स्वास्थ्य जागरूकता जरूरी
बच्चों को शारीरिक-मानसिक स्तर पर स्वस्थ व मजबूत रखने की बुनियादी शर्त यह है कि गर्भावस्था से ही उनके स्वास्थ्य व पोषण का समुचित ध्यान रखा जाए.
स्वास्थ्य जागरूकता जरूरी (फाइल फोटो) |
शैशवकाल में बच्चे अपनी भूख-प्यास, बीमारी आदि के साथ ही किसी तकलीफ के विषय में ठीक से बता पाने में सक्षम नहीं होते हैं, जबकि इसी दौर में उनके शारीरिक-मानसिक विकास की बुनियाद पड़ती है. लिहाजा, इस वक्त उनके स्वास्थ्य के मद्देनजर आहार, चिकित्सा आदि के प्रति सबसे अधिक सजग होने की जरूरत होती है. यहां चूक की स्थिति में बच्चों में कुपोषण से लेकर गंभीर बीमारियों से ग्रस्त होने तक का खतरा होता है.
देश दुनिया में कुपोषण की समस्या इतना विकराल रूप ले चुकी है कि वि बैंक द्वारा इसकी तुलना ‘ब्लैक डेथ’ नामक उस महामारी से की गई है जिसने 18 वीं सदी में योरोप की बड़ी जनसंख्या को नष्ट कर दिया था. इस क्रम में एक नजर भारत पर डालें तो बच्चों के स्वास्थ्य व पोषण के मामले में यहां स्थिति बेहद खराब है. दुनिया के तकरीबन 40 फीसद कुपोषित बच्चे अकेले भारत में हैं. इनमे से लगभग आधे बच्चों का वजन उनकी उम्र के अनुपात में बेहद कम है. बड़ी संख्या में बच्चे खून की कमी से ग्रस्त हैं.
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के लगभग 21 लाख बच्चे समुचित पोषण व स्वास्थ्य सुविधाएं न मिलने के कारण काल के गाल में चले जाते हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की तीसरी सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था होने के बावजूद स्वास्थ्य और पोषण के मामले में भारत की हालत नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका जैसे देशों से भी बदतर है. जबकि ये सभी देश भारत से आर्थिक से लेकर तमाम तरह की सहायता प्राप्त करने वाले देशों में शामिल हैं. भारत में बच्चों की स्वास्थ्यजन्य स्थिति इन देशों से भी बदतर है तो यह बेहद शर्मनाक बात कही जाएगी.
यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि एक तरफ भारत विश्व पटल पर अपनी अर्थव्यवस्था के दम पर पहचान कायम कर गर्वित हो रहा है और दूसरी तरफ उसके बच्चों का बड़ा हिस्सा कुपोषण और अस्वास्थ्यकारी माहौल में जीने को विवश है. वैसे भारत में जच्चा-बच्चा की सुरक्षा के लिए ‘जननी-शिशु सुरक्षा’ और ‘आशा’ आदि कई योजनाएं व कार्यक्रम लागू हैं पर अन्य योजनाओं की ही तरह ये योजनाएं भी ज्यादातर कागजी खानापूर्ति तक ही सिमटकर रह गई हैं. इन कार्यक्रमों के कागज तक सिमटे रहने का प्रमुख कारण केन्द्र व राज्य सरकारों के बीच सही तालमेल न होना है जिसका खमियाजा देश के नन्हें मासूमों को अपनी जान तक गंवा के भुगतना पड़ रहा है.
शिशु अवस्था में कुपोषण से ग्रस्त होने की स्थिति में बच्चा बड़ा होने पर भी सुपोषित बच्चों की अपेक्षा शारीरिक-मानसिक स्तर पर कमजोर रह जाता है. कद छोटा रह जाना, शरीर पतला या सूजा होना, याददाश्त कमजोर होना और कोई भी काम करते हुए जल्दी थक जाना आदि कुपोषण के ही लक्षण हैं. कुपोषित पोषण बच्चों में घेंघा, एनीमिया, मैरेमस आदि बीमारियों का खतरा बना रहता है. कुपोषण की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि जो बच्चा जन्म से पांच वर्ष के भीतर इसकी चपेट में आ गया, उसके लिए आगे इससे मुक्त होना मुश्किल होता है. बेशक संतुलित और पौष्टिक आहार की कमी कुपोषण का सबसे प्रमुख कारक है, लेकिन कुछ अन्य स्थितियां भी जिम्मेदार मानी जाती हैं.
जागरूकता और साफ-सफाई का अभाव अस्वस्थता का बड़ा कारण है. ग्रामीण क्षेत्रों में अधिसंख्य लोग पोषण आदि के मामले में अनविज्ञ होते हैं. उनकी नजर में पोषण का सिर्फ एक अर्थ होता है कि खूब खाओ जबकि नियमित और पौष्टिक आहार ही कुपोषण से निजात दिला सकते हैं. इसके अलावा साफ-सफाई की कमी भी अस्वस्थता का अहम कारण है. एक आंकड़े के मुताबिक देश में तकरीबन पचीस हजार बस्तियों में साफ-सफाई का स्तर औसत से भी नीचे है. इन बस्तियों में रहने वाले लोगों के घरों के आसपास कहीं कचरे का ढेर लगा होता है तो कहीं बगल से दुर्गधपूर्ण नाली बह रही होती है. ऐसे में, खेलते-कूदते बच्चे इस गंदगी के संपर्क में आते रहते हैं.
परिणामस्वरूप उनमे तमाम तरह की बीमारियां पैदा होती हैं. इस कारण उनकी पाचन शक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. वह जो खाते हैं, वह ठीक से नहीं पच पाता है और धीरे-धीरे वे कुपोषण की गिरफ्त में आ जाते हैं. जाहिर है, स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का अभाव बच्चों को बीमारी की जद में ला देता है. कुपोषण के अभिशाप से मुक्ति के लिए जितनी आवश्यकता समुचित पोषण, चिकित्सा व स्वच्छता की है, उससे अधिक जागरूकता की है. और जागरूकता के लिए जितना दायित्व सरकार का है, उतना ही समाज का भी.
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