रुपया चलता है पर पहुंचता नहीं

Last Updated 13 Jul 2014 02:51:45 AM IST

मैं बजट की बारीकियों के बारे में बिल्कुल नहीं जानता. मैं नहीं जानता कि राजकोषीय घाटा या चालू खाता घाटा देश की अर्थव्यवस्था के किस अच्छे या बुरे पहलू को दर्शाते हैं.


विभांशु दिव्याल, लेखक

मुझे यह भी नहीं मालूम कि जिस विदेशी पूंजी को कुछ दशक पहले तक छूत की बीमारी की तरह देखा जाता था, अब वह हर बीमारी के इलाज की तरह क्यों देखी जा रही है? मैंने सुना है कि विदेशी पूंजी वहां जाती है जहां उसे खुलकर खेलने की सुविधा उपलब्ध हो और जहां वह कम से कम मेहनत में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमा सके.

लेकिन हमारे इधर के बजटों में उसे इस तरह कृपामयी, कल्याणकारी, सर्वकष्ट निवारक उस देवी की तरह पुकारा जा रहा है जिस तरह दुर्गा पूजा के अवसर पर मां दुर्गा को पुकारा जाता है. बहरहाल, अच्छे दिन आने की पूर्व बेला में आए बजट में हमें एक बार फिर बता दिया गया है कि जब तक विदेशी पूंजी मां की कृपा हम पर नहीं बरसेगी तब तक हमारे अच्छे दिन आना चाहकर भी नहीं आ सकेंगे.

तो मैं नहीं जानता कि बजट कैसे अच्छा बनता है और कैसे बुरा. यानी वे क्या बातें होती हैं जिनके बजट में आने से बजट निखर उठता है और वे क्या बातें होती हैं जिनके बजट से नदारद रहने पर बजट बिगड़ उठता है. मैं आज तक अपने घर के बजट को नहीं समझ, संभाल सका तो देश के बजट को क्या समझूंगा. वर्षों से सरकारों के बजट प्रस्तुतीकरणों को देखते-सुनते बस एक बात समझा हूं कि बजट का अच्छा या बुरा होना इस बात पर निर्भर करता है कि आप बजट प्रस्तुत करने वाली सरकार के पक्ष में हैं या विपक्ष में.

अगर आप सरकार के पक्ष में हैं तो बजट अच्छा होगा और अगर विपक्ष में हैं तो बजट बुरा होगा. वर्तमान बजट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नजर में अर्थव्यवस्था के लिए संजीवनी है, तो समूचे विपक्ष की नजर में निराशाजनक, आम लोगों को कुछ न देकर खास लोगों को फायदा पहुंचाने वाला, समस्याओं का ठोस समाधान न सुझाने वाला, गांवों और कृषि के विकास को बाधित करने वाला, आदि-आदि है.

विपक्ष का एक हिस्सा विपक्ष का भी विपक्ष होता है, जो न तो मौजूदा सरकार का समर्थन होता है न इससे पिछली सरकार का. इसलिए इस दुधारे विपक्ष को इस बजट में और पिछली सरकार के बजट में कोई ऐसा फर्क नजर नहीं आता जिसे सचमुच फर्क कहा जा सके. श्रद्धेय शरद यादव कहते हैं कि जेटली बजट मनमोहन-चिदंबरम बजट के ऊपर चाशनी भर है और अपने सदा अप्रसन्न केजरीवाल कहते हैं कि अगर आप अपनी आंख ठीक से बंद करके और कान ठीक से खोलकर जेटली का बजट भाषण सुनें तो आपको लगेगा कि चिदंबरम बोल रहे हैं. यानी अगर आप दुधारा विपक्ष हैं, यानी न आप कभी सरकार में रहे हैं और न सरकार में आने की संभावना है तो बजट के अच्छे होने की संभावना भी खत्म हो जाती है.

