चुनाव की पवित्रता पर कालेधन का ग्रहण
कालेधन और बेशुमार चुनावी खर्च की जुगलबंदी हमें रसातल की ओर ले जाने में कोई कसर नहीं रखने वाली है.
चुनाव में लगा काला धन |
दोनों स्वतंत्र तौर पर देश की बड़ी समस्याओं में शुमार रही हैं. ऐसे में अगर दोनों मिल गई हैं तो यह हमारे लोकतंत्र के लिए गंभीरतम संकट है. सेंटर फॉर मीडिया की रिपोर्ट बताती है कि पिछले पांच सालों में देश के विभिन्न राज्यों में हुए चुनावों में डेढ़ लाख करोड़ रुपए से अधिक खर्च किए गए. इतना ही नहीं, इनमें से आधी से अधिक राशि का स्रोत अज्ञात है और यह कालेधन के सिवा कुछ नहीं. यह रिपोर्ट ऐसे समय में आई है जब देश का राजनीतिक माहौल चरम पर है. राजनीतिक दल लोकसभा चुनाव में एक-दूसरे पर अधिकाधिक कालेधन के प्रयोग का आरोप लगा रहे हैं.
यह कालाधन ही हमारे देश में मौजूद भ्रष्टाचार की जननी है. गौर करने वाली बात है कि एक तरफ यह रिपोर्ट जारी हुई है, दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को इस बात के लिए फटकार लगाई है कि वह विदेशों में कालाधन जमा करने वालों के नाम क्यों नहीं बता रही. सुप्रीम कोर्ट ने चार जुलाई, 2011 के एक आदेश में सरकार को जर्मनी की सरकार से प्राप्त भारतीय जमाधारकों की सूची जमा कराने और फिर पूरे प्रकरण की जांच के लिए विशेष जांच दल गठित करने का निर्देश दिया था. कोर्ट की इस बात को सरकार ने नहीं माना और अब कोर्ट ने इसे अपनी अवमानना मानते हुए 29 अप्रैल को सूची जमा करने को कहा है.
गौर करने वाली बात है कि इस बार चुनाव में ज्यादा खर्च करने का आरोप मुख्य विपक्षी दल भाजपा पर है और सत्तारूढ़ पार्टी को यह लगता है कि वह पाक-साफ है. लेकिन कम खर्च करना अलग बात है और यह बात अलग कि आपने कालेधन के प्रवाह को रोकने के लिए क्या किया. सरकार के पास काफी समय था कि वह कालेधन के मर्ज को खत्म करने का गंभीर प्रयास करती, लेकिन इसकी जगह जुबानी कोशिश ही चलती रही. कालाधन अगर है तो वह हर हाल में काला असर ही छोड़ेगा. चुनाव में इसके प्रयोग का मतलब भी यही है कि चुनाव दागनुमा हैं. चाहे जिस पार्टी को सत्ता मिले, यही बात धरातल में दिखेगी कि वह कालेधन के प्रयोग के बिना सत्ता में नहीं आ पाती. रही बात सरकार की तो उसने तो कालेधन के मुद्दे को मजाक बना दिया. विपक्षी पार्टी भी इसे महज दिखावे की नोकझोंक का मुद्दा मानती रही. सवाल है कि इसे प्रमुख चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनाया गया?
वित्तमंत्री बार-बार कहते रहे कि विदेशों में जिनका कालाधन जमा है, उन्हें छोड़ा नहीं जाएगा. लेकिन आखिर उन्होंने किया क्या? 2011 में ही वित्त मंत्रालय ने कालेधन के अध्ययन के लिए एक आयोग का गठन किया था. आयोग ने जुलाई, 2012 में अपनी रिपोर्ट दे दी. लेकिन उसे आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया. आखिर कौन है जो इस रिपोर्ट को सामने आने से रोक रहा है? जवाब की जरूरत नहीं है. राजनीतिक हस्तियों से लेकर कॉरपोरेट जगत के लोगों के नाम इस सूची में यकीनन हैं. राजनीतिक रूप से कमजोर लोगों का नाम तो इस सूची में हो ही नहीं सकता और अगर होता तो अब तक सामने आ गया होता. दरअसल, राजनीति ही कालेधन की जड़ है. भ्रम तब फैलता है जब राजनीति की वजह से ही यह मसला चर्चा में आता है. पार्टियां एक-दूसरे पर कीचड़ उछालती हैं, पर उनमें इस बात पर सहमति होती है कि वे एक सीमा से आगे जाकर विरोध नहीं करेंगी, अन्यथा हमाम का पूरा पानी बह जाएगा और सबकी असलियत सामने आ जाएगी.
