डब्ल्यूटीओ पर भारत का रुख कड़ा

Last Updated 31 Jul 2014 12:38:22 AM IST

जिनेवा में भारत ने विश्व व्यापार संगठन को कड़ा संदेश देते हुए साफ किया कि वह अपने खाद्य सुरक्षा मुद्दे के स्थायी समाधान के बिना व्यापार सुगमता करार (टीएफए) का अनुमोदन नहीं करेगा.


डब्ल्यूटीओ पर भारत का रुख कड़ा

इसके अलावा भारत ने गरीब देशों के लाखों लोगों के जीवन स्तर को प्रभावित करने वाले मुद्दों के समाधान पर भी जोर दिया है.

भारत ने जिनेवा में संपन्न दो दिन की आम परिषद की बैठक में कहा है कि लाखों लोगों की खाद्य सुरक्षा को केवल एक नियम जो आपको स्वीकार्य नहीं है, के लिए खतरे में डालना ठीक नहीं है. यदि भारत अपने रु ख पर कायम रहता है तो डब्ल्यूटीओ के इतिहास में ऐसा पहली बार होगा जब किसी समझौते के क्रियान्वयन को रोकना पड़ेगा. दरअसल भारत के लगातार विरोध के कारण व्यापार सुगमता करार खतरे में पड़ गया है. इस पर हस्ताक्षर करने की अंतिम तिथि 31 जुलाई है. हालांकि विकसित देश व्यापार सुगमता करार शीघ्र लागू करने के पक्ष में हैं ताकि उन्हें विकासशील देशों के बाजार तक पहुंच बढ़ाने के अधिक अवसर मिलें.

बहरहाल, भारत के इस रुख से अमेरिका सहित अन्य विकसित देशों की बैचनी साफ दिख रही है. भारत का सीधा नाम लिये बिना अमेरिका ने व्यापार सुविधा समझौते के मोर्चे पर प्रगति में आ रही कमी को लेकर अपनी नाखुशी जाहिर की है. स्पष्ट है, भारत के इस कदम के बाद अब विकसित देशों के लिए टीएफए के क्रियान्यन के एजेंडा पर आगे बढ़ना मुश्किल होगा. हालांकि, विश्व व्यापार संगठन में भारत के रुख का क्यूबा, वेनेजुएला और बोलिविया ने समर्थन किया. बता दें कि इस बैठक में पिछले साल दिसम्बर में बाली में हुए व्यापार सुगमता करार (टीएफए) समझौते को लेकर बनी सहमति को अंतिम रूप दिया जाना था. बाली में हुए डब्ल्यूटीओ की मंत्रिस्तरीय बैठक में तत्कालीन वाणिज्य मंत्री आंनद शर्मा ने भी यही बात कही थी, लेकिन यह सब कुछ अंतिम समय में हुआ. परिणामत: उन्हें जो हासिल हुआ, वह यही कि अगले चार सालों तक खाद्यान्न सब्सिडी जारी रखी जा सकेगी.

डब्ल्यूटीओ के नियमों के अनुसार सब्सिडी को व्यापार के लिए विकृत करने वाला माना जाता है इसीलिए सब्सिडी को कुल उत्पादन के दस फीसद तक सीमित करना जरूरी है. हालांकि इस सब्सिडी की गणना दो दशक पुराने मूल्य पर की जाती है. भारत खाद्यान्न सब्सिडी की गणना के लिए आधार वर्ष 1986 में बदलाव की मांग कर रहा है. अमेरिका कृषि सब्सिडी के रूप में 120 अरब डॉलर देता है जबकि भारत सिर्फ  12 अरब डॉलर ही दे पा रहा है. सभी जानते हैं कि हाल में आए खाद्य सुरक्षा विधेयक के चलते, जल्दी ही भारत दस फीसद की सीमा को तोड़ देगा. ऐसे हम डब्ल्यूटीओ में इस समस्या का स्थायी समाधान क्यों नहीं खोजते हैं.

सच है कि ताकतवर देशों का शुरू से दबाव रहा है कि भारत समेत दुनिया का कोई भी देश अपनी कुल खेतिहर उपज के दस फीसद से ज्यादा रकम अपने किसानों को सब्सिडी के रूप में न दे. उनका माना है कि ऐसा करने पर बाजार में अनावश्यक विकृति पैदा होती है. यह शर्त बेहद टेढ़ी है, क्योंकि सब्सिडी के विभिन्न रूपों पर नजर रखना दूर, अलग-अलग समाजों में कुल खेतिहर उपज की कीमत तय करना समुद्र की लहरें गिनने जैसा काम है. इस संबंध में अमेरिका और यूरोप के मानक अगर भारत और चीन जैसे देशों में ज्यों के त्यों लागू कर दिए गए तो न सिर्फ इन देशों के किसान दिवालिया हो जाएंगे, बल्कि अनाज खरीद कर खाने वाली यहां की बहुत बड़ी आबादी भी भूखों मरने लगेगी.

