ना-पाक हरकत पर करारा जवाब

Last Updated 20 Aug 2014 12:32:20 AM IST

पुरानी कहावत है कि सब्र की हद होती है.


ना-पाक हरकत पर करारा जवाब

जाहिर है कि पाकिस्तान के साथ रिश्तों को सुधारने और सामान्य बनाने के बारे में पाकिस्तान की लगातार भड़काऊ हरकतें जारी रहने से हिंदुस्तान के सब्र का बांध टूट चुका है. दिल्ली में तैनात पाकिस्तानी राजदूत के कश्मीर घाटी के अलगाववादी तत्वों के साथ संवाद के हठ की वजह से भारत सरकार को विदेश सचिव स्तर की वार्ता को रद्द करने के लिए मजबूर होना पड़ा है.

अजीब बात यह है कि अब भी कुछ लोग हैं जिन्हें लग रहा है कि मोदी सरकार का यह फैसला दूरदर्शी नहीं है. एक बयान कांग्रेस की तरफदारी करने वाले और पार्टी के प्रवक्ता की भूमिका निभाने वाले सज्जाद पूनावाला का है- वह यह मीन-मेख निकालने में जुटे हैं कि वार्ता रद्द करने के कुछ घंटे पहले तक यह सरकार पाकिस्तान के साथ ‘चाय पर चर्चा’ की बातें कर रही थी और राजनयिक परामर्श को सहज बनाने के लिए खयाली पुलाव-बिरयानी पका रही थी. सोशल मीडिया पर यह बहस गरमाई जा रही है कि अगर पाकिस्तान के साथ संवाद स्थगित कर दिया गया तब फिर किसी भी विवादग्रस्त मुद्दे का समाधान कैसे ढूंढा जा सकता है? इन आलोचकों का कहना यह भी है मोदी ने अपने शपथग्रहण समारोह में पाकिस्तानी सदर को न्यौता देकर खुद जो पहल की थी, अब उसे इतनी जल्दबाजी में क्यों खारिज किया जा रहा है? क्या वह महज दिखावा था अपनी छवि निखारने का?

कुछ और भी हैं जिनको लगता है कि भारत एक जनतंत्र है जिसमें हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है. हुर्रियत के नेतागण भी भारत के नागरिक हैं जिन्हें अपनी अलग राय रखने का पूरा अधिकार है. यह सब लोग जाने कैसे भूल जाते हैं कि संविधान में प्रतिष्ठित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार अबाध नहीं है. राष्ट्र की एकता, अखंडता, संप्रभुता की रक्षा के लिए इन्हें संकुचित-बाधित किया जा सकता है. अलगाववाद पर लगाम लगाने के लिए यह अनिवार्य है. इसके अलावा संविधान की धज्जियां उड़ाने पर आमादा तत्वों को अपने बचाव में संविधान का दुरु पयोग कवच की तरह कतई नहीं करने दिया जा सकता है.

मोदी सरकार के आचरण में कथनी और करनी का भेद कम से कम इस प्रसंग से प्रमाणित नहीं होता. हर कीमत पर पाकिस्तान के साथ बातचीत जारी रखने की मनमोहन और यूपीए सरकार की जिद ने ही हुर्रियत का दुस्साहस इतना बढ़ाया है कि वह पाकिस्तान के राजदूत को हमारे देश के जनमत का एक (सबसे अहम?) हिस्सा नजर आते हैं. हकीकत तो यह है कि पाकिस्तानी दूतावास से ही इस तबके को वह प्राणरक्षक घुट्टी-संजीवनी बूटी सुलभ होती रही है जो उनके मृतप्राय शरीर में नवजीवन का संचार करती रही है. इस बात को नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि कभी मानवाधिकारों के उल्लंघन तो कभी आत्मनिर्णय के अधिकार के बहाने जम्मू कश्मीर में जनाधार से वंचित मीर वाइज, शब्बीर शाह, यासीन मलिक या लोन वगैरह पाकिस्तानी समर्थन से ‘कश्मीर समस्या’ को खौलाते, उसका अंतरराष्ट्रीयकरण करने में जुटे रहे हैं.

जिस ट्रैक-टू राजनय का जिक्र अकसर होता है, वह बुनियादी तौर पर परदे के पीछे से अमेरिका द्वारा संचालित कठपुतलियों का तमाशा सरीखा है. इस तामझाम का नाजायज फायदा भी अलगाववादी ही उठाते रहे हैं. यह बात दो टूक कही जानी चाहिए कि इस अभियान के साथ जुड़े और इससे लाभान्वित होने वाले महानुभाव किसी भी तरह तटस्थ नहीं समझे जा सकते. उनके व्यक्तिगत हित-स्वार्थ इस शांति प्रक्रिया के जारी रहने से जुड़े हैं. अमन की आशा वाला तमाशा अब असह्य बन चुका है.

