आलू-प्याज चर्चा
चैनलों पर चर्चा के लिए महंगाई से ज्यादा बारहमासी मुद्दा और क्या होगा? कार्यक्रम प्रमुख ने आइडिया दिया और छोड़ दिया आयोजक पर.
आलू-प्याज चर्चा |
आयोजक ठहरा नया, सो चर्चा के लिए मंडी से बड़ा सा आलू और प्याज पकड़ लाया. कैमरा देखते ही दोनों कैसे शुरू हुए, आप खुद ही देखें-
आलू बोला, सबसे पहले तो मैं यह कहना चाहता हूं कि और चीजों के मामले में महंगाई की शिकायत चाहे सच भी हो पर मेरे मामले में बिल्कुल सही नहीं है. आखिरकार, यह क्यों मान लिया गया है कि मेरा भाव दस-पंद्रह रुपया किलो ही होना चाहिए. उससे जरा सा बढ़ा नहीं कि लगे लोग हल्ला मचाने कि आलू महंगा हो गया. मुझे तो लगता है कि यह मेरे खिलाफ साजिश है. भिंडी, परवल या करेला बीस रुपए किलो से ऊपर हों तो कोई नहीं कहता कि महंगे हो गए. फिर आलू ही इतना सस्ता क्यों रहे?
प्याज बोली, भाई आलू की इस बात से तो मैं भी पूरी तरह सहमत हूं कि हमारे महंगे होने का शोर बिना बात मचाया जा रहा है. बेचारे वित्त मंत्री तक को सफाई देनी पड़ रही है कि प्याज का भाव तीस रुपए से ऊपर नहीं होने दिया जाएगा. लेकिन प्याज के ही भाव पर इतना शोर क्यों? लोगों ने मुझे नाहक ही बदनाम किया है कि मेरा भाव बढ़ने से सरकारें गिर जाती हैं, सरकार चलाने वाले चुनाव हार जाते हैं. भाई आलू बुरा न मानें, मुझे तो बेकार में ही हर बार उनके साथ नत्थी कर दिया जाता है, जिसका हमें हर बार खमियाजा भुगतना पड़ता है. वर्ना कहां भाई आलू और कहां मैं? कहां पेट भरने की चीज और कहां जायके का तड़का.
आलू ने आपत्ति जतायी, यह तो गलत बात है. माना मैं हर चीज में पड़ता हूं. माना मैं रोजमर्रा के खाने का हिस्सा हूं लेकिन, इसका मतलब यह कैसे हो गया कि मेरा दाम, बहन प्याज से कम ही होना चाहिए. वह तीस रुपए पर रहें तो ठीक और मैं बीस भी छू लूं तो गुनाह! सवाल है कि जो लोगों का पेट भरे, वही क्यों गरीबी के भाव रहे? यह तो सरासर वर्ग भेद है. वाह जी वाह, जो पब्लिक के जितने काम का, उतने ही कम दाम का! माना मैं हर किसी के काम आता हूं, हर खाने में काम आता हूं, लेकिन यह गुण मेरे खिलाफ क्यों जाए! ऐसे तो प्याज के बिना भी खाना पूरा कहां होता है? उसकी लोकप्रियता तो इस हद तक उसके खिलाफ नहीं जाती.
प्याज बोली, देखिए, भाई आलू बहस को गलत दिशा में ले जा रहे हैं. उनका सामान्य दाम मेरे सामान्य दाम से कम है, तो इसमें कोई क्या कर सकता है? खैर, मैं नया विवाद खड़ा नहीं करना चाहती वरना सचाई यह है कि बहुत सी जगहों पर तो आलू की गिनती अनाजों में होती है. इसलिए जो शोर अनाज की महंगाई का, वही शोर आलू के महंगे होने का. उनके चक्कर में मुझे बेकार अनाजों वाले रेट में धकेलने की कोशिश होती है. जरा सा भाव बढ़ा नहीं कि सरकार डंडा लेकर सस्ता कराने के पीछे पड़ जाती है.
आलू बोला, देखा-देखा, बहन प्याज ले आयीं न जाति का सवाल बीच में. लेकिन पैदा तो यह भी हमारी तरह जमीन के नीचे ही होती हैं, फिर इनकी जाति हमसे ऊंची कैसे हो गयी? सिर्फ गंध से किसी की जाति ऊंची हो जाती हो, तो बात दूसरी है! वैसे भी सुना है यहां वालों ने ही उन्हें सिर चढ़ाया है पर इसका मतलब यह नहीं है कि वह मंहगे दाम पर अपना पैदाइशी अधिकार जताने लगें.
प्याज तुनककर बोली, भाई आलू मेरा मुंह न खुलवाएं तो ही अच्छा है. वरना मैं आगे-पीछे की नहीं कहती, पर सच्ची बात यह है कि वह भी बाहर से ही आए हैं. वह अलग बात है कि वे भी मेरी तरह इतने पहले के आए हैं कि लोग भूल ही गए कि बाहर वाले हैं.
वरना बाहर की चीजों तो मंहगी ही होती हैं, सस्ती नहीं. खैर! हम नहीं कहते हैं कि हमें बाहर वाला मान कर हमारा दाम बढ़ने दिया जाए. हमारी आपत्ति इससे ज्यादा सैद्धांतिक है. हमारी आपत्ति अपने को सस्ता माने जाने पर है. बाकी महंगाई पर तो बस नहीं चलता, फिर सरकार हम लोगों की कीमत के पीछे ही क्यों डंडा लेकर पड़ी रहती है?
आलू ने सहमति जताते हुए कहा- बहन प्याज की इस बात से मैं भी सहमत हूं. सरकार आलू-प्याज के ही पीछे क्यों पड़ी है? मैं तो कहता हूं कि सरकार को महंगाई की परवाह ही नहीं करनी चाहिए. उसे तो अच्छे दिन लाने पर ध्यान देना चाहिए. महंगाई शात और सार्वभौम सत्य है, उसका क्या बुरा मानना!
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