निर्मल गांव के सपने का मलिन सच

Last Updated 26 Jul 2014 12:16:39 AM IST

वित्तमंत्री द्वारा महात्मा गांधी की 150वीं जन्मशती तक ‘हर घर को शौचालय’ का पेश लक्ष्य उसका मार्ग प्रशस्त करने को तत्पर है.


निर्मल गांव के सपने का मलिन सच

संप्रग सरकार की ‘निर्मल ग्राम योजना’ भी इसके लिए कम तत्पर नहीं थी. शहरीकृत गांवों का काम शौचालयों के बिना चल नहीं सकता. इस मजबूरी से सौ फीसद राहत निस्संदेह जरूरी है. किंतु क्या कारण है कि भारत के गांव इसके लिए तत्पर कभी नहीं दिखे? कोई तो वजह होगी कि जिस गांव के बहुमत घरों में शौचालय पहुंच गये हैं, उन गांवों की नालियां गंदे पानी से बजबजा रही हैं और तालाब बारिश का पानी संजोने की बजाए गांव की गंदगी संजो रहे हैं.

गौरतलब है कि सिर्फ शौचालयों के निर्माण से कोई गांव निर्मल नहीं हो सकता और कचरा मुक्त और प्रदूषण मुक्त गांवों का कोई समग्र व ग्राम स्वावलंबी खाका सरकार के स्वच्छता अभियान के पास है नहीं. परिणामस्वरूप, पानी के उपयोग वाले ग्राम शौचालय स्वच्छता लाने की बजाय सपने के उलट गंदगी बढ़ाने वाले साबित हो रहे हैं.

सूखे शौचालयों की तकनीक भारत में अभी कारगर नहीं हुई है. यह बात अटपटी लग सकती है, लेकिन झूठ नहीं कि मौजूदा परिस्थितियों में घर-घर शौचालय का सपना आगे चलकर प्रकृति और इसके जीवों की सेहत के लिए खतरे का सबब साबित होगा. तस्वीर साफ है कि जितने ज्यादा शौचालय, उतना ज्यादा पानी व बिजली की खपत, उतनी सीवर लाइनें, उतने मल शोधन संयंत्र, उतना ज्यादा प्रदूषण और उतनी ज्यादा मरती नदियां. उतने विवाद और नदी और हमारी सेहत सुधारने के नाम पर उतना ज्यादा भ्रष्टाचार.

याद करने की बात है कि आजादी के पहले बनारस में जलापूर्ति की पाइप लाइन भी आ गई थी और अस्सी के गंदे नाले को गंगा से जोड़े जाने पर मदनमोहन मालवीय ने विरोध भी जता दिया था. लेकिन आजादी से पहले गंगा व दूसरी नदियों के ज्यादातर शहरों में न जलापूर्ति के लिए कोई पाइप लाइन थी और न सीवर ढोकर ले जाने के लिए. नाले भी सिर्फ बारिश का ही पानी ढोते थे. पीने के पानी के लिए कुंए और हैंडपम्प ही ज्यादा थे. समृद्ध से समृद्ध परिवार भी मोटर से पानी नहीं खींचते थे. जैसे ही जलापूर्ति की लाइनें पहुंची, पानी और बिजली की खपत तेजी से बढ़ गई. इनके पीछे-पीछे फ्लश शौचालयों ने घरों में प्रवेश किया. राजस्व के लालच में सीवर पाइप लाइनें सरकारें ले आईं.

लोगों ने त्रिकुंडीय मल शोधन प्रणाली पर आधारित सेप्टिक टैंक तुङवा दिए. बारिश का पानी ढोने वाले ज्यादातर नाले शौच ढोने लगे. यह शौच आज नदियों की जान की आफत बन गया है. भारत में आज कोई ऐसा शहर ऐसा नहीं, जिसके किनारे की नदी का पानी बारह मास पीना तो दूर,स्नान योग्य भी घोषित किया जा सके. घर-घर शौचालयों की योजना इस मलिनता को और बढायेगी.

गांवों में अभी शौक-शौक में शौचालय पहुंच रहे हैं. बाद में  जलापूर्ति और सीवर की पाइप लाइनें पहुंचेगी ही. कचरा भी साथ आयेगा ही. दुनिया में हर जगह यही हुआ है. हमारे यहां यह ज्यादा तेजी से आयेगा. क्योंकि हमारे पास न मल शोधन पर लगाने को प्र्याप्त धन है और न इसे खर्च करने की ईमानदारी. शौचालयों की भारतीय चुनौतियां साफ हैं. परिदृश्य यह है कि हमारे यहां मलशोधन के नाम पर संयंत्र बढ़ रहे हैं. खर्च-कर्ज बढ़ रहा है. कचरा साफ करने का उद्योग बढ़ रहा है.