एक और बात ध्यान दिलाने लायक है. पाकिस्तान द्वारा नियंत्रण रेखा का निरंतर उल्लंघन और सरहद पर तैनात भारतीय सैनिकों का निर्मम वध इस बात का प्रमाण है कि जहां तक पाकिस्तान का सवाल है, वहां फौजी तानाशाही हो या दिखाने को चुनी हुई नागरिक सरकार, इस परोक्ष युद्ध में कोई विराम नहीं होता. कभी पाकिस्तान खुद को दहशतगर्दी का शिकार बता हमदर्दी की मांग करता है, कुछ देर और मोहलत चाहता है, तो कभी भारत को हमलावर करार देता है या फिर घुसपैठ की वारदातों से ध्यान बंटाने के लिए फिलहाल इतिहास की इस कड़वी विरासत को ठंडे बस्ते में डाल उभयपक्षी व्यापार बढ़ाने को प्राथमिकता देने की लफ्फाजी में जुट जाता है.

यह बात जोर देकर रेखांकित करने की है कि मजहबी पाकिस्तान की राष्ट्रीय पहचान धर्मनिरपेक्ष भारत के साथ अनिवार्य बैरभाव के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी है. यदि सरहद पार यह शत्रु मित्र बन जाता है तब फिर विभाजन का क्या तुक बचा रहता है? साझे की विरासत की बात करना आज बेकार और मूर्खतापूर्ण है. जनरल जिया के शासनकाल से पाकिस्तान का जो कट्टरपंथी इस्लामीकरण हुआ है, उसके बाद वह हमारा सहोदर कम, वहाबी सऊदी अरबों का सगा ज्यादा नजर आता रहा है. अमेरिकनों ने दक्षिण एशिया और पश्चिम एशिया में अपने सामरिक स्वाथरे की हिफाजत के लिए पाकिस्तान का जैसा उपयोग दशकों से किया है- खासकर अफगानिस्तान संकट के विस्फोटक बनने के बाद, उसने भी पाकिस्तानी सेना और गुप्तचर संगठनों में ऐसे न्यस्त स्वाथरे को पनपाया है जो सद्भाव और सहकार नहीं, टकराव और सैनिक मुठभेड़ ही चाहते हैं. 

इस बार भारत सरकार ने समय रहते पाकिस्तानी राजदूत को यह चेतावनी दे दी थी कि वह या तो अलगाववादियों से संवाद कर सकते हैं या भारत सरकार से. इस चेतावनी को अनसुना कर उन्होंने राजनयिक परामर्श को पटरी से उतारा है. पर शायद इसके लिए एक व्यक्ति को जिम्मेदार ठहराना गलत है. बिना पाकिस्तानी सरकार के दिशा-निर्देश के ऐसा दुस्साहस वह नहीं कर सकते थे. हम एक और बात जोड़ना चाहते हैं- इतनी नजाकत बरतने की जरूरत नहीं. कड़े शब्दों में पाकिस्तानी दूतावास को यह चेतावनी दिए जाने का वक्त आ चुका है कि अलगाववादियों को प्रोत्साहन देने की हरकतों को शत्रुतापूर्ण कार्यवाही समझा जाएगा. भारत किसी भी राजनयिक का अपने आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं कर सकता. न ही हमें यह तर्क पचता है कि जनतांत्रिक भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किसी भी अलगाववादी को भारत की एकता-अखंडता को जोखिम में डालने की आजादी दी जा सकती है.

कश्मीर की घाटी में पाकिस्तानी सहायता और समर्थन से सक्रिय अलगाववादी तत्व यह भूल जाते हैं कि कश्मीर घाटी इस राज्य का एक हिस्सा मात्र है. जम्मू और लद्दाख भी इस प्रदेश का हिस्सा हैं. चुनाव में यदि मौकापरस्त एवं खुदगर्ज नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी तथा कांग्रेस का सफाया हो जाता है तब फिर पूरा परिप्रेक्ष्य ही नाटकीय तरीके से बदल जाएगा. इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता कि कश्मीर का नासूर लाइलाज नहीं- यह भ्रम पालने का दुखद नतीजा हमें तेलंगाना में दिखने लगा है. आज का भारत और संसार 1947-48 वाले देश और दुनिया नहीं. तब तय किए विशेष बंदोबस्त आज की पीढ़ी के लिए प्रेतबाधा नहीं बने रह सकते.

(लेखक अंतरराष्ट्रीय राजनय के जानकार हैं)

पुष्पेश पंत
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment