कब तक जारी रहेगा लैंगिक भेदभाव!
हाल में सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान सिनेमा उद्योग के मेकअप विभाग में मौजूद जेंडर संबंधी भेदभावपूर्ण व्यवस्था को समाप्त करने का निर्देश दिया.
कब तक जारी रहेगा लैंगिक भेदभाव! |
मालूम हो कि वहां लगभग साठ साल से एक अघोषित नियम चला आ रहा है कि महिलाएं मेकअप आर्टिस्ट नहीं बन सकतीं. वे सिर्फ हेयरड्रेसर बन सकती हैं. न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा तथा न्यायमूर्ति वी गोपाल गौड़ा की द्विसदस्यीय पीठ ने याचिकाकर्ता मेकअप आर्टिस्ट चारू खुराना तथा अन्य की याचिका की सुनवाई के संबंध में यह निर्देश दिया.
बेंच ने कहा कि किसी संस्थान को इस तरह के व्यवहार की इजाजत कैसे दी जा सकती है? कैसे कोई संस्थान किसी वर्ग या जेंडर के साथ ऐसा भेदभाव कर सकता है जो संवैधानिक नियम के खिलाफ है. कोर्ट ने एडिशनल सॉलिसिटर जनरल एल एन राव को कहा कि वे इस मुद्दे को सरकार को बताएं तथा इस व्यवस्था को जल्द से जल्द समाप्त करने के लिए सरकार तथा सम्बन्धित विभाग को कहें. साथ ही राज्यों से भी डाटा एकत्र कर विस्तृत रिपोर्ट पेश करने को कहा गया है. मामले की अगली सुनवाई अगस्त में होनी है.
याचिकाकर्ता ने अपनी अपील में बताया कि सिनेमा उद्योग की इकाई सिने कास्टयूम मेकअप आर्टिस्ट एंड हेयर ड्रेसर एसोसिएशन ने उन्हें सिर्फ इस आधार पर सदस्यता नहीं दी क्योंकि वह एक महिला आर्टिस्ट हैं, जबकि उन्होंने अमेरिका के एक नामी स्कूल से मेकअप आर्टिस्ट की पढ़ाई पूरी की है. एसोसिएशन की दलील है कि अगर महिलाओं को इस काम में शामिल किया गया तो पुरुष आर्टिस्ट इस रोजगार से वंचित हो जाएंगे. निश्चित ही महिला आर्टिस्टों के वंचित होने से उन्हें समस्या नहीं है.
गौर करने लायक बात है कि यह व्यवस्था इतने समय से चल रही है और आम जन को इसकी जानकारी तब मिली जब कोर्ट ने संज्ञान लेते हुए सख्त निर्देश देकर इसे समाप्त करने को कहा. क्या उस आर्टिस्ट एसोसिएशन से जुड़े लोगों को यह नहीं पता था कि यह भेदभावपूर्ण नियम गैरकानूनी है. एसोसिएशन के भीतर से भी कोई आवाज क्यों नहीं उठी कि आज के समय में न्याय और बराबरी हर क्षेत्र का अहम मुद्दा है और इस आधार पर यह भेदभाव निहायत पिछड़ेपन एवं पुरुष प्रधान समाज के हावी होने का संकेतक है?
किसी भी सदस्य ने अपनी बैठकों में या लिखित शिकायत में यह मुद्दा क्यों नहीं उठाया यह विचार करने की जरूरत है. बहरहाल, समान अवसर की लड़ाई अभी और किन-किन मोचरें पर लड़ी जानी है, यह देखा जाना बाकी है. बहरहाल, ग्लैमर की दुनिया में श्रम शक्ति के बीच इस खुले भेदभाव के बहाने एक बार फिर स्त्री पुरुष के बीच औपचारिक नहीं बल्कि वास्तविक समानता के सवाल पर बात की जा सकती है.
कुछ समय पहले प्रकाशित राष्ट्रीय नमूना सव्रेक्षण विभाग, जो भारत सरकार की एजेंसी है, की रिपोर्ट ने इसके बारे में खुलासा किया था. मालूम हो कि नमूना सव्रेक्षण विभाग की तरफ से समय-समय पर देश के विभिन्न हिस्सों में सैम्पल सव्रेक्षण किए जाते हैं जिसके आधार पर राष्ट्रीय स्तर पर स्थिति का आकलन किया जाता है. अपने सैम्पल सव्रेक्षण की 66वीं रिपोर्ट में उसने खुलासा किया कि महिलाएं रोजगार तथा वेतनमान में भेदभाव की शिकार हैं. श्रम बाजार में महिलाओं को शहरी और ग्रामीण- दोनों क्षेत्र में कम दर पर पारिश्रामिक मिलता है.
