बिजली संकट से निबटने की चुनौती

Last Updated 31 Jul 2014 12:26:28 AM IST

देश में बढ़ते ऊर्जा संकट की सबसे चर्चित अभिव्यक्ति उन लाखों लोगों के बढ़ते आक्रोश में हो रही है जो गर्मी और उमस के माहौल में बिजली से वंचित कर दिए जाते हैं.


बिजली संकट से निबटने की चुनौती

पर इसके अतिरिक्त ऊर्जा संकट के कई अन्य बेहद चिंताजनक आयाम सामने हैं.

हमारी ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत पेट्रोलियम-तेल है व इसका 77 प्रतिशत हिस्सा आयात पर निर्भर है. कुल आयातों के मूल्य में 37 प्रतिशत हिस्सा पेट्रोलियम-तेल का है जो तेल की बढ़ती अंतराष्ट्रीय कीमतों के साथ और बढ़ सकता है. इस तरह तेल का आयात देश के व्यापार घाटे की चिंता का मुख्य कारण बना हुआ है.

जहां एक ओर देश के अनेक ताप बिजलीघरों में कोयले की उपलब्धि समय पर न होना बड़ी समस्या है, वहीं दूसरी ओर कोयला राष्ट्रीयकरण कानून में संशोधन कर विभिन्न कंपनियों को कैपटिव कोल खदान देने की नीति बुरी तरह पिट चुकी है और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी है. दूसरी ओर कोयला क्षेत्र का सही विकास न होने के कारण कोयला आयात बढ़ रहा है.

ऊर्जा संकट की अन्य अभिव्यक्ति यह है कि देश के बहुत से गांववासी आज भी बिजली से पूरी तरह वंचित हैं. धुएं भरे माहौल में भोजन पकाने वाली महिलाओं के स्वास्थ्य पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ता है. दूसरी ओर कुछ स्थानों पर बिजली उत्पादन के संयंत्र इतने अधिक लग रहे हैं कि उनसे इन क्षेत्रों में गंभीर प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो रही है.

सरकारों पर बहुत दबाव है कि वह बिजली मुहैया कराने के साथ उसे सस्ता भी रखें. कृषि के लिए निशुल्क या बहुत सस्ती बिजली की भी मांग है. दूसरी ओर बिजली परियोजनाओं द्वारा हो रहे विस्थापन, प्रदूषण व अन्य पर्यावरणीय विनाश के विरुद्ध भी जन-आंदोलन हो रहे हैं.

इन अनेक विकट स्थितियों के बीच यह बहुत बड़ा सवाल है कि ऊर्जा स्थिति को पटरी पर कैसे लाया जाए. विभिन्न मांगों को एक साथ कैसे पूरा किया जाए जबकि इनमें से कुछ मांगे परस्पर अलग दिशा में जा रही लगती हैं.

यह सवाल ऊर्जा क्षेत्र तक सीमित नहीं है, अपितु अर्थव्यवस्था को सही राह पर लाने व पर्यावरण की रक्षा दोनों दृष्टिकोणों से बहुत महवपूर्ण है. सवाल यही नहीं है कि ऊर्जा आवश्यकताएं किस हद तक पूरी हो रही है अपितु यह भी कि किस तरह से पूरी हो रही हैं.

2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि 750 लाख ग्रामीण परिवारों व 60 लाख शहरी परिवारों तक बिजली नहीं पहुंची थी अथवा बिजली से वंचित परिवारों की कुल संख्या आठ करोड़ 10 लाख थी. 2001 में यह संख्या 7 करोड़ 50 लाख थी.

दूसरे शब्दों में वंचित परिवारों तक बिजली पंहुचाने में वर्ष 2001-11 के दौरान बहुत कम प्रगति हुई जबकि इस दौरान 95000 मेगावाट अतिरिक्त बिजली उत्पादन क्षमता जोड़ी गई. इन आकंड़ों से पता चलता है कि जो नई बिजली उत्पादन क्षमता जुड़ रही है, उसका कितना कम लाभ उन तक पंहुच रहा है जो बिजली से सबसे अधिक वंचित हैं.

भविष्य में उच्च प्राथमिकता इन 7.5 करोड़ वंचित परिवारों तक बिजली ले जाने को मिलनी चाहिए. जो परिवार व वर्ग सबसे जरूरतमंद हैं, उनकी ऊर्जा जरूरतों को सबसे अधिक महत्व मिलना चाहिए. ईंधन की स्थिति ऐसी होनी चाहिए कि भोजन पकाने वाले का स्वास्थ्य समस्याओं से बचाव हो.

