उम्मीद पर कायम अर्थव्यवस्था

Last Updated 01 Aug 2014 01:08:12 AM IST

यूं सरकार बदलने से मोटे तौर पर कुछ खास बदलता नहीं दिखता है, पर एक बात जो बदली है वह यह कि देश, बाजार को लेकर उम्मीदें बदली हैं.


उम्मीद पर कायम अर्थव्यवस्था

 उम्मीदें बहुत जरूरी होती हैं और भारत जैसे देश में तो उम्मीदों की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है, जहां की 52 प्रतिशत आबादी 25 साल की आयु से नीचे की है. मानसून के कमजोर पड़ने की आशंकाएं कुछ कमजोर पड़ती दिखाई दे रही हैं. यानी मानसून उस तरह से फ्लॉप नहीं होगा, जैसी कि आशंकाएं हाल तक व्यक्त की जा रही थीं. देश की बड़ी टेलीकॉम कंपनी एयरटेल ने अपने शानदार आंकड़े पेश किए. हाउसिंग परियोजनाएं चलाने वाली कंपनियां बता रही हैं कि मांग के स्तर में धीमे-धीमे उठान हो रहा है.

मुंबई शेयर बाजार का संवेदनशील सूचकांक कच्चे तेल के भावों में उठापटक की आशंकाओं के बावजूद वापस 20 हजार या 21 हजार के बिंदु पर जाने की बेताबी नहीं दिखा रहा है. यह 26 हजार के आसपास डटा हुआ है. बाजार उम्मीद पर चलता है और आशंकाओं पर भी. आशंकाओं का अतिरेक बाजार को डुबोता है और उम्मीदों का अतिरेक बाजार को असाधारण ऊंचाइयों पर ले जाता है.

हाल में अच्छी खबर यह आई है कि 2013 में खत्म हुए आठ सालों में रोजगार की हालत ठीक-ठाक रही है. जनसंख्या बढ़ने की रफ्तार दो प्रतिशत सालाना है, तो रोजगार बढ़ोत्तरी की रफ्तार चार प्रतिशत सालाना है. बड़े राज्यों में उत्तर प्रदेश ने पिछले आठ सालों में सबसे ज्यादा रोजगार पैदा किया. इस देश में करीब 13 करोड़ लोग रोजगाररत है. यह आंकड़ा यह बताता है कि तब भी परम विकट स्थिति नहीं थी, जब ऐसा कहा जा रहा था कि अर्थव्यवस्था डूब गई.

दरअसल, इस मुल्क के लिए अब नंबर एक आर्थिक प्राथमिकता अगर कुछ हो सकती है, तो वह है रोजगार के मौकों को पैदा करना. रोजगार बढ़ोत्तरी से तमाम दूसरी आर्थिक समस्याओं का निपटारा एक हद तक हो जाता है. कम पढ़े-लिखों को रोजगार भारत में उन उद्योगों में मिलने की उम्मीद है, जहां मैन्युफैक्चरिंग यानी कुछ बनाने का काम होता है. सेवा क्षेत्र भी रोजगार देता है पर उनको, जिनके पास शिक्षा-दीक्षा का न्यूनतम स्तर होता है. मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के कई रोजगार थोड़े से प्रशिक्षण के बाद देना संभव हो जाता है. फिलहाल भारत को उनकी ज्यादा जरूरत है. नए मौके बनाने, तलाशने की जरूरत है. और आंकड़े बताते हैं कि वे उद्योग खासे आशान्वित हो रहे हैं, जिनसे खासा रोजगार पैदा किया जा सकता है.

कैपिटल गुड्स यानी भारी-भरकम मशीनरी बनाने वाले उद्योगों में खासा रोजगार मिलता है, इनकी स्थिति में पिछले कुछ समय में सुधार देखने को मिला है. कैपिटल गुड्स उद्योग पर आधारित कंपनियों का मुंबई शेयर बाजार सूचकांक पिछले तीन महीनों में करीब 22 प्रतिशत चढ़ा है और छह महीनों में इसमें 57 फीसद की बढ़ोत्तरी हुई है. यह सूचकांक दिखाता है कि भारी-भरकम मशीनरी उद्योग में उम्मीद की एक नई किरण पैदा हुई है. इस किरण से रोजगार अवसर पैदा होने की उम्मीद है.

