गुरु और शिष्य दोनों एक हैं

Last Updated 13 Jul 2014 02:29:33 AM IST

गुरु पूर्णिमा है. गुरु पूर्णिमा प्रीतिपूर्ण अवधारणा है. गुरु विवेक है, चंद्रमा मन है. बड़ा प्यारा शब्द है गुरु. गुरुत्व इसी से उगा है और इसी का विस्तार है गुरुत्वाकर्षण.


हृदयनारायण दीक्षित, लेखक

यों गुरुत्वाकर्षण को पृथ्वी का आकर्षण कहा जाता है लेकिन इसका मूल अर्थ भार का आकर्षण है. गुरु में गुरुत्व है लेकिन गुरु निर्भार करता है, मुक्त करता है. विश्व की किसी भी सभ्यता में ‘गुरु’ जैसा प्रतीक नहीं है. पादरी गुरु नहीं हैं, वे ईसाइयत की शिक्षा देते हैं. मौलवी भी गुरु नहीं हैं, वे इस्लामी ज्ञान देते हैं.

वे आस्था में बांधते हैं. लेकिन गुरु मुक्त करता है. गुरु शिष्य को दूसरा जन्म देता है. एक जन्म मिलता है माता-पिता से. गुरु द्विज बनाता है. अथर्ववेद में कहते हैं- गुरु उसे तीन रात तक ज्ञान गर्भ में रखते हैं, जब वह बाहर आता है, दिव्य शक्तियां उसका अभिनंदन करती हैं. ज्ञान गर्भ खूबसूरत प्रतीक है. मां का गर्भ हमको प्राण और काया देता है. गुरु का ज्ञान गर्भ हमको बोध देता है.

हम भारत के लोग प्रकाश अभीप्सु है. पूरब में ऊषा आई. क्षितिज अरुण हो रहे हैं. पूर्वजों ने ऊषा की आभा को प्रणाम किया. फिर आए सूर्य. वैदिक ऋषियों के लाड़ले देव सविता. हमने उनसे ‘ज्ञान प्रकाश- धीमहिधियो’ मांगा. वे सायंकाल चले विश्राम की ओर. हमने संध्या की वेला में उन्हें फिर से नमस्कार किया. दिवस प्रकाश है और रात्रि तमस्. सूर्य देव रात्रि में नहीं उगते. उगते तो रात न होती. रात्रि में प्रकाश देने का काम सूर्य ऊर्जा लेकर चंद्रमा करता है. वैज्ञानिकों ने सौर ऊर्जा के प्रकाश उपकरण अब खोजे हैं. प्रकृति में सौर ऊर्जा से दीपित चंद्र किरणों न जाने कब से अमृतरस बरसा रही हैं. लेकिन चंद्रमा लगातार घटता-बढ़ता है. प्रकाश का चरम है पूर्णिमा. अषाढ़ पूर्णिमा बादलों से ढके आसमान के बावजूद खिलती है. भारत ने उसे गुरु पूर्णिमा कहा. पूर्णिमा भारत के मन की प्रियतमा है.

गुरु ज्ञान ऊर्जा का बड़ा पिंड है. शिष्य ऊर्जा का छोटा पिंड. वह विराट से सीधे ज्ञान ऊर्जा लेने में सक्षम नहीं है. गुरु सीधे महा ऊर्जा केंद्र से जुड़ता है. ऊर्जा लेता है, ट्रांसफार्मर बनता है. शिष्य को ट्रांसफार्मर गुरु से ऊर्जा लेने में सुविधा है. शिष्य गुरु से जुड़ता है. गुरु शिष्य में प्रवाहित होता है. शिष्य अर्थात सीखने को सदा तैयार. जब सीखने की तत्परता स्वभाव बन जाती है तो सारा अस्तित्व गुरु बन जाता है. तब धरती, आकाश, सूर्य, चंद्र, अगि, वायु और जल भी गुरु हो जाते हैं.

इसके लिए जरूरी है ऊपर से अनुकंपा, नीचे से धन्यवाद भाव. ऊर्जा बड़े ऊर्जा पिंड से छोटे ऊर्जा पिंड को बहती है. विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है. यह विज्ञान का नियम नहीं है. नियम प्रकृति का है, वैज्ञानिक ने देखा है. उत्तर वैदिक काल में गुरु-शिष्य साथ-साथ स्तुति करते थे, ओम् सहनाववतु, सहनौ भुनक्तु- साथ-साथ होने, साथ-साथ सीखने, खाने और ओजस्वी-यशस्वी होने की. तब गुरु सूर्य थे, शिष्य चंद्र थे.

अंधकार हमारा गहन अनुभव है. मां के गर्भ में हमने संन्यास जैसे सुख पाए हैं. न भोजन की परवाह और न घर की. हम मां में थे, मां हममें थी. जगत में आए. सूर्य प्रकाश से सामना हुआ तो रात्रि ज्यादा भाई. दिन श्रम बना और रात्रि विश्रम. चंद्रमा ने थपकी दी. विश्रम को मधुमय बनाया. रात्रि को मधुर प्रकाशमय बनाया. गुरु भी यही करता है. वही ब्रह्मा है, सृजनकर्ता है. वह पालक विष्णु की भूमिका में होता है. संरक्षण देता है, पोषण भी देता है. वह महेश होता है. सर्जन और विसर्जन साथ-साथ चलते हैं.

पूर्वजों ने गुरु को ठीक ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहा है. लेकिन अनुभूति से बनी श्रद्धा इतने पर ही नहीं रुकी. आगे उसे साक्षात ‘पर ब्रह्म’ भी कहा. परब्रह्म ब्रह्म के पार की सत्ता है. पतंजलि ने योगसूत्रों में ईश्वर को सभी गुरुओं का गुरु बताया है- समय की सीमा के पार होने के कारण वह गुरुओं का गुरु है. गुरु समय का अतिक्रमण करता है. हम पर अनुकंपा करता है. हमारे लिए समय के भीतर आता है. गुरु प्राण से जुड़ता है. हमें विज्ञान से जोड़कर विज्ञानमय बनाता है. वही प्रज्ञानी बनता है. वह आनंद है, उसका संस्पर्श आनंदी बनाता है.

गुरु ऋत था, शिष्य सत्य बना. गुरु-शिष्य दोनों एक हैं. दो थे ही नहीं. पूर्णिमा में सूर्य का ही तेज है. चंद्रमा मन तो सूर्य आत्मा. गुरु पूर्णिमा ही है.



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