कृषि में जो ऊर्जा बैल व अन्य पशुओं से सहज उपलब्ध थी वह भी रहनी चाहिए. रासायनिक खाद आधारित खेती के स्थान पर आग्रेनिक खेती जितनी बढ़ सकेगी, उतना ही ऊर्जा संरक्षण की स्थिति से बेहतर होगा.

ऊर्जा संरक्षण के लिए गांववासियों को प्रोत्साहित करना चाहिए व उनके व्यावहारिक ज्ञान से निकले सुझावों पर ध्यान देना चाहिए. चर्चित मंगल टरबाइन का यदि उचित प्रसार देश में किया जाए तो नदी-नालों से पानी लिफ्ट करने में प्रतिवर्ष लाखों लीटर डीजल की बचत हो सकती है.

एक ओर किसानों का खर्च कम होगा तो दूसरी ओर ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन भी कम होगा. जलवायु बदलाव के संकट को नियंत्रण में रखने के लिए यथासंभव ग्रीनहाउस  गैसों के उत्सर्जन में कमी लाना बड़ी चुनौती है.

इस संदर्भ में कोयला आधारित ताप बिजली घरों की सीमित भूमिका ही स्वीकार्य है. वैसे कोयले के भंडार भी सीमित हैं. अत: कुछ वर्षो तक कोयले का सीमित उपयोग बिजली उत्पादन के लिए करने के साथ-साथ हमें पर्यावरण की दृष्टि से बेहतर विकल्पों की दिशा में अधिक ध्यान लगाना चाहिए.

ताप बिजलीघरों का प्रसार वास्तविक जरूरतों व विकल्पों की संभावना को ध्यान में रखकर ही करना चाहिए. नई-नई परियोजनाएं स्वीकृत करते जाना उचित नहीं है. योजना आयोग ने 2032 तक ताप बिजलीघरों की कितनी क्षमता होनी चाहिए, इसके अनुमान प्रस्तुत किए थे.

पर पुणे स्थित प्रयास संस्था ने 2011 में यह पता लगाया कि पर्यावरण मंत्रालय से कितनी ताप बिजलीघरों को स्वीकृति मिल चुकी थी या मिलने वाली थी, तो पता चला कि जितनी जरूरत का अनुमान लगाया गया था, उससे तीन गुणा अधिक क्षमता के प्रोजेक्ट स्वीकृत किए जा रहे थे. इनमें से अनेक ताप बिजलीघर परियोजनाओं को पहले से सघन बिजली उत्पादन के क्षेत्रों व अधिक प्रदूषित क्षेत्रों में स्वीकृति दी जा रही थी.

इससे पता चलता है कि बिजली व ऊर्जा का नियोजन किस हद तक पटरी से उतर चुका है. नई परियोजनाओं को तेजी से आगे ले जाने की होड़ में यह तक नहीं पूछा जा रहा है कि देश की वास्तविक जरूरतें क्या हैं.

यही स्थिति कुछ पर्वतीय क्षेत्रों में पनबिजली परियोजनाओं की है. पर्यावरण विनाश व विस्थापन की परवाह किए बिना तेजी से नई परियोजनाएं हथियाने के प्रयास हावी हैं. न इन पर्वतीय क्षेत्रों का बिजली आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जा रहा है, न इन्हें प्राप्त करने के विकल्पों को.

ताप बिजली और पन बिजली दोनों की परियोजनाओं का चयन और क्रियान्वयन सावधानी से होना चाहिए. इसमें स्थानीय पर्यावरण व वहां के लोगों की भलाई के विभिन्न पक्षों को ध्यान में रखना चाहिए.

परमाणु बिजली संयंत्रों में तो यह सावधानियां और भी जरूरी हैं.
भविष्य में शात ऊर्जा क्षेत्रों की बड़ी संभावनाएं हैं क्योंकि इससे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वांछित कमी लाई जा सकती है.

विशेषकर विकेंद्रित ग्रामीण ऊर्जा विकास में विभिन्न शात ऊर्जा स्रोतों की बेहतर संभावनाएं हैं. शात ऊर्जा स्रोतों के विकास में पहले हुई गलतियों से बचना पड़ेगा व इनको आरंभ से ही पर्यावरण की रक्षा के साथ जन-हित से जोड़कर आगे बढ़ना होगा.

ऊर्जा क्षेत्र में जो साधन सीमित रूप से उपलब्ध हैं, जैसे प्राकृतिक गैस, उनका उपयोग राष्ट्रीय हित में बहुत सावधानी से होना चाहिए. इनका दोहन कतई निजी मुनाफे पर आधारित नहीं होना चाहिए.

भारत डोगरा
लेखक


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