आओ फुटबाल देखें

Last Updated 10 Jul 2014 12:55:30 AM IST

फुटबाल हम खेलते तो हैं नहीं, हम तो क्रिकेट खेलते हैं. इसलिए यह तो नहीं कह सकते कि आओ फुटबाल खेलें. ऐसे में फुटबाल देख ही सकते हैं. तो आओ फुटबाल देखें.


आओ फुटबाल देखें

हर साल, हर महीने, हर दिन हम क्रिकेट खेलते हैं, क्रिकेट देखते हैं, क्रिकेट ओढ़ते-बिछाते हैं और क्रिकेट जीते हैं. तो चार साल में चलो एक बार फुटबाल भी देख लें. पिछली बार शकीरा को सुना था, इस बार पिटबुल को सुन लें. क्योंकि यह भी एक फैशन है.

सो जमाने के साथ चलें. ब्राजील की बात करें, अर्जेंटीना की बात करे, फ्रांस, जर्मनी, इटली की बात करें. उरुग्वे, कैमरून और कोस्टारिका की बात भी कर सकते हैं. हालांकि हमें ज्यादा कुछ पता नहीं कि ये कौन देश हैं. क्योंकि ये क्रिकेट नहीं खेलते. क्रिकेट खेलनेवाले देशों के बारे में हम जानते हैं. हम कंगारुओं को जानते हैं, कीवीज को जानते हैं पर इनको नहीं जानते. जानेंगे भी कैसे? वे क्रिकेट नहीं खेलते और हम फुटबाल नहीं खेलते.

पर ऐसा नहीं है कि हमने कभी फुटबाल खेला ही नहीं. दिल्ली में ही बताते हैं एक जमाने में बड़ा फुटबाल खेला जाता था. पुरानी दिल्ली में आज भी उस जमाने को याद करते फुटबाल प्रेमी मिल जाएंगे. पर वह सिर्फ अतीत है. जैसे हॉकी अतीत है. अतीत का अपना गौरव होता है. दद्दा ध्यानचंद हमारे गौरव हैं. गाहे-बगाहे उन्हें भारत रत्न देने की बात भी हो जाती है. सचिन तेंदुलकर के सामने खड़ा करने के लिए अगर कोई चाहिए तो वह दद्दा ही हैं. पर वह अतीत हैं.

सचिन ने बेशक क्रिकेट खेलना छोड़ दिया है, फिर भी वे वर्तमान हैं, हमारे क्रिकेट के भगवान हैं. इसका तो शरापोवा को भी पता चल गया होगा जब उन्होंने कहा कि कौन सचिन तेंदुलकर! तो हमारा सोशल मीडिया उनके पीछे पड़ गया था कि तुम भगवान को नहीं जानतीं! पर हम अपने बंगाल के फुटबाल खिलाड़ियों को भी नहीं जानते. ममता बनर्जी ने बाइचांग भूटिया को चुनाव लड़वाया तो पता चला वे फुटबाल खिलाड़ी हैं. पता चला कि बंगाली फुटबाल के दीवाने होते हैं. पर हम नहीं जानते कि केरल में भी फुटबाल बहुत खेला जाता है. हम नहीं जानते कि गोवा में भी फुटबाल बहुत खेला जाता है.

पर हम क्रिकेट का एक-एक आंकड़ा जानते हैं. पर अभी क्रिकेट से थोड़ा अवकाश लीजिए. ब्रेक के बाद फिर मिलेंगे के स्टाइल में हम फिर क्रिकेट खेलेंगे, देखेंगे, बहस करेंगे, शर्त लगाएंगे. पर फिलहाल फुटबाल देखें. क्योंकि यह भी फैशन है. काश, पैशन होता. जॉन अब्राहम जैसे बॉलीवुड हीरो भी फुटबाल प्रेमी हैं. अमिताभ बच्चनजी भी सुना है फुटबाल देखने ब्राजील जा रहे हैं. सो हमें भी वक्त के साथ चलना चाहिए. फुटबाल देखना चाहिए. मैसी, नेमार,मूलर, रोड्रिग्स, पर्सी, रोबिन, शकीरी के खेल की बात करनी चाहिए.

ठीक है कि बिजली नहीं है. पर बिजली तो आगे भी नहीं रहनी है. कल थी, पर आज नहीं है, कल रहेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है. अगर होगी भी तो महंगी होगी. क्योंकि बिजली कंपनियां बिजली महंगी करने पर आमादा हैं. महंगी बिजली ले सकते हो तो ठीक है.

वरना बिजली तो होगी नहीं. लेकिन बिना बिजली के जब हम किक्रेट का शौक पाल सकते हैं तो फुटबाल का शौक क्यों नहीं पाल सकते. यह जरूर है कि क्रिकेट गली में भी खेली जा सकती है. पर फुटबाल के लिए मैदान चाहिए. वो हैं नहीं. मैदान तो स्कूलों तक में नहीं. जब ढाई सौ गज के प्लॉट पर स्कूल खुलेंगे और गैराजों में विश्वविद्यालाय तो मैदान कहां से आएंगे! पर खेलना नहीं है तो देखना तो चाहिए ना!

ठीक है, महंगाई है. अब महंगी होती प्याज देखें या फुटबाल देखें. पर महंगाई कल भी थी. महंगाई आज भी है. सरकार बदली है. महंगाई थोड़े बदली है. सरकार के बहाने थोड़े बदले हैं. प्याज का मिजाज थोड़े बदला है. बदला कुछ भी नहीं. सो महंगाई का रोना छोड़िए. वह है और रहेगी. पर फुटबाल र्वल्ड कप तो चार साल में आता है. उसे देखने का मौका नहीं गंवाना चाहिए. और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा की तर्ज पर देखना चाहिए कि क्रिकेट के अलावा भी दुनिया में खेल हैं.

अनेक छोटे-छोटे देश हैं जो फुटबाल खेलते हैं. वैसे ही जैसे ओलंपिक के वक्त हमें पता चलता है कि क्यूबा जैसे छोटे-छोटे देश भी झोली भर-भरकर मेडल ले जाते हैं और हम देखते रह जाते हैं. फुटबाल भी हम देखते ही रह सकते हैं. फिर भी देखना चाहिए. दुनिया के इस खूबसूरत खेल के लिए सारी दुनिया के पागलपन के साथ थोड़ा पागलपन हम भी पाल सकते हैं. बुरा नहीं होगा.

सहीराम
लेखक


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