बच्चों की सेहत पर भारी पड़ता मिड-डे मील

Last Updated 11 Jul 2014 03:20:30 AM IST

यह विडंबना है कि जिस मिड-डे मील योजना का लक्ष्य स्कूली बच्चों को उचित पोषण देकर उनमें शिक्षा के प्रति आकर्षण पैदा करना है, वह उनकी सेहत और जिंदगी पर भारी पड़ रहा है.


बच्चों की सेहत पर भारी पड़ता मिड-डे मील

शायद ही कोई सप्ताह गुजरता हो जब कहीं न कहीं मिड डे मील में कीड़े आदि मिलने की खबर सुर्खियां न बनती हों. इसके बावजूद मिड-डे मील की स्वच्छता और गुणवत्ता को लेकर सतर्कता नहीं बरती जा रही है. इस बार बिहार के सीतामढ़ी जिले के एक सरकारी स्कूल में मिड-डे मील खाने से 54 बच्चों के बीमार पड़ने की खबर प्रकाश में आई. बताया जा रहा है कि जिस बर्तन में भोजन बना, उसमें अन्न के साथ सांप भी पक गया और बच्चे उसे खाकर बीमार पड़ गए.

गनीमत है कि किसी बच्चे की जान का नुकसान हुआ. पिछले दिनों जालंधर के स्कूलों में मिड-डे मील की जांच में कीड़े पाए गए. पिछले माह राजस्थान राज्य के कंचनपुर क्षेत्र के पंजीपुरा आंगनबाड़ी केंद्र में दूषित मिड-डे मील खाकर 23 बच्चे बीमार पड़ गए. चंद रोज पहले राजधानी दिल्ली के एक सरकारी स्कूल के भोजन में भी कीड़े पाए गए जिसे खाकर 20 बच्चे बीमार पड़े. जब देश की राजधानी में ही मिड-डे मील की स्वच्छता और गुणवत्ता को लेकर शासन-प्रशासन फिक्रमंद नहीं है तो दूर-दराज के स्कूलों का क्या हाल होगा, समझा जा सकता है.

इस मामले में पिछले साल का जुलाई महीना कैसे भुलाया जा सकता है जब बिहार के ही सारण जिले में एक सरकारी विद्यालय में कीटनाशक पदार्थ युक्त मिड डे मील खाने से 23 बच्चों की मौत हो गई थी. 22 जनवरी 2011 को महाराष्ट्र के नासिक स्थित नगर निगम के एक स्कूल में जहरीला भोजन खाने से 61 बच्चे बीमार पड़ गए. 25 नवम्बर 2009 को दिल्ली में त्रिलोकपुरी स्थित एक विद्यालय में जहरीला खाना खाने से 10 दर्जन छात्राओं की हालत बिगड़ गयी. 24 अगस्त 2009 को मध्य प्रदेश के सिवनी में एक सरकारी स्कूल में भोजन करने से आधा दर्जन छात्र मौत के मुंह में जाते-जाते बचे.

यहां भोजन में मरी हुई छिपकली पायी गयी थी. 12 सितम्बर 2008 को झारखंड के एक स्कूल में जहरीले भोजन से पांच दर्जन छात्र बीमार पड़ गए. लेकिन त्रासदी है कि इन घटनाओं से सबक नहीं लिया जा रहा है. न ही भोजन में प्रयुक्त खाद्य सामग्रियों की समुचित जांच-परख हो रही है. जबकि खाना बनाने और उसे छात्रों को परोसने से पहले सामग्रियों का समुचित परीक्षण अनिवार्यत: होना चाहिए. लेकिन भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी योजना में किसे फुर्सत है जो बच्चों के स्वास्थ्य और जीवन की चिंता करे.

अरसे से मिड-डे मील सामग्रियों की खराब गुणवत्ता और मानक के हिसाब से भोजन न दिए जाने का सवाल उठता रहा है. लेकिन आश्चर्य कि इस ओर न शासन-प्रशासन का ध्यान है और न ही स्कूल चिंतित हैं. जबकि मिड-डे मील योजना के तहत प्राथमिक स्तर के बच्चों को 450 कैलोरी और 12 ग्राम प्रोटीन का मध्याह्न भोजन दिए जाने का प्रावधान है. इसी तरह प्राथमिक स्तर से ऊपर के बच्चों के लिए 700 कैलोरी और 20 ग्राम प्रोटीन का पोषाहार सुनिश्चित किया गया है.

