आंकड़ों में न उलझाया जाए गरीबी को

Last Updated 12 Jul 2014 12:35:51 AM IST

गरीबों और गरीबी का मजाक तो सदियों से उड़ाया जाता रहा है लेकिन अब बाकायदा पूरा गणितीय तर्क देकर गरीबी का मजाक उड़ाया जा रहा है.


आंकड़ों में न उलझाया जाए गरीबी को

देश में लगातार बढ़ती महंगाई के बावजूद हाल में आई रंगराजन समिति की एक रिपोर्ट के अनुसार शहरों में रोजाना 47 रुपये और गांव में 33 रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है. गरीबी रेखा पर सी रंगराजन की अध्यक्षता वाली एक समिति ने नई रिपोर्ट सरकार को सौंपी है. इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में हर दस में से तीन व्यक्ति गरीब हैं.

इस रिपोर्ट में रंगराजन समिति ने सिफारिश की है कि शहरों में हर रोज 47 रुपए से कम खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब माना जाए, जबकि गांवों में रोजाना 33 रुपए खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीबी रेखा से ऊपर समझा जाए. दरअसल गरीबी रेखा को लेकर सुरेश तेंदुलकर के अनुमान की काफी आलोचना हुई थी. इस पर उठे विवाद के बाद रंगराजन समिति बनाई गई थी. मगर अब रंगाराजन कमेटी की नई रिपोर्ट की भी कड़ी आलोचना हो रही है. हालांकि रंगराजन ने अपनी रिपोर्ट को सही ठहराया है और इसमें महंगाई के साथ-साथ पोषण को भी तवज्जो देने की बात कही है.

बहरहाल, गरीबी की नई सीमा को लेकर फिर से राजनीतिक विवाद खड़ा हुआ है. सरकार का कहना है कि वह इस रिपोर्ट की समीक्षा कर रही है. कुल मिलाकर गरीब और गरीबी पर हमेशा की तरह एक बार फिर राजनीति हो रही है लेकिन गरीबों का जीवन स्तर सुधारने के लिए फिलहाल कुछ होता नहीं दिख रहा है. खास बात है कि यह आंकड़ा इतनी ज्यादा  महंगाई दर के बावजूद है. सच पूछा जाए तो व्यावहारिक धरातल पर गरीबी के ये आंकड़े वास्तविकता से बहुत ज्यादा दूर हैं.

योजना आयोग किन कागजी आंकड़ों के जरिए विकास के दावे करता है, यह तो सिर्फ वही जाने लेकिन असल तस्वीर कुछ और ही है. देश में आर्थिक उदारीकरण के बाद  एक तबके का जबर्दस्त विकास हुआ है जबकि दूसरा पिछड़ता गया है. पहले देश में गिने-चुने करोड़पति होते थे लेकिन अब आंकड़ों के मुताबिक एक लाख 53 हजार करोड़पति हैं. यह भी सच है कि देश का सारा पैसा और संसाधन इन्हीं लोगों के कब्जे में है जबकि बाकी लोग किसी तरह सिर्फ अपनी जिंदगी गुजर-बसर कर रहे हैं.  देश की नीतियों के निर्धारण में गरीब का कोई योगदान नहीं है. गरीब सिर्फ आंकड़े बनाने या बनने के लिए ही है. देश की सड़कों पर नई दौड़ती कारें, लगातार खुलते मॉल और ऐसी ही दूसरी गतिविधियां निश्चित तौर पर विकास की सूचक हैं. लेकिन यह भी सच है कि एक बड़े वर्ग के लिए  लिए दो जून की रोटी जुटा पाना अब भी उसके जीवन का सबसे बड़ा संघर्ष है.

योजना आयोग के मुताबिक देश में गरीबी कम हो रही है जबकि पिछले दिनों  वर्ल्ड बैंक ने भारत में गरीबी के बारे जो आंकड़े पेश किए हैं, वे आंखें खोलने वाले हैं. संस्था के आकलन के अनुसार, गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली आबादी के प्रतिशत के लिहाज से भारत की स्थिति केवल अफ्रीका के सब-सहारा देशों से ही बेहतर है. बैंक की ग्लोबल इकोनमिक प्रास्पेक्टस शीषर्क से जारी रिपोर्ट भारत के शाइनिंग इंडिया के पीछे की हकीकत दिखाती है. बैंक ने अनुमान जताया है कि 2015  तक भारत की एक तिहाई आबादी बेहद गरीबी (1.25  डलर, यानी करीब 60  रुपये प्रति दिन से कम आय) में अपना गुजारा कर रही होगी.

