सेहत और खेती का संकट जैव तकनीक

Last Updated 29 Jul 2014 12:25:36 AM IST

खेती के लिए जीएम यानी आनुवंशिक संशोधित तकनीक को शुरुआती दौर में इसलिए श्रेष्ठ माना गया क्योंकि इससे नई हरित क्रांति की उम्मीद जगी थी.


सेहत और खेती का संकट जैव तकनीक

लिहाजा जेनेटिक मोडीफाइड इंजीनियरिंग से तैयार बीजों के जरिये बम्पर पैदावार के साथ भुखमरी और कुपोषण से मुक्ति के उपाय तलाशे जाने लगे थे. लेकिन इस बीच मानव व पशु स्वास्थ्य, खेती और पर्यावरण से जुड़े कई तथ्यात्मक अध्ययनों के चलते जीएम बीजों से उत्पादित फसलों को खतरनाक बताया गया. भारत बीटी कपास के दुष्परिणाम अब तक भुगत रहा है.

इसलिए जब बीटी बैंगन का विवाद छिड़ा तो दुनिया के 17 वैज्ञानिकों ने पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह को पत्र लिख जीएम बीजों की आशंकाओं से अवगत कराया. पूर्व ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने भी जीएम फसलों की उपयोगिता पर शंका जताई. कृषि मंत्रालय से संबंधित संसदीय समिति इन बीजों को नकार चुकी है. यही नहीं सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में जब प्रकरण लाया गया तो उसने तकनीकी विशेषज्ञों की समिति के सुझाव पर देश में 10 साल के लिए खेतों में आनुवंशिक बीजों के परीक्षण पर रोक लगा दी.

लेकिन बाद में इसी समिति ने जीएम बीजों के जमीनी परीक्षण पर अनिश्चित काल तक रोक लगाने की सिफारिश करते हुए चार शत्रें सुझाईं. यह हैं- जैव सुरक्षा संबंधी विषेशज्ञों की समिति गठित हो, पर्यावरण अथवा स्वास्थ्य मंत्रालय के तहत जैव तकनीक नियामक संस्था बने, परीक्षण का स्थल पहले से तय हो और तमाम प्रयोगों में सभी हित धारकों की भागीदारी सुनिश्चित हो. बावजूद  इन सुझावों और अध्ययनों को दरकिनार करते हुए केंद्र की मोदी सरकार की ‘जैव तकनीक समिति’ ने हड़बड़ी में बीज परीक्षण की इजाजत दे दी. ये उपाय देश की खेती-किसानी  और मानव स्वास्थ्य चौपट करने वाले हैं.

समिति के फैसले पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े स्वदेशी जागरण मंच को भी आपत्ति है. मंच ने बयान जारी कर इसे देश की जनता के साथ धोखा करार दिया है. दरअसल लोकसभा चुनाव के घोषणा-पत्र में भाजपा ने कहा था कि जमीन की उर्वरा शक्ति और लोगों के स्वास्थ्य पर जीएम फसलों के लंबे समय तक असर का वैज्ञानिक परीक्षण किए बिना ऐसे बीजों के सिलसिले में कोई निर्णय नहीं लिया जाएगा. बावजूद समिति ने बीजों के जमीनी प्रयोग को हरी झंडी दे दी. जबकि 2012 में कृषि मंत्रालय की संसदीय समिति ने जीएम फसलों को पूरी तरह नामंजूर कर दिया था.

जीएम बीजों की उपयोगिता का मतलब है, सीधे-सीधे अमेरिकन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए खेती-किसानी से जुड़े मुनाफे का बाजार खोलना. वह भी सिर्फ मोनसेंटो, माहिको, बालमार्ट और सिजेंटा जैसी कंपनियों के लिए, जिनकी इस बीज उत्पादन और वितरण में 95 फीसद भागीदारी है. यही कंपनियां कीटनाशकों का उत्पादन बड़े पैमाने पर करती हैं. बीटी कपास की व्यूह रचना सिंजेटा ने रची थी, इसी क्रम में बिहार में जीएम मक्का बीजों की पृष्ठभूमि में मोनसेंटो था, तो कर्नाटक और तमिलनाडु में बीटी बैंगन खेती को बढ़ावा देने में माहिको थी. इसके बाद एक-एक 56 फसलें वर्णसंकर बीजों से उगाई जानी थीं, लेकिन देश भर में जबरदस्त विरोध के चलते कंपनियों की यह मंशा धरी रह गई थी. परंतु अब उद्योग हितैषी दिखने की जल्दबाजी में चावल, सरसों,कपास और बैंगन जैसी प्रमुख फसलों के जीएम बीजों के जमीनी परीक्षण की छूट दे दी गई है. इसका मतलब है, सभी आशंकाएं दरकिनार करते हुए जीएम फसलों की खेती का रास्ता खोल देना. ये आशंकाएं इसलिए पुख्ता लगती हैं क्योंकि जीएम बीजों से जुड़े वैज्ञानिक दो समुदायों में बंटे हैं.