इस योजना के अंतर्गत लौह, फोलिक एसिड और विटामिन ए जैसे सूक्ष्म-पोशक तत्वों की पर्याप्त मात्रा की भी सिफारिश की गयी है. योजना के तहत प्रत्येक छात्र को चावल और रोटी के अलावा 50 ग्राम सब्जी और 20 ग्राम दाल दी जानी चाहिए लेकिन बच्चों को मानक के हिसाब से भोजन नहीं मिल रहा है. मध्याह्न भोजन उपलब्ध कराने वाली संस्थाएं छात्रों के अनुपात में भोजन नहीं दे रही हैं. इस गोलमाल में विद्यालय प्रबंधन और सरकारी कर्मचारियों सभी की मिलीभगत होती है.

योजना के तहत सप्ताह के हर दिन भोजन के अलग-अलग मेन्यू निर्धारित हैं लेकिन उसका भी अनुपालन नहीं हो रहा है. बच्चों को कम पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराया जा रहे हैं. तमाम शहरों में मध्याह्न भोजन की जिम्मेदारी ऐसी-ऐसी स्वयंसेवी संस्थाओं ने संभाल रखी है जो इस कार्य में दक्ष हैं ही नहीं. लेकिन क्योंकि उनकी पहुंच ऊपर तक है, लिहाजा उन्हें काम मिल गया है. ऐसे में घपले-घोटाले के बावजूद उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं होती है तो यह अस्वाभाविक नहीं है. जबकि विगत पांच वर्षों में इस योजना पर तकरीबन 40 हजार करोड़ रुपया खर्च हो चुका है.

मिड-डे मिल योजना लागू करते समय उम्मीद जतायी गयी थी कि बच्चों को कक्षा में भूखे रखने से बचाया जा सकेगा. लेकिन भ्रष्टाचार के कारण उद्देश्य पूरा होता नहीं दिख रहा है. गौरतलब है कि विद्यालयों में मध्याह्न भोजन कार्यक्रम 15 अगस्त 1995 को प्रारंभ किया गया.

इसके अंतर्गत कक्षा एक से पांच तक प्रदेश के सरकारी, परिषदीय और राज्य सरकार द्वारा सहायता प्राप्त प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ने वाले सभी बच्चों को 80 फीसद उपस्थिति पर प्रतिमाह तीन किलोग्राम गेहूं अथवा चावल दिए जाने की व्यवस्था सुनिश्चित की गयी. किंतु योजना के अंतर्गत छात्रों को दिए जाने वाले खाद्यान्न का पूर्ण लाभ विद्यार्थी को न प्राप्त होकर उसके परिवार में बंट जाता था.

बाद में उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर 1 सितम्बर 2004 से पका-पकाया भोजन प्राथमिक विद्यालयों में उपलब्ध कराने की योजना शुरू की गयी. अक्टूबर 2007 से इसे शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े ब्लॉकों में स्थित उच्च प्राथमिक विद्यालयों तथा अप्रैल 2008 से देश के सभी ब्लॉकों और नगर क्षेत्र में स्थित उच्च प्राथमिक विद्यालयों तक लागू कर दिया गया.

आज की तारीख में यह योजना देश के तकरीबन 13.36 लाख स्कूलों के 12 करोड़ ऐसे बच्चों को कवर कर रही है जो सरकारी स्थानीय निकायों सहित, सहायता प्राप्त विद्यालयों और शिक्षा गारंटी योजना एवं नवीन शिक्षा स्कीमों के अंतर्गत चलाए जा रहे केंद्रों में शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं.

यह योजना एक हद तक बच्चों की भूख मिटाने और उन्हें पढ़ाई के प्रति आकर्षित करने में कारगर सिद्ध हुई है. इसके अलावा मध्याह्न भोजन योजना से 24 लाख रसोइयों को काम भी मिला है. मिड-डे मील बनाने के लिए 5 लाख 77 हजार किचन बनाए गए हैं. माना जा रहा है कि इस योजना के आकर्षण से सरकारी और सहायता प्राप्त विद्यालयों से छात्रों का पलायन रुका है और छात्रों की संख्या में वृद्धि हुई है.

योजना में व्याप्त भ्रष्टाचार से जहां लक्ष्य में बाधा पहुंच रही है, वहीं यह बच्चों की सेहत के लिए खतरनाक भी साबित हो रहा है. उचित होगा कि केंद्र व राज्य सरकारें मध्याह्न भोजन योजना की निगरानी के लिए कारगर तंत्र की स्थापना करें और सुनिश्चत करें कि तय मानकों के हिसाब से बच्चों को गुणवत्तापरक भोजन प्राप्त हो. समझना होगा कि बच्चे राष्ट्र की पूंजी हैं और उनकी जिंदगी से खिलवाड़ नहीं होना चाहिए.

अरविंद जयतिलक
लेखक


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