सड़क परिवहन नीति में बदलाव की दरकार

Last Updated 10 Jul 2014 01:00:29 AM IST

आज यानी दस जुलाई को बजट के रूप में सरकार की तमाम चुनौतियों की अगली परीक्षा होनी है.


सड़क परिवहन नीति में बदलाव की दरकार

महंगाई, रोजगार और आर्थिक वृद्धि जैसे वृहत कारकों के अलावा सरकार का ध्यान ढांचागत क्षेत्र (इंफ्रास्ट्रक्चर) के विकास की ओर मोड़ना भी जरूरी है. सड़क परिवहन तंत्र, इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण अवयव रहा है. पूरे विश्व में सड़क परिवहन तंत्र के मामले में अमेरिका के बाद भारत दूसरा स्थान रखता है और यहां 80 प्रतिशत परिवहन सड़कों द्वारा ही होता है. इसमें भी राष्ट्रीय राजमार्ग और एक्सप्रेस-वे आर्थिक और क्षेत्रीय समायोजन दोनों ही दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण हैं. इसलिए नई सरकार से यह उम्मीद करना स्वाभाविक होगा कि वह इनके विकास को लेकर महत्वपूर्ण कदम उठाए.

बजट में इससे जुड़े क्या प्रावधान हो सकते हैं या इसके लिए सरकार किन बातों पर विचार कर सकती है, इसे समझने से पहले कुछ बिंदुओं पर विचार करना आवश्यक होगा. पहला बिंदु सरकार द्वारा सड़कों के विकास पर किए जाने वाले खर्चे से संबंधित है. केंद्रीय परिवहन मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि सालाना सड़क विकास पर 25 हजार करोड़ रुपए का खर्च आ रहा है. इसके अलावा यदि हम पिछली तीन पंचवर्षीय योजनाओं पर नजर डालें तो पाएंगे कि सड़कों के विकास में कुल निवेश लगभग सोलह प्रतिशत पर स्थिर बना हुआ है.

10वीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) में यह निवेश 16.6 फीसद, 11वीं में 15.3 प्रतिशत और 12वीं में 16 प्रतिशत रहा है. और इसमें भी अगर देखें तो सरकारी निवेश का क्रमवार प्रतिशत घटता ही रहा है. 10वीं योजना में सरकारी निवेश 95 प्रतिशत था, जो 11वीं में 66 प्रतिशत और 12वीं में आकर 60 प्रतिशत पर रुक गया. वहीं निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ती गई. यहां यह बात गौर करने लायक है कि निजी क्षेत्र की भागीदारी सबसे ज्यादा यूपीए के पहले पांच सालों यानी 2004 से 2009 के बीच रही है.

यूपीए सरकार ने अपने शासन के पहले बजट यानी 2004-05 में सड़क परिवहन पर जीडीपी का केवल 0.29 प्रतिशत ही आवंटित किया, जबकि उससे पिछली सरकार के बजट में यह आवंटन 0.33 प्रतिशत था. 2012-13 के बजट में सड़क परिवहन तंत्र के लिए लगभग 31,672 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया जो जीडीपी का 0.56 प्रतिशत था. अर्थात 2004 से लेकर यूपीए सरकार के अंतिम बजट तक सरकारी निवेश जीडीपी के आधे प्रतिशत तक ही रहा. हालांकि उससे पहले की एनडीए सरकार ने भी निजीकरण को ही बढ़ावा दिया था और उसके बाद से यूपीए सरकार  अपने दस सालों के कार्यकाल में शुरु आत से अंत तक निजी क्षेत्र की भागीदारी पर आधारित पीपीपी मॉडल को और आगे लेकर आई.

सरकार सड़कों के निर्माण के लिए अब तक विश्व बैंक से 1965 मिलियन डॉलर का और एडीबी से 1605 मिलियन डॉलर का ऋण ले चुकी है. लेकिन अब तक लक्षित 55 हजार किमी में से केवल 19 हजार किमी सड़क निर्माण का कार्य पूरा हो पाया है. 12वीं योजना के अंतर्गत सरकार ने सड़क परिवहन के लिए 1.42 लाख करोड़ का व्यय सुनिश्चित किया है जो मुख्यत: राजमार्गों को आपस में जोड़ने और उनको चार या छह लेन में परिवर्तित करने पर व्यय किए जाएंगे. लेकिन सड़कों की हालत संतोषजनक तस्वीर बयान नहीं करती. पच्चीस प्रतिशत गांवों में अब भी कोई पक्की सड़क नहीं है, उन्हें राजमार्गों से जोड़ने की बात तो बहुत दूर है.

तकरीबन बीस लाख किमी में से दस लाख किमी सड़कों की हालत खस्ताहाल बनी हुई है, जबकि राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) के हिसाब से सरकार हर साल 25 हजार करोड़ रुपए खर्च करती है. एनएचएआई ने योजनाओं के क्रियान्यवन में होने वाली रुकावट व विलंब के लिए भूमि अधिग्रहण की समस्या, राज्यों द्वारा सहयोग न मिलना और कुछ उत्तर-पूर्वी व नक्सल प्रभावित राज्यों की समस्याओं का होना बताया है.

