने को उत्सुक हैं. उन्हें लाकर पार्टी की हवा बनाई जा रही है.

हरियाणा में कांग्रेसी बीरेंद्र सिंह और झारखंड में झारखंड विकास मोर्चा के विधायकों को पार्टी में शामिल करा कर न सिर्फ  विरोधी को कमजोर किया गया है बल्कि भाजपा को नई ताकत दी गई है. उम्मीद की जा रही है कि चुनाव से पूर्व जेवीएम के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी भी भाजपा में आ जाएंगे. हम जानते हैं कि यह काम अर्जुन मुंडा की मर्जी के खिलाफ होगा पर मरांडी के आने से लाभ होगा. महाराष्ट्र में भी एनसीपी और कांग्रेस से नेताओं को तोड़ने का काम चल रहा है. हमने पिछले चुनाव के समय देखा था कि भाजपा ने किस तरह रामविलास पासवान, उदित राज और रामदास आठवले जैसे दलित नेताओं को अपनी तरफ लाकर नया वोट बैंक आकर्षित किया था.

दलितों भर का मामला नहीं है और न ही आदिवासियों में संघ के काम के सहारे राजनीतिक पैठ बनाने का मामला है. मोदी के पिछड़ा होने का कार्ड भी पार्टी नहीं भूली है. रेणु देवी से लेकर कठेरिया और सोनकर शास्त्री जैसे लोग ढूंढकर ऊपर लाए गए हैं. पर सबसे दिलचस्प प्रयोग पश्चिम बंगाल में हो रहा है जहां अभी चुनाव कुछ दूर हैं और मुख्य विपक्षी वाममोर्चा ने हथियार-से डाल दिए हैं.

वहां भाजपा तेजी से मुसलमानों में आधार बढ़ा रही है. अभी लोकसभा चुनाव के बाद से उसके मुसलमान सदस्यों की संख्या तीस हजार से बढ़कर साठ हजार से ऊपर पहुंच गई है. अमित शाह छह सितम्बर को सिलीगुड़ी में आम सभा करके अपने बंगाल मिशन की शुरु आत कर रहे हैं.

असम में भी पार्टी ने 14 में से सात लोकसभा सीटें जीतने के बाद राज्य को जीतने की तैयारियां शुरू कर दी हैं. पिछले दिनों अमित शाह ने राज्य के 26 कबीलाई नेताओं से मुलाकात की. भाजपा ने ओडिशा और आंध्र जैसे राज्यों के लिए भी खास रणनीति बनाई है जहां पहले उसका मजबूत आधार रहा है. पर सवाल वही हैं- र्वटकिल के साथ होरिजेंटल ग्रोथ का और सरकार को दिशा देने या उसकी पिछलग्गू होने का. पार्टी सिर्फ चुनाव जीतने की मशीन बन जाए तो इसके दूसरी दिशा में बढ़ने का खतरा बढ़ जाएगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं)

अरविन्द मोहन
लेखक


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