खतरा एक दवा के मर्ज बन जाने का

Last Updated 26 Jul 2014 12:21:59 AM IST

भारत दुनिया के उन देशों की सूची में ऊंची पायदान पर है जहां बीमारियों से निपटने में एंटीबायोटिक दवाओं का सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता है.


खतरा एक दवा के मर्ज बन जाने का

ब्रिटेन की प्रिंस्टन यूनिर्वसटिी के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध से हाल में साफ हुआ है कि पिछले एक दशक में (2001-2010) भारत में एंटीबायोटिक दवाओं के प्रयोग में 62 फीसद का इजाफा हुआ है जो दुनिया में सर्वाधिक है. हालांकि फिलहाल प्रत्येक भारतीय हर साल 11 एंटीबायोटिक गोलियां गटकता है जो 22 गोलियां खाने वाले अमेरिकियों के मुकाबले आधी मात्रा है, लेकिन एक दशक में भारत में एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल आठ अरब गोलियों से बढ़कर 12.9 अरब हो जाने के कई गहरे संकेत हैं. इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि अब भारतीयों को एंटीबायोटिक दवाएं आसानी से मिल रही हैं, पर इसमें खतरे की बात यह है कि इनमें से ज्यादातर दवाओं का इस्तेमाल पर्याप्त जांच-परख के बिना हो रहा है.

यह एक आम जानकारी है कि बुखार, डेंगू और बैक्टीरिया या विषाणु (वायरस) के कारण पैदा होने वाली कई तरह की संक्रामक बीमारियों की रोकथाम के लिए एंटीबायोटिक दवाएं ही सबसे कारगर इलाज साबित होती हैं. यह तथ्य भी सही है कि ज्यादातर संक्रमणों के खिलाफ एंटीबायोटिक दवाएं तेज असर करती हैं, पर पिछले कई वर्षो में यह भी साफ हुआ है कि अब कई बीमारियों के बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता का विकास कर लेने के कारण ताकतवर हो गए हैं, लिहाजा ये दवाएं बेअसर साबित होने लगी हैं.

तीन साल पहले 2011 में देश में एक नए सुपर बग ‘एनडीएम-1’ से जुड़ी कई खबरें आई थीं, तब यह खुलासा हुआ था कि इस बैक्टीरिया (माइक्रोऑर्गनिज्म) ने अपने भीतर एंटीबायोटिक दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता पैदा कर ली है. जब हमें बीमार बनाने वाले किसी बैक्टीरिया पर सभी उपलब्ध एंटीबायोटिक दवाएं बेअसर साबित होने लगें तो ऐसे जीवाणु को डॉक्टर और वैज्ञानिक सुपर बग की कोटि में रखते हैं.

लेकिन इस जानकारी के बावजूद हमारे देश में वायरल बुखार और डेंगू के सैकड़ों-हजारों मामले सामने आने पर डॉक्टर और मरीज, दोनों एंटीबायोटिक दवाओं का जमकर इस्तेमाल करते हैं और यह जानने की कोशिश तक नहीं की जाती कि क्या मरीज को उस एंटीबायोटिक दवा की जरूरत है भी या नहीं. वैज्ञानिक मानते हैं कि किसी वायरस के तेज प्रसार की समस्या का एक छोर दुनिया में एंटीबायोटिक दवाओं के आंख मूंदकर इस्तेमाल से जुड़ा है. खतरा सिर्फ  एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होने का ही नहीं है, बल्कि ज्यादा बड़ी चुनौती इनके उलटे असर की है. यानी लाभ की बजाय ये दवाएं नुकसान पहुंचाने लगी हैं. इसलिए यह सवाल भी अब तेजी से उठने लगा है कि मॉडर्न मेडिसिन का आधार कही जाने वाली एंटीबायोटिक दवाओं का दौर वास्तव में खत्म हो गया है और क्या अब इनसे छुटकारा पाना ही उचित होगा? 

एलोपैथी में एंटीबायोटिक दवाओं का अतीत सौ साल से ज्यादा पुराना नहीं है. 1928 में स्कॉटिश साइंटिस्ट अलेक्जेंडर फ्लैमिंग ने सिफिलस जैसे इंफेक्शन को खत्म करने वाले एंटीबायोटिक पेंसिलिन की खोज के साथ लोगों का ध्यान एंटीबायोटिक दवाओं की तरफ गया था. इसके काफी बाद 1942 में जब अमेरिकन माइक्रोबायलॉजिस्ट सेल्मैन वाक्समैन ने उन पदाथरे को, जो बैक्टीरिया मारते हैं और उनकी बढ़त रोकते हैं, एंटीबायोटिक नाम दिया, तब इन्हें डॉक्टर अपने नुस्खे में बाकायदा सुझाने लगे थे. उस समय ये दवाएं किसी चमत्कार से कम नहीं मानी गई क्योंकि ऑपरेशन टेबल पर पड़े कई मरीज सफल ऑपरेशन के बावजूद सिर्फ इसलिए मर जाते थे क्योंकि इस दौरान उन्हें कोई संक्रमण हो जाता था. ऐसे संक्रमण पर काबू पाने का कोई कारगर तरीका तब आधुनिक चिकित्सा के पास नहीं था, लेकिन एंटीबायोटिक्स ने ऐसे संक्रमणों से निपटने का तरीका सुझाया. 