फ्रिज, टीवी, वाशिंग मशीन बनाने वाली कंपनियां भी खासा रोजगार देती हैं. पर मसला यह है कि रोजगार तो तब मिलेगा, जब बाजार में उत्पाद की मांग होगी. बाजार में अब इन कंपनियों की शिकायतें कम हो गई हैं. फ्रिज, टीवी, वाशिंग मशीनों की मांग ठीक-ठाक आ रही है. इस मांग का एक प्रभाव इन कंपनियों के शेयरों पर भी दिख रहा है. कंज्यूमर ड्यूरेबल्स यानी फ्रिज, टीवी, वाशिंग मशीन बनाने वाली कंपनियों के शेयर भावों पर आधारित मुंबई शेयर बाजार के सूचकांक ने पिछले तीन महीने में 32.60 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दिखाई है और छह महीनों में तो यह बढ़ोत्तरी 56.30 प्रतिशत रही है. इसका मतलब साफ है कि इन कंपनियों को भविष्य की मांग को लेकर चिंता दिखाई नहीं पड़ती. नई परियोजनाएं शुरू करने में दिक्कत दिखाई नहीं देती. इसका मतलब यह भी है कि भविष्य में इन कंपनियों में, इनकी परियोजनाओं में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, सिकुड़ेंगे नहीं.

रोजगार देने वाला एक और उद्योग है आटो उद्योग. आटो उद्योग पर आधारित कंपनियों का मुंबई शेयर बाजार का सूचकांक पिछले तीन महीने में 16 प्रतिशत उछला है, और छह महीनों में तो इसमें 34.20 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई. कुछ महीनों पहले तक तमाम आटो कंपनियां शिकायत कर रही थीं कि मांग में कमी आ रही है. मांग में कमी के चलते तमाम फैक्टरी-प्लांट को पूरी क्षमता पर नहीं चलाया जा रहा था. पिछले दरवाजे से छंटनी की बात भी सामने आ रही थी. अब स्थिति में बदलाव है. नई कारें, नई बाइकें लगातार लांच हो रही हैं. बाजार में नई मांग पैदा होने की स्थिति दिखाई पड़ रही है. अर्थव्यवस्था में रोजगार की हालत बेहतर हो, तो कार-बाइक की मांग में तो बढ़ोत्तरी होनी है.

यही हाल कंज्यूमर ड्यूरेबल उद्योग का है. अर्थव्यवस्था में रोजगार की हालत बेहतर होती है, तो फ्रिज-टीवी की मांग में तेज बढ़ोत्तरी होती है. टीवी फ्रिज के महंगे और बेहतर मॉडल बेच पाना आसान हो जाता है. आटो उद्योग की बेहतरी दरअसल अर्थव्यवस्था की बेहतरी का पुख्ता सबूत मानी जाती  है. और ऐसा माना जाता है कि अर्थव्यवस्था में उम्मीद की नई किरण पैदा हो रही है.

अभी खबर आई है कि अमेरिकन अर्थव्यवस्था की विकास दर करीब चार प्रतिशत रहने वाली है. कुछ समय पहले अमेरिकी अर्थव्यवस्था की विकास दर दो प्रतिशत के आसपास थी. अब वहां तेजी के आसार हैं. इसका सीधा असर भारत के साफ्टवेयर कारोबार पर पड़ना तय है. पिछले तीन महीनों में साफ्टवेयर कंपनियों पर आधारित मुंबई शेयर बाजार के सूचकांक ने 12 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दिखाई है. तमाम बड़ी साफ्टवेयर कंपनियां नई परियोजनाओं की, नई भर्तियों की बातें कर रही हैं.

यह सुखद है. अर्थव्यवस्था की बेहतरी का रास्ता नए और बेहतर रोजगारों से होकर जाता है. रोजगार की बढ़ोत्तरी से लोगों को काम मिलता है, तमाम उद्योगों को नई मांग मिलती है. जेटली के बजट का पूरा प्रभाव आते-आते करीब साल भर का समय लगेगा. तब शायद उद्योग जगत की स्थिति और बेहतर दिखाई पड़े.

पर सरकार के लिए चिंता का विषय रिटेल महंगाई बनी हुई है. टमाटर, आलू, प्याज के भावों पर नियंत्रण अब भी दिखाई नहीं पड़ रहा है. यह सरकार की सिर्फ आर्थिक चिंता का नहीं, राजनीतिक चिंता का विषय भी है. कांग्रेस के नेताओं के महंगाई पर जो बेहूदे बयान आया करते थे, उनसे प्रतियोगिता अब भाजपा नेता भी करने लगे हैं. पिछले दिनों भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने बयान दिया कि लाल टमाटर वे लोग खाते हैं जो अमीर होते हैं, लाल गालों वाले होते हैं. कांग्रेस के नेताओं के महंगाई पर संवेदनहीन बयानों का नतीजा कांग्रेस देख चुकी है. वे बयान देने वाले नेता आज कहीं भी दिखाई नहीं पड़ते. भाजपा नेताओं को यह समझना चाहिए.

आलोक पुराणिक
लेखक


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