दाभोलकर की विरासत और अंधविश्वास

Last Updated 22 Aug 2014 12:58:16 AM IST

डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या को लेकर सवाल उठे थे कि कहीं उन तांत्रिकों-ओझाओं ने ही तो उन्हें रास्ते से हटाने की योजना नहीं बनाई, जिनका कारोबार जागरूकता अभियानों से बाधित होने लगा था.


दाभोलकर की विरासत और अंधविश्वास

महाराष्ट्र में डेढ़ दशक तक तंत्र-मंत्र, अघोरपंथी और टोने-टोटकों के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले और आग पर नंगे पांव चलने जैसे कारनामों को हाथ की सफाई और साइंस का कमाल साबित करने वाले डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या को एक साल पूरा हो गया है. पिछले साल अगस्त के दूसरे पखवाड़े में अनजान लोगों ने उनकी हत्या कर दी थी. उनकी हत्या को लेकर सवाल उठे थे कि कहीं उन तांत्रिकों-ओझाओं ने ही तो उन्हें रास्ते से हटाने की योजना नहीं बनाई, जिनका कारोबार जागरूकता अभियानों से बाधित होने लगा था. हत्या के जो भी कारण रहे हों, पर समाज के लिए उनकी शहादत का एक असर यह होना ही चाहिए था कि लोग अंधविश्वास के अंधेरे से बाहर आते और ऐसी कुप्रथाओं का अंत होता. लेकिन अफसोस ऐसे समाज की रचना अब भी स्वप्न है. समाज अब भी रूढ़ियों में जकड़ा दिखता है.

हाल में, संसद में राष्ट्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने जो आंकड़े पेश किए हैं, उनके मुताबिक पिछले साल देश के दूर-दराज इलाकों में जादू-टोने और अंध धार्मिंक विश्वास से ग्रसित समाज ने 160 महिलाओं को डायन बता मार दिया. इस साल मार्च तक देश के अलग-अलग हिस्सों में आठ महिलाओं की बलि ऐसे ही अंधविश्वासों के तहत ली जा चुकी है. पिछले तीन सालों में डायन के नाम पर 519 महिलाओं की हत्या हुई. वर्ष 2011 में 240, 2012 में 119 व 2013 में 160 महिलाओं की हत्या हुई.

ऐसे ही केरल के पद्मनाभ मंदिर के संबंध में हाल में सुप्रीम कोर्ट के जज मुकुल रोहतगी ने अपनी स्टेटस रिपोर्ट में साफ किया है कि मंदिर के एक तहखाने के बारे में जो धारणा थी कि उसमें रखे खजाने की रक्षा नाग देवता (सांप) करते हैं, पूरी तरह निराधार है. इसी के चलते इस तहखाने को अतीत में खोलने से इनकार कर दिया जाता था, लेकिन अब स्पष्ट किया गया है कि तहखाना खोला जा चुका है. वहां कोई सांप नहीं मिला है और अब वहां मिले खजाने का आकलन हो रहा है. बहरहाल, जहां तक डायन कहकर मार दी जाने वाली महिलाओं का प्रश्न है, उनकी सुरक्षा के संबंध में महिला-बाल विकास मंत्रालय की दलील है कि डायन के नाम पर प्रताड़ना और हत्या भारतीय दंड संहिता के तहत दंडनीय अपराध है. यानी मौजूदा कानून ठीक से लागू हों तो समस्या का समाधान हो सकता है.

देश के लिए विभिन्न प्रदेशों के 50 से अधिक जिलों में डायन प्रथा  का खौफ है. यहां ऐसी महिलाओं की लंबी सूची है जिन्हें डायन करार देकर बड़े अत्याचार होते हैं. कुछ साल पहले राष्ट्रीय महिला आयोग की तत्कालीन सदस्य निर्मला सावंत प्रभावलकर ने स्वीकारा था कि देश में 50-60 जिलों में इस कुप्रथा का ज्यादा जोर है. कहीं महिला को डायन, कहीं डाकन, तेनी या टोनी, मनहूस जैसे नामों से लांछित कर बहिष्कृत किया जाता है. इस अंधविश्वास का आलम यह है 2वीं सदी में भी यह सिलसिला जारी है. गांव-देहात से लेकर छोटे बड़े कस्बों शहरों में अब भी ओझा, भोपा और तांत्रिक किसी सामान्य औरत को अंधविश्वास का हवाला दे आसानी से डायन घोषित कर देता है और पूरा समाज उसकी जान लेने पर उतारू हो जाता है. विडंबना यह है कि कई बार डायन करार दी गई महिला के परिवारीजन और रिश्तेदार तक उसे प्रताड़ित करने या मारने के अपराध में शामिल हो जाते हैं.