हमने गरीबी और गरीबों को जानने के लिए एक रेखा खींच दी है जिसे गरीबी रेखा कहते हैं पर आजादी के बाद से लेकर आज तक इस रेखा का उपयोग सिर्फ भ्रष्टाचार के पोषण और गरीबों के नाम पर योजनाएं बनाकर उनको लूटने के लिए ही किया जाता रहा है. आर्थिक रूप से हमारे समाज में एक ऐसी रेखा खिंच गयी है या खींच दी गयी है जो मनुष्य को दो हिस्सों में बांटती है. एक वह जो अमीर है दूसरा वह जो गरीब है. अमीर होने के लिए आपके पास क्या कुछ होना चाहिए, इसकी परिभाषा सबके लिए अलग है  लेकिन सामान्यत: जो साधन संपन्न हैं, वे अपने को अमीर मानते हैं. जिनके पास साधन नहीं है वे गरीब लोग हैं. यानी अमीर होने के लिए जरूरी है कि गरीब अपने लिए उन साधनों को जुटाएं, ताकि वह अमीरों की श्रेणी में आ सकें. ऐसी स्थिति में वर्ग संघर्ष भी पैदा हो सकता है.

आज देश के हालात ऐसे हैं जिसमें गरीबों की सुनने वाला कोई नहीं है. सरकारी विभागों में लाल फीताशाही इतनी हावी है कि आम आदमी अपने छोटे-छोटे कामों और दो वक्त की रोटी के लिए दर-दर भटकता रहता है. हालांकि अब नई सरकार द्वारा इस मामले में कड़े कदम उठाने की बात की जा रही है लेकिन जब तक उठाये गए कदम व्यवहार में परिणत होते नहीं दिखते, तब तक कुछ नहीं कहा जा सकता है.

अब तक तो केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा शुरू की गई ज्यादातर योजनाओं के मामले में गरीब को कभी सही प्रतिनिधित्व मिल ही नहीं पाया है और अधिकांश योजनाएं भ्रष्टाचार की भेट चढ़ती रही हैं.  देश में दिख रहा कागजी और तथाकथित विकास किसके लिए है और किसको लाभ पहुंचा रहा है, यह विचारणीय प्रश्न है क्योंकि सच यह है कि देश के बहुसंख्यक वर्ग के लिए  लिए दो जून की रोटी जुटा पाना अब भी उसके जीवन का सबसे बड़ा संघर्ष है.

अब समय आ गया है जब लोग इस तरह की सरकारी रिपोर्ट्स का अपने स्तर पर पुरजोर विरोध करें. जिससे सरकार को लगे कि जनता असलियत से वाकिफ है और उसके मन में इसे लेकर आक्रोश है. सिर्फ आंकड़ो की बाजीगरी से गरीबी कम नहीं चल सकता है. इसके लिए धरातल पर काम करना पड़ता है. गरीबों के लिए सिर्फ योजनाएं बनाने से कुछ नहीं होगा. उनका सही क्रियान्वन हो, यह भी सुनिश्चित करना पड़ता है.

वातानुकूलित कमरों में बैठकर इस तरह की अव्यावहारिक रिपोर्ट बनाने से सिर्फ कागजों में गरीबी कम हो सकती है वास्तविक जीवन में नहीं. देश में दिख रहा कागजी और तथाकथित विकास किसके लिए है और किसको लाभ पहुंचा रहा है, यह एक बड़ा विचारणीय प्रश्न है, क्योंकि सच यह है कि देश के अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक सभी वगरे के लिए दो वक्त की रोटी जुटा पाना अब भी उसके जीवन का सबसे बड़ा संघर्ष है. नई सरकार से यही उम्मीद है कि वह आंकड़ों के खेल में न उलझकर गरीबों के हित में ऐसी योजनाएं बनाये जिसमें उसके लिए रोटी-कपड़े और छत का माकूल इंतजाम हो सके.

प्रियंका शर्मा
लेखक


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