यह बेवजह नहीं है कि दुनिया भर के पर्यावरणविद् और कृषि वैज्ञानिक इन बीजों की खिलाफत कर रहे हैं. परीक्षणों से साबित हो चुका है कि इनसे उत्पादित खाद्यान्न से एलर्जी, हारमोन की गड़बड़ी, कैंसर, सांस व गुर्दा संबंधी बीमारियां और अपंगता हो सकती है. इनके दुष्परिणामस्वरूप खेतों को बंजर बना देने वाले खरपतवार जड़ें जमा सकते हैं जो तमाम प्रयासों से भी नष्ट नहीं होते. जीएम बीजों का इस्तेमाल करने वाले 28 देश बेकाबू खरपतवार को किसी भी रसायन से नष्ट नहीं कर पा रहे हैं.

अमेरिका का जार्जिया प्रांत इसी के चलते बंजर प्रदेश में बदल गया है. जार्जिया में जमीन बर्बाद करने का काम मोनसेंटो के जीएम सोयाबीन और जीएम कपास की फसलों ने किया. ये कंपनियां किसान की आत्मनिर्भरता खत्म करने का भी मंसूबा पाले हैं, ताकि किसान उनके बीजों पर आश्रित हो जाएं. इन बीजों का उपयोग सिर्फ एक बार किया जा सकता है. जाहिर है, यह ममला हमारी संपूर्ण कृषि प्रणाली, खाद्य सुरक्षा और मनुष्य व पशुओं की सेहत से जुड़ा है. इसलिए हड़बड़ी में इनका प्रयोग नहीं करना चाहिए.

कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि जीएम प्रक्रिया से तैयार बीज का जैव रसायन संकर बीज में तब्दील होते वक्त नया विषैला रूप धारण कर लेता है और इसके पोषक तत्वों के गुणों में कमी आ जाती है. लिहाजा जो मनुष्य व मवेशी इन बीजों से उत्पादित फसलों को आहार बनाते हैं, उनकी प्रतिरोधात्मक क्षमता घटने लगती है. नए शोधों से यह भी  जानकारी सामने आई है कि इन बीजों से तैयार अनाज, फल व सब्जियां शाकाहार नहीं रह जाते. दरअसल जब डीएनए में जीवाणुओं और कोशिकाओं को संचरित किया जाता है तो नए पौधे में मांसाहार के गुण स्वाभावत: आ जाते हैं. हालांकि इस तथ्यात्मक मुद्दे को लेकर वैज्ञानिकों में मतभेद भी हैं.

शाकाहार संस्कृति संबंधी बहस तब भी उठी थी जब अमेरिका अपना चीज यानी पनीर भारत में बेचना चाहता था. इसे बनाने के लिए बछड़े की आंत से बने पदार्थ का प्रयोग किया जाता है. इसीलिए गौ सेवक भारतीय समाज इसे कभी मंजूर नहीं कर सकता. दूसरे, अमेरिका में गायों के चारे में मासांहार भी मिलाया जाता है. इसलिए भी इसका विरोध हुआ. बहरहाल, अमेरिका को इसे भारत में बेचने की मंजूरी नहीं मिली.

स्वतंत्र विज्ञान मंच और सरोकारी वैज्ञानिक संघ जैसे संगठनों ने भी जीएम फसलों को स्वास्थ्य और खेती के प्रतिकूल माना है. इनका मानना है कि इनसे पैदावार बेशक बढ़ती है लेकिन किसानों के लिए नया बीज खरीदने की मजबूरी रहेगी. संकर बीजों से उत्पादित फसलों के लिए बड़ी मात्रा में कीटनाशक और पानी की जरूरत होती है. हमारे यहां जल का व्यापक संकट है. ऐसे में कम से कम पानी की खपत वाली कृषि प्रणाली की जरूरत है. कीटनाशकों का लगातार उपयोग खेतों की उर्वरा क्षमता को नष्ट कर देता है.

पंजाब इसी के दुष्परिणाम झेल रहा है. नतीजतन वहां एंडोसल्फान जैसे कीटनाशक प्रतिबंधित हो रहे हैं. किसानों को मोटे अनाज की पैदावार बढ़ाने के प्रोत्साहित  किया जा रहा है. ऐसी ही आवाज उत्तर प्रदेश और केरल में उठ रही है. यहां एंडोसल्फान के इस्तेमाल से घातक बीमारियों की चपेट में आकर तमाम लोग मर चुके हैं. कई पक्षियों और कीटपंतगों की प्रजातियां नष्ट हो गई हैं. केरल के मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन एंडोसल्फान पर रोक के लिए एक दिन का उपवास भी रख चुके हैं.

सवाल है कि ऐसी पैदावार को हम क्यों बढ़ावा दे रहे हैं जो जीवन को मौत के मुंह में धकेलने वाले हालात पैदा करे. इससे अच्छा है देश में जो हर साल लाखों टन अनाज, सब्जियां और फल भंडारण के कुप्रबंधन के कारण नष्ट हो जाते हैं. इस बर्बादी को रोकने के प्रयास तेज करें. क्योंकि पेट भरने के फेर में स्वास्थ्य की परवाह न की गई तो यह स्थिति जीवन के अधिकार से खिलवाड़ होगी.

प्रमोद भार्गव
लेखक


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