सवाल है कि दाभोलकर जैसे समाज-सेवियों की अथक कोशिशों और बलिदान के बावजूद कायम कुरीतियों व अंधविश्वास के खिलाफ आखिर जंग कैसे छेड़ी जाए! इसका एक उपाय कड़ा कानून बनाना हो सकता है जिसमें अंधविश्वास (अंधश्रद्धा) फैलाने वालों को दंडित करने का प्रावधान हो. उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश राज में 1829 में लॉर्ड विलियम बेंटिक ने जब तक सती प्रथा के विरोध में कानून नहीं बनाया, तब तक कोई मानने को तैयार न था कि पति के साथ चिता में उसकी विधवा को जला देना अंधविश्वास है और इसके लिए महिला को सती होने के लिए मजबूर करने वाले लोगों और समाज को दंडित किया जाना चाहिए. सती प्रथा का विरोध करने वालों को फटकारते हुए बेंटिक ने कहा था कि यदि शासक अपनी आंखों के सामने एक स्त्री को जिंदा जलते हुए देखने के बाद भी हस्तक्षेप न करे, तो वह शासन करने लायक नहीं है. इसी तरह डॉ. दाभोलकर भी सवाल उठाते थे कि यदि हमारी सरकार किसी इंसान को बलि चढ़ते देख या उसे अघोरी प्रथा का शिकार होते देख चुप है, तो क्या ऐसे शासक निकम्मे नहीं कहलाने चाहिए?

ढोंगी बाबाओं और नकली तांत्रिकों को रोजीरोटी ही जहालत भरे इन बुरे रिवाजों से जुड़ी है, लिहाजा उनके पीछे हटने का सवाल ही पैदा नहीं होता, पर सबसे ज्यादा हैरानी तब होती है जब पढ़े-लिखे लोग झांसे में आकर जान-माल का नुकसान कर बैठते हैं. वास्तव में गरीब और अनपढ़ ही नहीं अमीर तबके के लोग भी आसानी से ढोंगी बाबाओं के असर में आ जाते हैं. ऐसे ढोंगी ओझा-बाबा खुलेआम दावा करते हैं कि संतान प्राप्ति से लेकर सुखी वैवाहिक जीवन पाने और तकरीबन हर समस्या का रामबाण उपाय उनके पास है. यही वजह है कि देवी का कोप टालने के लिए बच्चों की बलि देने से लेकर महिलाओं को डायन कहकर मार देने तक की घटनाएं अब भी बंद नहीं हुई हैं.

इन सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए दो तरह के उपायों की जरूरत है. कुछ कुप्रथाएं तो सामाजिक जागरूकता पैदा कर रोकी जा सकती हैं, लेकिन कुछ कड़े कानून से ही खत्म हो सकती हैं. वास्तव में अब भी देश के गांव-देहात के लोग शिक्षा का लाभ उठाने की हैसियत में नहीं हैं, इसलिए सामाजिक कुप्रथाएं भी नहीं मिट पा रही हैं लेकिन जैसे ही शिक्षा तक उनकी पहुंच बढ़ेगी, शिक्षा का स्तर बढ़ेगा- ऐसी कुप्रथाओं में कमी की उम्मीद है. लेकिन देखा गया है कि ऐसे मामलों में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी कड़े कानूनों के रास्ते में बाधा बन जाती है.

ग्रामीण मतदाताओं, कुछ समुदायों, वर्ग विशेष और कबीलों की राजनीति करने वाले नेता अक्सर कुप्रथाएं रोकने वाले कानूनों को लेकर चिंतित दिखते हैं कि कहीं ऐसे कानूनों से श्रद्धा, पुरातन परंपराओं पर तो कोई आंच नहीं आएगी. असल में, उन्हें फिक्र होती है अपने उस वोट बैंक के खिसकने की जो रूढ़िगत परंपराओं (कुरीतियों) पर प्रहार करने पर नाराज हो जाएगा. जब देश में दहेज हत्या, ऑनर किलिंग आदि मामले सामने आने पर उनके खिलाफ सैकड़ों आवाजें उठ सकती हैं तो अंधविश्वास के विरोध में कोई बड़ा अभियान क्यों नहीं चल सकता.

मनीषा सिंह
लेखक


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