फिर भी इतना तो तय है कि बजट से कुछ, कुछ से ज्यादा या कुछ से कम लोगों का फायदा अवश्य होता है और जिन लोगों को फायदा होता है उनके लिए बजट अच्छा होता है. बजट में जिन लोगों, समूहों या संस्थाओं के लिए प्रावधान किया जाता है उन्हें उम्मीद बंधती है, खुशी होती है कि उनका फायदा होने जा रहा है. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने लिए किए गए बजटीय प्रावधान पर खुश होते-होते रह जाते हैं: यानी खुश होना तो चाहते हैं मगर खुश हो नहीं पाते.

उनकी संभावित खुशी स्वयं उन्हीं की आशंकाओं से घिर जाती है. उनकी आशंका होती है कि बजट में जो उन्हें दिया गया है वह उन्हें वास्तव में मिलेगा भी या नहीं. जैसे, हमारे प्रधानमंत्री जब बनारस से प्रत्याशी थे तो उन्होंने वहां के बुनकरों का ध्यान रखने का वादा किया था. उन्होंने बजट बनवाते समय अपने वादे को याद रखा और बनारस के बुनकरों के लिए पचास करोड़ का प्रावधान करा दिया.

एक पत्रकार खुश होकर बुनकरों की खुशी बांटने के लिए बाइट लेने जा पहुंचा. उसने बुनकरों के एक नेता से पूछा- कैसा लग रहा है? उसने कहा- बजट तो ठीक है, मगर बिचौलिए और अफसर बुनकरों तक कुछ आने दें, तब न फायदा हो.

यह केवल बुनकरों के लिए बजट प्रावधानित राशि का ही मामला नहीं है, समूचे बजट प्रावधानों का मामला है. राजीव गांधी के समय बजट प्रावधानित सौ पैसों वाला एक रुपया 15 पैसों का बनकर अपने लक्ष्य तक पहुंचता था. अगर अब कोई सोचे कि इतने वर्षों की प्रगति-समृद्धि के बाद शायद यह रुपया बढ़कर 30-40 पैसों का हो गया होगा, तो यह उसकी गलतफहमी से ज्यादा बेवकूफी होगी.

मनरेगा और राज्य सरकारों की पिछली पत्थर-प्रयोग जैसी योजनाओं के जो खुलासे हुए हैं वे बता रहे हैं कि कहीं-कहीं तो इस रुपए ने पांच पैसे की हद भी पार नहीं की. सिर्फ पांच-दस-पंद्रह पैसे उसे मिले जिसके लिए बजट में प्रावधान किया गया था, बाकी सब बिचौलियों, ठेकेदारों, इंजीनियरों-क्लर्कों-अधिकारियों और विधायकों-सांसदों-मंत्रियों की जेब में पहुंच गए. अब सरकार चाहे इसकी हो या उसकी, कोई फर्क नहीं पड़ता. मध्य प्रदेश में ताजा खुलासा हुआ है कि तीस लाख में लोकसेवा आयोग के माध्यम से लोकसेवक अधिकारी बनाए जा रहे हैं. अब ऐसे बने या वैसे बने अधिकारी और इनको संरक्षण देने वाले लोग बजट का पैसा पहले अपने घर पहुंचाएंगे या उस बुनकर, किसान, मजदूर के घर जिसके बारे में बजट में हांक लगाई गई है?

अब बजट अच्छा है या बुरा, किसके लिए मुनाफे वाला है और किसके लिए नुकसान वाला, इसका विश्लेषण-मूल्यांकन और निंदा-महिमामंडन अपनी-अपनी जगह अपने-अपने राग-द्वेषों के अनुसार जोर-शोर से हो रहा है. मैं तो बस उस वर्ग-बिरादरी के बारे में सोच रहा हूं जिसे हर बजट से मुनाफा होता है, हर बजट में जिसकी हिस्सेदारी होती है. काश किसी बजट में ऐसा प्रावधान भी होता जिससे पूरा रुपया बिना काट-कमीशन के उसके पास पहुंचता जिसके लिए वह चला है.



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