यातना नहीं सुधारगृह हो जेल

Last Updated 02 Aug 2014 12:42:51 AM IST

कानून व्यवस्था बनाये रखने एवं अपराध नियंत्रण के लिए जेलों की अनिवार्यता को हर शासन व्यवस्था द्वारा स्वीकार किया गया है.


यातना नहीं सुधारगृह हो जेल

साथ ही संवैधानिक एवं सामाजिक दोनों दृष्टिकोणों से जेलों को अपराधियों के चारित्रिक सुधार के उपयुक्त बनाने की वकालत भी हमेशा से की जाती रही है. इस बात पर बल दिया गया है कि दंड का उद्देश्य तभी पूरा होगा जब हमारी जेलें सुधार गृह के तौर पर सफलता से काम कर पाएंगी. लेकिन जेलों के अंदर से आये दिन जिस तरह की खबरें बाहर आती रहती हैं, उससे यह तो स्पष्ट होता ही है कि सलाखों के भीतर सब कुछ वैसा नहीं चल रहा है जैसा चलना चाहिए. हाल में कौशाम्बी जेल से खबर आई कि वहां जेल के अंदर से ही तमाम रसूखदार कैदी बाहर की दुनिया में सक्रिय हैं जबकि सामान्य कैदियों के साथ मानवीय  व्यवहार नहीं हो रहा है. अपवादों को छोड़ देश की तमाम जेलों की स्थिति कमोबेश ऐसी ही है. प्रश्न है कि आखिर जेलें अपने उद्देश्य में नाकाम क्यों हो रही हैं?

भारत के संदर्भ में जेलों की स्थिति पर नजर डालें तो सबसे बड़ा सवाल कैदियों के अनुपात में जेलों के उपलब्ध न होने पर खड़ा होता है. सवाल है कि या तो हम जनसंख्या और बदलते आपराधिक परिवेश के अनुकूल जेलें बनवाने में नाकाम साबित हो रहे हैं या अपराध को नियंत्रित करने में लगातार असफल होते जा रहे हैं? एक आंकड़े पर गौर करें तो देश की लगभग चौदह सौ छोटी-बड़ी जेलों में लगभग तीन लाख बीस हजार कैदियों के रखे जाने का इंतजाम है जबकि कुल कैदियों की संख्या तीन लाख साठ हजार से भी ज्यादा है. बढ़ते अपराधों को कारण मानें या धीमी न्याय प्रणाली का असर लेकिन सच यह है कि जेलों में ज्यादातर कैंदी अंडर ट्रायल हैं. सजायाफ्ता कैदियों की संख्या अंडर ट्रॉयल कैदियों की तुलना में काफी कम है.
सवाल है कि जेलों के भीतर बढ़ती इस भीड़ के कारण क्या हम जेल का वास्तविक उद्देश्य प्राप्त कर पायेंगे?

निश्चित तौर पर इस असंतुलन की स्थिति में जेलों के लिए सुधार गृह के अनुकूल वातावरण बना पाना संभव प्रतीत नहीं होता. अपराध नियंत्रण के नाम पर जेलों की प्रासंगिकता पर सबसे ज्यादा प्रश्नचिह्न तब लगता है जब आये दिन जेलों के अंदर बढ़ रहे आतंरिक अपराधों, आत्महत्यायों और तमाम तरह की साठ-गांठ की खबरें आती रहती हैं. देश के तमाम राज्यों की जेलों में बंद अपराधी प्रवृत्ति के रसूखदार लोगों के पास से मोबाइल आदि का बरामद होना निश्चित रूप से चिंता का विषय है और जेलों के व्यवस्थापन की पारदर्शिता पर प्रश्निचह्न लगाता है.

अपराध नियंत्रण के उद्देश्यों से बनाई गयी जेलों के अंदर ही अगर आतंरिक अपराध फलने-फूलने लगें तो अपराधियों के सुधार की संभावना कम होना स्वाभाविक है. हालांकि ऐसा कतई नहीं है कि ये सब इतनी आसानी से संभव है. निश्चित तौर पर ऐसे मामलों में जेल के अधिकारी एवं कर्मचारियों की संलिप्तता लगातार सामने आती रही है जिसके परिणामस्वरूप तमाम पेशेवर अपराधी जेलों के अंदर से अपनी आपराधिक गतिविधियां संचालित कर जेलों के उद्देश्यों और दंड नीतियों को मुंह चिढ़ा रहे हैं जो जेल व्यवस्था के ऊपर बड़ा प्रश्नचिह्न है. जेलों के अंदर की समस्याएं यहीं तक सीमित नहीं हैं.

