कमजोर मानसून से हलकान देश

Last Updated 23 Jul 2014 04:41:26 AM IST

कमजोर मानसून की मार को अब सरकार ने भी स्वीकार कर लिया है.


कमजोर मानसून से हलकान देश

कृषि मंत्रालय ने एक जून से सत्रह जुलाई के बीच देशभर में धान, दलहन, सोयाबीन, कपास, मूंगफली आदि की बुआई का जो रकबा जारी किया है उसे देखकर लगता है कि इस बार सूखे की मार पांच बरस पहले पड़े सूखे से ज्यादा होगी. 2009 में देश ने चालीस बरस का सबसे खराब मानसून झेला था, लेकिन तब जुलाई के पहले हफ्ते से हालात सुधरने लगे थे. बारिश आ गई थी. इस बार जुलाई के दूसरे हफ्ते तक भी बादल रूठे रहे. आसमान ताकते-ताकते किसानों की आंखे थक गईं. अब जब बादल आए हैं तो काफी देरी हो चुकी है. बुआई का कीमती समय निकल चुका है. वर्षा ऋतु के आगमन में विलम्ब का असर कितना गहरा है, इसका पता कृषि मंत्रालय के इस स्वीकार से समझा जा सकता है कि अब तक सोयाबीन की बुआई महज बीस फीसद ही हो पाई है. पिछले साल इस समय तक एक करोड़ हेक्टेयर जमीन में यह फसल बोई जा चुकी थी जबकि इस बार केवल 19.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में ही बुआई हो पाई है. इस नुकसान की भरपाई कठिन है. यूं भी देरी से बुआई करने पर फसल का संभलना कठिन हो जाता है.

मौसम विभाग दावा कर रहा है कि वर्षा सामान्य से केवल दस प्रतिशत कम रहेगी. लेकिन बुआई का कीमती समय निकल जाने की भरपाई कैसे होगी, इसका जवाब उसके पास नहीं है. कमजोर मानसून की मार महंगाई पर जब पड़ेगी तब पड़ेगी, छोटे किसानों पर इसका असर अभी से दिखने लगा है. देश के अनेक हिस्सों में वे वैकल्पिक धंधे की खोज में गांव छोड़ने लगे हैं. यहां यह बताना जरूरी है कि भारत में 82.2 फीसद छोटे किसान है जिनकी जोत का आकार औसत 0.63 एकड़ है और देश की दो तिहाई आबादी आज भी खेती पर निर्भर है.

खेती के प्रति सरकारी रवैये पर नजर डालें तो पाएंगे कि इस साल के बजट में सरकार ने कृषि क्षेत्र के लिए 22,652 करोड़ रुपए का प्रावधान रखा है जो कुल बजट राशि का लगभग एक फीसद है. दूसरी ओर उद्योगों को 5.73 करोड़ रुपए की रियायत दी गई हैं. ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना ( 2007-08 से 2011-12) के दौरान कृषि विकास दर 4.1 प्रतिशत रही जिस कारण राष्ट्र के विकास को भारी संबल मिला. इन पांच सालों के दौरान केन्द्र सरकार ने कृषि क्षेत्र को केवल एक लाख करोड़ रुपए दिए. हिसाब लगाएं तो हर वर्ष औसत 20 हजार करोड़ रुपए दिए गए. दूसरी ओर उद्योगों को 2004-05 से अब तक यानी दस सालों में इकतीस लाख करोड़ रुपए की छूट दी जा चुकी है.

उद्योगों पर सार्वजनिक बैंकों के लगभग दस लाख करोड़ रुपए भी बकाया हैं जिनकी वसूली की संभावना न के बराबर है. 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-13 से 2017-18) में भी खेती और किसानों के प्रति सरकार के रवैये में कोई खास बदलाव नहीं दिखता है. इन पांच सालों में कृषि क्षेत्र पर 1.5 लाख करोड़ रुपए खर्च करने का लक्ष्य है जो सालाना औसत तीस हजार करोड़ रुपए बैठता है. यह रकम जरूरत देखते हुए ऊंट के मुंह में जीरे जितनी है.

केन्द्र सरकार के इस उपेक्षापूर्ण रवैये के खिलाफ हल्ला मचने पर तर्क दिया जाता है कि कृषि तो राज्यों के अधिकार क्षेत्र का विषय है, इसलिए पैसे का प्रावधान भी उन्हीं को करना चाहिए. इस तर्क को स्वीकार कर लिया जाए तो सवाल उठता है कि जब उद्योग भी राज्यों की विषय सूची में आते हैं तो फिर केंद्र सरकार उन्हें क्यों अरबों रुपए की छूट देती है. वास्तविकता यह है कि 1991 में उदारीकरण की नीति अपनाने के बाद कृषि क्षेत्र सरकार की प्राथमिकता सूची से गायब हो चुका है. नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के चिंतकों का मानना है कि देश का कायाकल्प करने के लिए उद्योगों को बढ़ावा देना जरूरी है. तेज औद्योगिक विकास से रोजगार के नये अवसर सृजित होंगे और जनता खेती छोड़ उद्योगों से जुड़ेगी. आर्थिक विकास की रफ्तार बढ़ने का लाभ अन्तत: गरीबों व किसानों को भी मिलेगा. लेकिन तथ्य इस बात की पुष्टि नहीं करते हैं.