दूसरा बिंदु परिवहन निर्माण के क्षेत्र में सरकारी और निजी क्षेत्र की भागीदारी के मॉडल अर्थात पीपीपी से है. पिछले दस सालों मे यूपीए सरकार के तहत पीपीपी मॉडल पर परिवहन में अधिक निवेश हुआ है. जहां 10वीं पंचवर्षीय योजना में निजी निवेश मात्र पांच प्रतिशत था, वहीं 11वीं योजना में यह 34 प्रतिशत तक पहुंच गया. यहां गौरतलब है कि 11वीं योजना का कार्यकाल पूरी तरह यूपीए शासन के अंतर्गत था और इस दौरान योजना आयोग की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही. नतीतजन, यूपीए के इन दस सालों में पीपीपी मॉडल के तहत बीओटी अर्थात बनाओ, चलाओ और हस्तांतरण (बिल्ड, ऑपरेट, एंड ट्रांसफर) को पूरी तरह अमल में लाया गया और सड़क परिवहन से जुड़े कई प्रोजेक्ट्स निजी क्षेत्र को सौंपे गए.

मूल्यांकन की दृष्टि से देखें तो इसका परिणाम बहुत संतोषजनक नहीं रहा क्योंकि इससे जुड़े निजी क्षेत्रों ने वित्तीय अनियमितताओं एवं अन्य कई संस्थागत परेशानियों (जैसे भूमि अधिग्रहण की समस्या इत्यादि) और अनुमानित लाभ न मिलने की वजह से हाथ खींचने शुरू कर दिए. अत: परियोजनाओं का भार वापस सरकार पर आ गया. सड़क परिवहन से जुड़ी योजनाओं पर वर्तमान में सरकार द्वारा अनुमानित व्यय 40 हजार करोड़ रुपए का है. इन सबको देखते हुए पहल के तौर पर सरकार ने परिवहन क्षेत्र में सौ प्रतिशत विदेशी निवेश का प्रावधान पहले ही दे रखा है और अन्य माध्यमों पर विचार जारी है. 

तीसरा बिंदु यातायात और सड़क परिवहन की सुरक्षा को लेकर है. डब्ल्यूएचओ द्वारा 2013 में प्रकाशित ग्लोबल स्टेटस रिपोर्ट ऑन रोड सेफ्टी के हिसाब से ढाई लाख से ज्यादा लोग हर साल भारत में सड़क दुर्घटना का शिकार होते हैं. रिपोर्ट के हिसाब से भारत का सड़क परिवहन तंत्र असुरक्षित है और इस पर ध्यान देने की बहुत जरूरत है. भारत में तकरीबन अस्सी प्रतिशत से ज्यादा परिवहन सड़क के माध्यम से होता है.

उसमें भी अकेले चालीस प्रतिशत तक परिवहन राष्ट्रीय राजमार्गों द्वारा होता है, जबकि ये राजमार्ग और एक्सप्रेस-वे पूरे सड़क परिवहन तंत्र का केवल दो प्रतिशत ही हैं, और उसमें से मात्र उन्नीस प्रतिशत ही चार लेन में विकसित है. इसका नतीजा सड़क पर यातायात अवरोध और आए दिन होने वाली दुर्घटनाओं के रूप में परिलक्षित होता रहता है. उस पर से हर साल दस प्रतिशत की दर से वाहनों की संख्या बढ़ रही है लेकिन उस अनुपात में सड़कों की चौड़ाई और अतिरिक्त लेन में वृद्धि नहीं हो पा रही है. 

इन तमाम बातों के मद्देनजर इस बजट में परिवहन तंत्र के लिए निजी क्षेत्र की तरफ उम्मीद न लगाकर योजनाओं के कार्यान्वयन की नीति पर विचार करना होगा और इनमें सरकारी भागीदारी को वापस बढ़ाना होगा. सड़कों का अधिकतम विकास निजी क्षेत्र की भागीदारी से पहले हुआ है और उनके आने के बाद से कम ही होता आया है. इससे जुड़े आंकड़े परिवहन मंत्रालय की रिपोर्ट में मिल जाते हैं. जहां 11वीं योजना में सड़कों के विकास की दर बीस प्रतिशत होनी चाहिए, वहां यह मात्र छह प्रतिशत रही.

यह भी जरूरी है कि राज्य सरकारों को जिम्मेदारियां लक्ष्य के तौर पर सौंपी जाएं कि वे अपने राज्यों की सड़क परिवहन व्यवस्था को, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों को मुख्य राजमार्गों से जोड़ें. इसके लिए राजनीतिक अवरोध, भूमि अधिग्रहण की समस्या या अन्य क्षेत्रीय समस्याओं के समाधान के लिए राज्य स्तर पर समुचित तंत्र बनाया जाएं, खासतौर से नक्सल प्रभावित और उत्तर-पूर्वी राज्यों में. नई तकनीक और सुरक्षा संबंधी उपायों के लिए होने वाले वित्तीय व्यय को सकल बजेटरी सपोर्ट के तहत लाया जा सकता है, जिसमें राज्य सरकारें भी अपना अंश निर्धारित करें.

नीकी नैनसी
लेखक


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