लेकिन तब से दुनिया काफी आगे निकल आई है. इस दौरान नई बीमारियों के उभार साथ उनसे निपटने के लिए नए एंटीबायोटिक भी मेडिकल साइंस ने बना लिए. पर इसी बीच पूरी दुनिया में यह प्रचलन भी काफी तेजी से बढ़ा है कि डॉक्टर एंटीबायोटिक्स पर हद से ज्यादा भरोसा करने लगे हैं. शायद यही वजह है कि बीमारियों के बैक्टीरिया भी इन दवाओं के खिलाफ ज्यादा ताकतवर हुए हैं. दवाओं के खिलाफ संक्रामक बीमारियों के बैक्टीरिया के ताकतवर होते जाने के कुछ कारण तो साफ दिखाई देते हैं.

पहली वजह डॉक्टरों द्वारा इनके अंधाधुंध इस्तेमाल की है. यह कुछ डॉक्टरों की सीमित जानकारी की वजह से हो सकता है. ऐसा इसलिए भी हो सकता है कि वे कुछ फार्मा कंपनियों के पल्रोभन-दबाव में कई बार नई, महंगी और ज्यादा ताकत वाली एंटीबायोटिक अपने मरीजों को सुझाते हैं. मामूली संक्रमणों के लिए जब ज्यादा ताकत वाले एंटीबायोटिक बार-बार दोहराए जाते हैं तो उनके खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता आसानी से विकसित हो जाती है- ऐसा कई डॉक्टर मानते हैं. चिकित्सा विज्ञानियों का मानना है कि एंटीबायोटिक्स के गलत इस्तेमाल के कारण लगभग सारे बैक्टीरिया ड्रग-रेजिस्टेंट हो चले हैं. दवाओं का अब उन पर कोई असर ही नहीं होता.

प्रयोगशालाएं हमेशा नए-नए एंटीबायोटिक बनाने में जुटी रहती हैं, लेकिन हर साल ही कुछ ऐसी नई बीमारियों का सामना उन्हें करना पड़ता है जिनकी वजह बने बैक्टीरिया की कोई काट उनके पास नहीं होती. ये बीमारियां अक्सर बिल्कुल नए बैक्टीरिया की देन होती हैं, जो एंटीबायोटिक्स के गलत, जरूरत से ज्यादा या बेवजह इस्तेमाल से मानव शरीर में ही पैदा हो गए होते हैं. दुनिया के तमाम मेडिकल साइंटिस्ट खुद को लाचार महसूस कर रहे हैं. जानी-पहचानी बीमारियों में सालोंसाल आजमाई हुई दवाएं अब बिल्कुल काम नहीं करतीं और अनजानी बीमारियां पैदा करने वाले नए बैक्टीरिया उनकी खोजों को देखते-देखते नाकारा बना देते हैं.

विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर किसी मरीज की बीमारी की सही जांच हुए बगैर कोई डॉक्टर 48 घंटे तक उसे एंटीबायोटिक दवाएं देता है तो यह बेहद खतरनाक बात है. भारत में डॉक्टरों की लापरवाही और मरीजों की नीमहकीमी के अलावा एक समस्या खराब डायग्नोसिस की भी है. अच्छी पैथॉलजी लैब्स का देश में बड़ा अकाल है और लोग भी दवाओं और डॉक्टर की फीस के बाद जांच के तीसरे खर्च से बचना चाहते हैं. बीमारी का बिल्कुल सही निर्धारण और उसी के अनुरूप एंटीबायोटिक का सटीक इस्तेमाल हमारे जीवन-व्यवहार का हिस्सा बनना चाहिए. इसके बजाय अंधाधुंध एंटीबायोटिक्स लेकर हम न सिर्फ  अपने बल्कि पूरी दुनिया के स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं.

बिना सोचे-समझे एंटीबायोटिक का इस्तेमाल नाक पर बैठी मक्खी को मारने के लिए तोप का गोला दागने जैसा हैठ यह रवैया सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए कितना खतरनाक है इसका अंदाजा विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से समय-समय पर जारी चेतावनियों से लगाया जा सकता है जिनमें एंटीबायोटिक दवाओं के अंधाधुंध इस्तेमाल को दुनिया के लिए एक बड़ा खतरा बताया जाता है.

अभिषेक कुमार सिंह
लेखक


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