सिर्फ नेता नहीं नीयत भी चाहिए

Last Updated 24 Apr 2014 12:38:43 AM IST

चरम पर पहुंच चुके चुनावी मौसम में व्यर्थ-बयानों को भी सबसे महत्वपूर्ण खबर के तौर पर पेश किया जा रहा है, पर देश के सामने आ रहे अहम मुद्दों पर महत्वपूर्ण नेताओं के बोल सामने नहीं आ रहे हैं.


सिर्फ नेता नहीं नीयत भी चाहिए

इस वक्त देश में, मीडिया में दो तरह के अतिवादी बयान दिखाई-सुनाई पड़ रहे हैं. अतिवाद का एक छोर बता रहा है कि मोदी के आते ही देश टूट जाएगा, तबाही हो जाएगी. अतिवाद का दूसरा छोर बता रहा है कि मोदी के आते ही सारी समस्याओं का हल एक झटके में हो जाएगा. राजनीति में अतिवादी विमर्श कुछ नया नहीं है. पर इस बार के चुनाव इतने लंबे चल गए हैं कि सिर्फ  चुनावी अतिवादी कांय-कांय के सिवाय कुछ और सुनने को नहीं मिल रहा है. तमाम अहम मुद्दे मीडिया और बहस से गुम हो गए हैं.

हाल में एक शोध संस्थान क्रिसिल द्वारा पेश की गई रिपोर्ट में बहुत महत्वपूर्ण बातें और तथ्य रखे गए हैं. इन तथ्यों से साफ होता है कि महज मोदी सरकार के आने भर से महंगाई कम नहीं हो जाएगी. यह सोचना खुद को भुलावे में रखने जैसा है कि मई, 2014 में मोदी के सरकार बनाने के बाद महंगाई के आंकड़े खुद-ब-खुद गिरने शुरू हो जाएंगे. क्रिसिल की रिपोर्ट के मुताबिक मार्च, 2014 में खुदरा महंगाई दर 8.3 प्रतिशत की दर से बढ़ी. मतलब मार्च, 2013 के मुकाबले मार्च, 2014 में खुदरा स्तर के बाजारों में, रिटेल के बाजारों में महंगाई 8.3 प्रतिशत बढ़ी. फरवरी, 2014 में यह महंगाई आठ प्रतिशत बढ़ी थी. यानी फरवरी 2014 के मुकाबले मार्च, 2014 में महंगाई बढ़ने की रफ्तार ज्यादा रही है.

महंगाई कम होने के नाम नहीं ले रही है. क्रिसिल का अनुमान है कि 2014-15 के दौरान खुदरा महंगाई की दर करीब 8.5 प्रतिशत रहेगी. 8.5 प्रतिशत की खुदरा या उपभोक्ता महंगाई दर भी बहुत ज्यादा है. रिजर्व बैंक द्वारा नियुक्त उर्जित पटेल कमेटी के मुताबिक उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आगामी 12 महीनों में गिरकर आठ प्रतिशत हो जाना चाहिए और आगामी 24 महीनों में गिरकर छह प्रतिशत हो जाना चाहिए. इस समिति का मानना है कि चार प्रतिशत से ज्यादा उपभोक्ता मूल्य सूचकांक नहीं होना चाहिए. चार प्रतिशत से ज्यादा महंगाई दर न हो, ऐसा अगर हो, तो रिजर्व बैंक ब्याज दरों को कम करने की दिशा में कदम उठा सकता है.

क्रिसिल द्वारा पेश रिपोर्ट में साफ किया गया है  खाने-पीने की चीजों की महंगाई किसी भी तरह से थमने का नाम नहीं ले रही है.  खाने-पीने की चीजों की महंगाई मार्च, 2014 में एक साल के हिसाब से 9.1 प्रतिशत  बढ़ी. तमाम तरह की महंगाई में खाने-पीने की चीजों की महंगाई ही सबसे ज्यादा परेशान कर रही है, उपभोक्ताओं को भी, सरकारों को भी.

कानून-व्यवस्था का मसला तो सरकारों के हाथ में सीधे ही होता है, किसी नेता के आने या न आने से उस पर फर्क पड़ता है. लेकिन महंगाई पर किसी नेता के आने से बहुत फर्क पड़ता दिखाई नहीं दे रहा है. जैसे शेयर बाजार मोदी के आने की उम्मीद में ही झूमने लगे थे, उन पर मोदी इफेक्ट साफ-साफ दिखाई देने लग गया था. पर बाकी के तमाम बाजारों पर ऐसा कोई असर देखने में नहीं आया कि तमाम आइटमों के भाव नीचे की ओर आने लग जाएं.