शहरों में पुरुषों की प्रतिदिन की औसत आय 365 रुपए तथा महिलाओं की 232 है. गांवों में पुरुषों की आय 249 रुपए तथा महिलाओं की 156 है. सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की तरफ से जारी बयान में कहा गया है कि यह नमूना सव्रेक्षण कुछ समय पहले देशभर के 7402 गांवों तथा 5252 शहरों में किया गया. अनियमित कामगारों की मजदूरी में भी अंतर है. पुरुषों को 102 रुपये और महिलाओं को 69 रुपये मिलते हैं. महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत मिलने वाले रोजगारों में भी अंतर है.
श्रम बाजार में स्त्री पुरुष के बीच का फर्क असंगठित क्षेत्र में अधिक देखने को मिलता है. आज भी ज्यादातर मामलों में कुशल श्रमिक के रूप में महिलाएं कुल श्रमशक्ति में बराबर का हिस्सेदार नहीं बन पायी हैं. श्रम मंत्रालय की एक रिपोर्ट ने कुछ समय पहले इस पर रोशनी डाली थी. रिपोर्ट के मुताबिक 2001 की जनगणना के अनुसार महिला श्रमिकों की संख्या 12 करोड़ 72 लाख है जो उनकी कुल संख्या 49 करोड़ 60 लाख का चौथा ( 25.60 प्रतिशत) हिस्सा ही हुआ.
इनमें भी ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्र में हैं और उनका प्रतिशत ऊपर दी हुई कुल महिला श्रमिकों की संख्या का तीन हिस्से से भी ज्यादा (87 प्रतिशत) कृषि सम्बन्धी रोजगार में है. रिपोर्ट के अनुसार शहरी क्षेत्र के रोजगार में तीन हिस्से भी ज्यादा (80 प्रतिशत) महिला श्रमिक घरेलू उद्योग, लघु व्यवसाय सेवा तथा भवन निर्माण में लगी हैं. कहा गया है कि सरकार ने महिला श्रमिकों के काम की गुणवत्ता में सुधार लाने तथा उनकी स्थिति बेहतर बनाने के लिए कई कानून बनाये हैं लेकिन व्यवहार में उनमें अपेक्षित सुधार नहीं हो पाया है.
सवाल उठ सकता है कि श्रमशक्ति के बीच व्याप्त इस असमानता को कैसे दूर किया जाए! बराबर काम के लिए बराबर वेतन औरत का हक है और इसे लागू न करने वाला संस्थान या नियोक्ता इसके लिए अपराधी माना जाना चाहिए. यद्यपि श्रम कानून के अन्तर्गत बराबरी का नियम होता है लेकिन हर जगह जेंडर भेद के लिए रास्ते निकाल लिए जाते हैं. दरअसल ऐसे हालात तैयार करना भी सरकार और नियोक्ता की जिम्मेवारी बनती है जिसमें महिलाएं बराबर का काम कर सकें और उन्हें बराबर की सारी सुविधाएं भी मिलें. ज्ञात हो कि हमारे संविधान का अनुच्छेद 15 यह व्यवस्था देता है कि भारत का हर एक नागरिक लैंगिक तथा जातीय भेदभाव से मुक्त जीवन का अधिकारी है. अर्थात ऐसे भेदभाव करना कानूनी अपराध माना जाएगा. लेकिन यहां की महिलाएं नागरिक होते हुए भी आसानी से और धड़ल्ले से आर्थिक शोषण का शिकार होती आयी हैं.
यह समझने की आवश्यकता है कि आर्थिक क्षेत्र में तथा सार्वजनिक दायरे में बराबर की भागीदारी तथा हैसियत घर के अन्दर की गैरबराबरी को भी खत्म कर सकती है. महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा तथा अपराध सिर्फ समाज सुधार और सख्त कानून से काबू में नहीं आ सकता है. ऐसे वातावरण में जहां हर स्तर पर तथा हर क्षेत्र में औरत बराबर से उपस्थित हो, वहां धीरे-धीरे मानसिकता में बदलाव आयेगा.
यद्यपि पिछले डेढ़-दो दशक में स्थितियां तेजी से बदली हैं और महिला आबादी की सार्वजनिक दायरे में उपस्थिति बढ़ी है फिर भी मौजूद अंतर देखते हुए इसका बने रहना पूरे समाज के लिए अच्छा नहीं माना जा सकता.
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