इनके अलावा तमाम ऐसी बुनियादी समस्याएं हैं जो कहीं न कहीं जेलों के वास्तविक उद्देश्यों के पूरा होने में अवरोधक की तरह हैं. बढ़ते कैदियों की भीड़ तले दबते जेल कैदियों की मूलभूत जरूरतों को भी पूरा कर पाने में लगातार असफल साबित हो रहे हैं. जेल में कैदियों के स्वास्थ्य, पोषण, सुधारपरक शिक्षा, रोजगारपरक प्रशिक्षण आदि मूलभूत अधिकारों की  की जाय तो भी कहीं न कहीं इन सारी सुविधाओं पर कैदियों और जेलों के संख्यानुपात का असंतुलन भारी पड़ता नजर आता है. जेलों के अंदर कैदियों की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति के प्रति जेल पर्यवेक्षकों या अधिकारियों के ढुलमुल रवैये के कारण आये दिन कैदियों के रोगग्रस्त होने, आपसी झड़प करने व आत्महत्या आदि करने की घटनाएं सामने आती रहती हैं.

जेलों के अंदर की बड़ी विडम्बना यह भी है कि एक तरफ जहां रसूखदार कैदियों के लिए तमाम घरेलू संसाधनों से संपन्न इंतजामात किये जाते हैं, वहीं आम कैदियों की मूलभूत सुविधाओं में कटौती की जाती है, जिससे तमाम कैदियों में अवसाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, परिणामत: उनके मन में जेलों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण के स्थान पर यातना गृह का भाव आ जाता है. जेलों में बुनियादी सुविधाओं के लिए तरसते आम कैदियों की हालात बहुत बेहतर नहीं है. शायद यही कारण है कि जेलें अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो पा रही हैं.

विश्व के प्रमुख देशों की जेल पद्धतियों एवं जेल के हालात पर नजर डालें तो तमाम देश हमारे ही इर्दगिर्द प्रतीत होते हैं. अमेरिका में भी जेलों की संख्या के अनुपात में कैदियों की संख्या में लगभग पांच प्रतिशत का असंतुलन दिखता है. हालांकि भारत के अनुपात में वहां अंडर ट्रायल कैदियों की संख्या कम है और सजायाफ्ता की ज्यादा जो वहां की तीव्र न्याय निस्तारण प्रणाली की ओर इंगित करता है. इस आधार पर देखें तो धीमी न्याय प्रणाली भारतीय जेलों की बदहाली का प्रमुख कारण नजर आती है क्योंकि भारत में अंडर ट्रायल कैदी सजायाफ्ता की तुलना में दोगुनी तादाद में हैं. जेलों की व्यवस्था के मामले में हम पाकिस्तान से बहुत बेहतर हैं लेकिन दोनों देशों की आंतरिक परिस्थितियां इतनी भिन्न हैं कि इस तुलना का तार्किक महत्व ही नहीं है.

इसमे दो राय नहीं कि हमें समय रहते मूल उद्देश्यों से भटकती अपनी जेलों के प्रति गंभीर होने की जरूरत है और उन तमाम बिंदुओं पर सजग होने की जरूरत है ताकि जेलों के अंदर स्वस्थ माहौल बनाया जा सके और अपराधी समाज की मुख्यधारा में जीने लायक स्थिति में बाहर निकले. जेलों का उद्देश्य लोगों को अपराध के खिलाफ सचेत करते हुए जीवन के सकारात्मक कार्यक्षेत्रों के प्रति जागरूक करना होना चाहिए. जेल प्रशासन को समय-समय पर कैदियों की मूलभूत जरूरतों के अनुरूप सुविधाएं देने हेतु कदम उठाने की जरूरत है साथ ही न्यायिक मामलों के निस्तारण में तीव्रता की भी जरूरत है, ताकि जेलों में भीड़ न बढ़े. न भूलें कि सही मार्गदशर्न पाकर तमाम अपराधी जेलों से निकलने के बाद ख्याति प्राप्त कर चुके हैं.

शिवानंद द्विवेदी
लेखक


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