ठेके और पीपीपी बढ़ रहे हैं. नदियों की मलिनता को लेकर विवाद और आंदोलन बढ़ रहे हैं. लेकिन नदी, हम और इसके दूसरे जीव व वनस्पतियों का बीमार होना घट नहीं रहा. अभी शहरों के मल का बोझ हमारी नगर निगम व पालिकाओं से संभाले नहीं संभल रहा. जो गांव पूरी तरह शौचालयों से जुड़ गये हैं, उनका तालाबों से नाता टूट गया है. गंदा पानी तालाबों में जमा होकर उन्हें बर्बाद कर रहा है. सोचिए!  हर गांव-हर घर में शौचालय होगा तो निर्मलता कितनी बचेगी ?

मलशोधन संयंत्रों से ऊर्जा निर्माण के दावे खोखले साबित हो रहे हैं. मलशोधन पश्चात शेष शोधित अवजल के पूरे या आधे पुनर्उपयोग का दावा करने की हिम्मत तो खैर कोई संयंत्र जुटा ही नहीं पा रहा. देश में जलीय प्रदूषण व भूजल का संकट पहले ही कम नहीं है, गांव-गांव शौचालय का अधकचरा संकल्प इसे और गहराएगा. कचरा साफ करने वाली कंपनियां इससे मुनाफा कमायेंगी और गांव आगे चलकर बीमारी के साथ पानी के बिल और सीवर के टैक्स में फंसेगा और देश कर्ज में.

कोई बताये कि खेतों में पहुंचा मानवीय मल खेती को समृद्ध ही करता है. सोपान जोशी की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘जल मल थल’ इस बारे में कुछ खुलासा करती है. वह बताती है कि खेतों पर पड़ा मानव मल बेकार नहीं है. लद्दाख की जिस ठंडी रेती पर बीज को अंकुरित होने मात्र के लिए जूझना पड़ता है, वहां मल के बूते अन्न का दाना पैदा हो रहा है. बंगलुरू के ‘हनी शकर्स’ आज भी मल का कंपोस्ट बनाकर खेतों में पहुंचाते हैं.  गौरतलब है कि एक मानव शरीर एक वर्ष में 4.56 किलो नाइट्रोजन, 0.55 किलो फास्फोरस और 1.28 किलो पोटेशियम का उत्सर्जन करता है. 120 करोड़ की भारतीय आबादी के गुणांक में यह मात्रा करीब 80 लाख टन होती है.

समझने की बात है कि मवेशियों की घटती संख्या के कारण जैविक खेती पहले ही कठिन हो गई है. शौचालयों के कारण हम प्राकृतिक खाद की इतनी बड़ी मात्रा हर वर्ष खो देंगे. सच यह भी है कि खुले में पड़े शौच के कंपोस्ट में बदलने की अवधि दिनों में है और सीवेज टैंक व पाइप लाइनों में पहुंचे शौच की महीनों. कारण, इनमें कैद मल का संबंध मिट्टी, हवा व प्रकाश से टूट जाता है.

इन्ही से संपर्क में बने रहने के कारण खेतों में पड़ा मल आज भी बीमारी का उतना बड़ा कारण नहीं है, जितना पाइपों में होकर हमारी नदियों में पहुंच रहा मानव मल. इस दौरान इसमें साबुन, तेजाब व टॉयलट क्लीनर के जरिए जुड़े रसायन के जो खतरे हैं, सो अलग.

रही बात खुलें में शौच जाने की शर्मिंदगी से बचने की, तो समझ लेने की बात है, हमारे यहां खुले में शौच जाने को खेते, मैदान, झाड़े या जंगल जाना यूं नहीं कहा जाता था. इनका मतलब ही होता है खेत, झाड़ी, मैदान या जंगल की ओट में शौचकर्म करना.

गांव देहातों में जहां ये झाड़ी-जंगल बचे हैं, वहां आज भी खुले में शौच जाना सुरक्षित व निरापद है. कहना न होगा कि झाड़ी-जंगलों के साथ-साथ अपनी नैतिकता को पुनजीर्वित करना बेहतर विकल्प है. जरूरत दो संस्कृतियों और पीढ़ियों के बीच के अंतराल और भ्रष्टाचार की बढ़ती खाई को इस तरह पाटने की है, ताकि सार्वजनिक शौचालयों में जाएं तो वहां बेशर्म जुमले लिखने और पाशविक वृत्ति कीसंड़ाध पैदा होने के लिए कोई जगह न हो.

अरुण तिवारी
लेखक


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