ताकतवर देशों को सबसे ज्यादा नाराजगी भारत में कुछ समय पहले लागू भोजन के अधिकार को लेकर है. दरअसल, खाद्य सुरक्षा कानून बनने के बाद इसके दस फीसद की सीमा से ऊपर निकलने का अनुमान है और इस तरह भारतीय खाद्य सुरक्षा कानून विकसित देशों की नजरों में खटक रहा है. उनके मुताबिक न्यूनतम समर्थन मूल्य के जरिए भारत सरकार पहले ही दस फीसद से कम सब्सिडी वाली शर्त का उल्लंघन करती आ रही है, अब किसानों से महंगी दर पर खरीदे गए इस अनाज को बहुत ही सस्ती कीमत पर जरूरतमंद आबादी को मुहैया कराकर वह विश्व बाजार में दोहरी विरूपता पैदा कर रही है. विश्व व्यापार संगठन के तहत कृषि समझौते में निहित इस स्पष्ट भेदभाव के पीछे परिभाषाओं का बड़ा खेल है, जो विकसित देश इस समझौते के तहत थोपने में कामयाब रहे हैं.

यह किसी से छुपा नहीं है कि विकसित देश अपने किसानों को भारी सब्सिडी दे उन्हें अपने कृषि उत्पाद औने-पौने दामों पर विश्व बाजार में भेजने में समर्थ बनाते हैं इसीलिए एक समूह के रूप में विकासशील देश व्यापार वार्ताओं में शुरू से विकसित देशों की ऊंची कृषि सब्सिडी का मुद्दा उठाते रहे हैं लेकिन विकसित देश अपनी कृषि सब्सिडी बहुत ऊंचे स्तर पर बनाए रखते हुए विकासशील देशों के लिए सब्सिडी पर कृषि के सकल घरेलू उत्पाद के दस फीसद की अधिकतम सीमा थोपने में कामयाब रहे हैं.

महत्वपूर्ण यह बात है कि विकासशील और गरीब देशों में दी जाने वाली कृषि सब्सिडी का विरोध सबसे अधिक अमेरिका, यूरोपीय संघ और कनाडा कर रहे हैं जो खुद अरबों डॉलर की घरेलू और निर्यात सब्सिडी देते हैं. अमेरिका आज भी 6.5 करोड़ लोगों को सालाना 385 किलोग्राम प्रति व्यक्ति खाद्य सब्सिडी प्रदान करता है. यह सब्सिडी खाद्य कूपन और बाल पोषण कार्यक्रम आदि के माध्यम से मिलती है. इसके विपरीत भारत में जहां दो तिहाई से ज्यादा लोग 30 रुपए प्रतिदिन से कम खर्च करते हैं, वहां सरकार यदि पीडीएस के तहत 47.5 करोड़ भूखे लोगों को सस्ता अनाज देती है तो अमेरिका और उनके मित्र देशों को दिक्कत होती है.

दरअसल व्यापार को नुकसान पंहुचने वाली सब्सिडी के बारे में जब मापदंड तय हुए तब 1994 में दिए जाने वाले आर्थिक सहयोग (एग्रीगेट मेजर ऑफ सपोर्ट) को आधार माना गया. तब अमेरिका खूब सब्सिडी दे रहा था और भारत लगभग नहीं दे रहा था. भारत में तो यह खर्चा बाद में बढ़ना शुरू हुआ और वह डब्ल्यूटीओ में फंस गया. इसके अलावा समस्या यह भी है कि सब्सिडी पर होने वाले व्यय का मूल्यांकन 1986-88 की कीमतों के आधार पर किया जाता है, जबकि उत्पादन की वास्तविक लागत उस आधार मूल्य से कहीं ज्यादा बढ़ी है.

यह समझना जरूरी है कि गरीबों और जरूरतमंदों की खाद्य और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जी-33 प्रस्ताव कितना महत्वपूर्ण है. हमें पता होना चाहिए कि एएमएस (एग्रीगेट मेजर ऑफ सपोर्ट) की गणना 1986-88 के दामों के आधार पर की गई. तबसे और खासतौर पर 2007 के बाद से वैिक खाद्य संकट गहरा गया है. 1986-88 के संदíभत मूल्यों की प्रासंगिकता खत्म हो चुकी है, क्योंकि उस समय खाद्यान्न के दाम काफी कम थे. पर अमीर देश चाहते हैं कि विकाशसील देश अपने किसानों और नागरिकों को कोई रियायत न दें ताकि उनके उत्पादन को विकासशील देशों में व्यापार का माकूल वातावरण मिलता रहे और बाजार पर उनका कब्जा और मजबूत हो. यही नहीं, अमेरिका व यूरोपीय देश व्यापार सब्सिडी की अधिकतम सीमा का उल्लंघन करते रहे हैं.

देखा जाए तो डब्ल्यूटीओ में गरीब और विकासशील देशों के लिए कुछ खास है ही नहीं. डब्ल्यूटीओ की शर्त न मानने पर प्रतिबंध आदि लगाने का प्रावधान है, लेकिन क्या कोई गरीब अफ्रीकी देश, विकसित देश जैसे अमेरिका की दादागिरी पर प्रतिबंध लगा सकता है? अमेरिका और यूरोप के देश डब्ल्यूटीओ के तमाम तोड़ ढूंढ अपने हित में इस्तेमाल करते हैं. विकसित देश एक तरफ कारोबार के लिए आसान शर्तों की बात कर आयात की शर्तें कम करते हैं तो दूसरी तरफ आयातित उत्पाद के लिए ऊंचे मानक रखते हैं और निर्यात सब्सिडी देकर गरीब और विकासशील देशों के लिए कारोबार का रास्ता बंद कर देते है या फिर थोड़ा बहुत खोलते हैं. स्पष्ट है, डब्लूटीओ वार्ताओं में विकसित देशों की दबंगई ही चलती है.

रवि शंकर
लेखक


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