सेंटर फॉर मीडिया की रिपोर्ट के मुताबिक तो 75 हजार करोड़ रुपए कालेधन का प्रयोग चुनाव में हो रहा है. विदेशों में जमा कालाधन तो इससे कई गुना अधिक है. 2010 के मानक मूल्यों के हिसाब से एक संस्था के मुताबिक यह राशि 30 लाख करोड़ रुपए की है जो सकल घरेलू उत्पाद का करीब 17 फीसद है. दरअसल स्विस बैंक में जमा कालाधन वह पैसा है जो अप्रत्यक्षत: लोगों की जेब से निकला है. फिर कालाधन इतना ही नहीं है. यह स्विस बैंक के अलावा भी कई विदेशी बैंकों में छुपा हुआ है. भ्रष्टाचार और कालेधन की समस्या को मिटाना है तो जनता का जागरूक होना ही एकमात्र विकल्प है. चूंकि राजनीति जनता के दबाव में चलती है इसलिए लोगों को सचेत होना ही होगा. हालांकि भ्रष्टाचार और कालाधन अब नौकरशाही और प्रशासन में भी घर कर गया है. इकॉनामिक वर्ल्ड में तो इसकी पहुंच है ही.
खतरनाक बात यह है कि अब जनता भी इसे जीवन का अनिवार्य अंग मानने लगी है. लेकिन लोगों को समझाना होगा कि इसका वजूद खत्म किए बिना न गरीबी मिट सकती है और न ही शिक्षा व स्वास्थ्य को सभी के लिए सुलभ बनाया जा सकता है. भ्रष्टाचार मिटे और लोग कालाधन संचय न कर पाएं, इसके लिए न्यायपालिका को भी सक्रिय करने की जरूरत है. जांच-पड़ताल में गुणवत्ता और मुकदमे की समय सीमा कम करना अत्यंत जरूरी है. वोट देने का एक आधार यह भी होना चाहिए कि कालेधन की वापसी के लिए किसकी सक्रियता कितनी है. सरकार को भी कूटनीतिक चैनल के जरिए स्विटजरलैंड सरकार को स्पष्ट जानकारी देने के लिए बाध्य करना चाहिए.
जहां तक राजनीतिक दलों को उद्योग जगत द्वारा फंडिंग की बात है, मैं इसके लिए पारदर्शी व्यवस्था का हिमायती हूं. अभी की व्यवस्था के तहत राजनीतिक दल चुनाव आयोग को अपने फंड की जानकारी तो देते हैं लेकिन इसमें केवल वही जानकारी होती है जिसका भुगतान चेक द्वारा होता है. आगे ऐसी व्यवस्था लाई जानी चाहिए जिसके तहत उद्योग जगत नकद चंदे न दें. यह राजनीतिक दल और उद्योग जगत के साथ-साथ आम लोगों के भी हित में है. जनता को आज तक सही जवाब नहीं मिल पाया है कि राजनीतिक दल इतना पैसा कहां से लाते हैं? रही बात चुनाव आयोग की तो वह अब तक एक सीमा में ही काम करता दिखा है.
अब तक चुनाव आयोग का प्रभाव सिर्फ प्रचार अभियान के खर्चों को लेकर ही है. लेकिन समस्या यह है कि खर्च अधिक हो रहे हैं और कागज पर इसे संतुलित तरीके से कम दिखाया जा रहा है. एडीआर और नेशनल इलेक्शन वाच ने पिछले लोकसभा चुनाव के खर्च का विश्लेषण कर पाया कि अधिकांश प्रत्याशियों ने चुनाव आयोग द्वारा तय खर्च सीमा से कम खर्च किया है. विजयी उम्मीदवारों ने तो औसतन 15 लाख ही खर्च दिखाया था. क्या उम्मीदवार वाकई इतनी राशि ही खर्च करते हैं? ऐसा है तो 75 हजार करोड़ का कालाधन कहां खर्च हो रहा है? यकीनन चुनाव आयोग को और आक्रमक होना होगा तथा खर्चे से जुड़े सभी तकनीकी पहलुओं पर गंभीरता से विचार करना होगा. राजनीतिक दलों की पोल तो खुलनी ही चाहिए.
(लेखक भारत सरकार में कैबिनेट सचिव रहे हैं)
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