कुल मिलाकर साफ यह होता है कि महंगाई दर गिरे, तो रिजर्व बैंक अपनी ब्याज दरों को कम करे. रिजर्व बैंक ब्याज दरों को कम करे, तो तमाम उद्योगों में मांग का स्तर बढ़े. ऑटोमोबाइल, हाउसिंग जैसे क्षेत्र तो ब्याज दरों से बहुत ज्यादा प्रभावित होते हैं. ईएमआई बढ़ने की आशंका से मांग कम हो जाती है, ईएमआई घटने की उम्मीद में मांग बढ़ जाती है. पर ब्याज दरों का कम होना साफ तौर पर महंगाई दर के कम होने पर निर्भर है. और महंगाई दर का कम होना एक हद तक खाने-पीने की चीजों की कीमतों के कम होने पर निर्भर है. लेकिन खाने-पीने की चीजों की कीमतों पर फिलहाल मोदी-इफेक्ट नहीं दिख रहा है. वह फिलहाल किसी भी सूरत में नीचे का रु ख करने को तैयार नहीं हैं.

ब्याज दरों का कम होना इस तरह से खाने-पीने की चीजों की सस्ताई से जुड़ गया है. यह सस्ताई कैसे आएगी, न भी आए तो महंगाई बढ़ने की दर में कमी कैसे होगी, यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो गया है. अब तक देखा गया है कि खाने-पीने की चीजों की महंगाई पर सरकार और विपक्ष में एक फर्जी किस्म की कुश्ती चला करती थी. विपक्षी दल सरकार पर आरोप लगाया करते थे कि वह महंगाई को थामने में विफल रही है.

जवाब में सरकारी पक्ष ग्लोबल हालात का हवाला दिया करता था कि पूरी दुनिया में महंगाई बढ़ रही है- इस देश में, उस देश में. सरकारी पक्ष के कुछ प्रवक्ता जमाखोरी को महंगाई की वजह बताते हुए कहते थे कि जमाखोरी रोकना राज्य सरकारों के क्षेत्र में आता है, इसलिए जमाखोरी रोककर महंगाई कम करना राज्य सरकारों का काम है. राज्य सरकारें कई राज्यों में विपक्षी दलों की हैं, इसलिए महंगाई को लेकर विपक्षी दलों की भी जिम्मेदारी है.

अब केंद्र में नई सरकार की जिम्मेदारी होगी कि इस तरह के आरोपों-प्रत्यारोपों से पार और परे जाकर महंगाई नियंतण्रके लिए कुछ ठोस कदम उठाए जाएं. कांग्रेस के नेताओं के पास इस संबंध में कुछ ठोस विचार पहले भी नहीं थे, कोई ठोस विचार अब भी नहीं है. दरअसल, कांग्रेसी नेताओं के पास ज्यादातर महत्वपूर्ण मसलों पर ठोस और सकारात्मक विचार नहीं हैं. एक कार्य-योजना नहीं है. तमाम मसलों पर अगर कांग्रेस के पास कार्य-योजना होती, तो उसकी ऐसी हालत न होती कि कांग्रेस को अगली सरकार की निर्माण-संभावनाओं में गिना ही नहीं जा रहा है.

मोदी के पास महंगाई का कोई रेडीमेड हल होगा, ऐसा नहीं दिखता. महंगाई कम करने के जमीनी उपायों में से कुछ हैं- राशन की दुकान को दुरुस्त किया जाए, बहुत जल्दी खराब होने वाली सब्जियों के लिए ठीक-ठाक स्टोरेज व्यवस्थाएं बनाई जाएं, जमाखोरों के खिलाफ सख्त और तेज कदम उठाए जाएं, पूरे तौर पर निष्फल हो चुके भ्रष्ट फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया को भंग किया जाए, कोई नया संगठन बनाया जाए या फिर इसे नए सिरे से पुनर्गठित किया जाए. इन कदमों के रास्ते में जो भी न्यस्त स्वार्थ आएं, उन्हें दूर किया जाए.

राशन की भ्रष्ट दुकान में बहुत छोटे किस्म के नेताओं के हित जुड़े हैं, इनमें हर पार्टी के नेता शामिल हैं. जमाखोरों में से कइयों को राजनीतिक समर्थन हासिल है. इनसे निपटना आसान नहीं है. इनसे निपटे बगैर खाने-पीने की चीजों की महंगाई कम नहीं हो सकती और खाने-पीने की चीजों की महंगाई कम हुए बगैर समूची महंगाई कम नहीं होगी. इसका आखिरी असर यह होगा कि ब्याज दरों में कमी नहीं आ पाएगी. इसके चलते भारतीय उद्योग जगत के सामने बनी हुई कई समस्याएं जस की तस रहेंगी.

महंगाई कम होनी चाहिए, ऐसी बात अब विचार के स्तर पर कहने-सुनने का जमाना गया. अब तो बहुत बारीक और जमीनी स्तर पर जाकर सोचने-समझने की जरूरत है कि महंगाई कम हो तो कैसे. फिलहाल चुनावी शोर में तो इसकी संभावना नहीं है, पर उम्मीद की जानी चाहिए कि 16 मई के बाद इन मसलों पर गहराई और गंभीरता से विचार किया जाएगा.

आलोक पुराणिक
लेखक


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