पिछले दस सालों में उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. इसके बावजूद इस क्षेत्र में केवल 1.5 करोड़ रोजगार मिले. हर साल औसत 15 लाख नौकरियां. इस अवधि में गांव में रहने वाली जनता की माली हालत और खराब हुई है. अमीर-गरीब के बीच की खाई चौड़ी हुई है. स्थ्िित यह है कि आज 42 प्रतिशत किसान खेती छोड़ना चाहते हैं, लेकिन उसके पास रोजगार का अच्छा विकल्प नहीं है. 

इस संदर्भ में ताजा जारी रंगराजन समिति और संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट पर गौर करना जरूरी है. पिछले साल मनमोहन सिंह सरकार ने तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट के आधार पर दावा किया था कि देश में गरीबी रेखा से नीचे आबादी की संख्या घटकर केवल 21.9 प्रतिशत रह गयी है. इस रिपोर्ट के मुताबिक गांव में जिस आदमी की आमदनी हर दिन 27 और शहर में 33 रुपए से अधिक है, वह गरीब नहीं है. इस 27 व 33 रुपए में एक आदमी का खाने, दवा, शिक्षा, कपड़े और स्वास्थ्य का खर्चा शामिल है. इस रिपोर्ट का विरोध होने पर रंगराजन समिति गठित हुई, जिसने तेंदुलकर समिति की सिफारिशों में संसोधन किया है. रंगराजन समिति के अनुसार गांव में जिस व्यक्ति की दैनिक आय 32 व शहर में 47 रुपए से कम है, वही कंगाल की श्रेणी में आता है. नये मापदंड के मुताबिक अब देश की 21.9 नहीं, 29.5 फीसद जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे है.

रंगराजन समिति की सिफारिश जारी होने के आसपास ही संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया में गरीबी के आंकड़े जारी किये. इनके अनुसार दुनिया के 33 प्रतिशत कंगाल अकेले हिन्दुस्तान में रहते हैं. रिपोर्ट के मुताबिक हमारे देश में अत्यधिक गरीबों की संख्या 80 करोड़ है. यह तथ्य चौंकाता है, सरकारी दावों की पोल खोलता है. सरकारी आंकड़ों पर इसलिए भी शक होता है क्योंकि यदि देश में कंगाल आबादी केवल 29 फीसद है तब ताजा पारित खाद्य सुरक्षा कानून में क्यों 67 प्रतिशत लोगों को सस्ता गेंहू-चावल देने की बात कहीं गई है ? क्या हमारी सरकार इतनी उदार है कि वह गरीबी रेखा से ऊपर की आबादी पर सस्ता गेंहू-चावल लुटा देगी?

कंगाल और गरीबों की बात करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इस तबके के अधिसंख्य लोग गांवों में रहते हैं. इन्द्रदेव के रूठ जाने की मार भी सबसे ज्यादा उन्हीं पर पड़ती है. गांवों में गरीबी की स्थिति यह है कि आज देश के 60 प्रतिशत किसान रात को भूखे पेट सोने को मजबूर हैं. दु:ख की बात है कि देश के अन्नदाता कही जाने वाली जमात अपना और अपने बच्चों का पेट भरने की हैसियत नहीं रखती. रही-सही कसर मंहगाई ने पूरी कर दी है. सरकार ने दावा किया है कि मई के मुकाबले जून में मंहगाई घटी है लेकिन बाजार में खाने-पीने के सामान में जिस हिसाब से आग लगी है, उसे देखकर कहा जा सकता है कि आगे आने वाले दिन अच्छे नहीं होंगे. फलों की कीमत में 23.17, सब्जियों में 15.27, दुग्ध उत्पादों में 11.8 तथा मांस-मछली-अंडे में 10.11 फीसद की वृद्धि की बात तो सरकारी आंकड़े भी स्वीकारते हैं. यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि खाद्य सामग्री की मंहगाई शहरों के मुकाबले गांवों में अधिक होती है.

सत्ता संभालते ही नयी सरकार को मानसून और मंहगाई से कड़ी चुनौती मिली है. इस चुनौती की सामना करने के लिए उसे अपनी प्राथमिकताओं में परिवर्तन करना पड़ेगा. अग्निपरीक्षा में खरा उतरने पर ही भाजपा सरकार जन-विश्वास जीत सकती हैं.

धर्मेन्द्रपाल सिंह
लेखक


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