विकलांगों के अधिकारों की रक्षा का सवाल
बीते दिनों केन्द्र सरकार के 15000 से ज्यादा विकलांग कर्मचारियों के संबंध में सरकार ने आदेश जारी कर कहा कि तबादलों, तैनाती और आवासीय सुविधा के मामलों में इनकी जरूरतों को प्राथमिकता दी जाए.
विकलांगों के अधिकारों की रक्षा का सवाल |
केन्द्र सरकार की सेवा में 15747 कर्मचारी नेत्रहीनता, बधिरता या अन्य किसी न किसी शारीरिक विकलांगता का शिकार हैं. मार्च में इससे पहले सरकार कह चुकी है कि ‘कोई भी एयरलाइंस ऐसे किसी व्यक्ति को अपने साथ ले जाने से मना नहीं कर सकती जो शारीरिक रूप से अक्षम है.’
अशक्त व्यक्तियों के प्रति यह मानवीय दृष्टिकोण स्वागत योग्य है. ताजा आंकड़े बताते हैं कि अपने यहां आठ श्रेणियों के ऐसे अशक्त लोगों की आबादी 2.68 करोड़ पार चुकी है. चिंता का विषय यह है कि पिछले दस वर्षो में ऐसे लोगों की आबादी में करीब 49 लाख का इजाफा हुआ है अर्थात दशकीय वृद्धि दर 22 प्रतिशत रही है जो आबादी बढ़ने की रफ्तार से करीब छह प्रतिशत अधिक है.
स्वाभाविक तौर पर अशक्त लोगों के अधिकारों और उनके प्रति मानवीय दृष्टिकोण रखते हुए उन्हें देश की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए नीतियों और रीतियों की आवश्यकता है. भारत में अब तक विकलांगता को चिकित्सकीय मॉडल के संदर्भ में देखा समझा जाता रहा है अर्थात यह सोच विकलांगता को शारीरिक अथवा मानसिक हानि या क्षति के समकक्ष रख देती है लेकिन बदलते समय में उसके सामाजिक मॉडल पर जोर देने की आवश्यकता है. भारत ने संयुक्त राष्ट्र के राइट्स ऑफ पर्सन्स विद डिसेबिलिटीज (सीआरपीडी) कन्वेंशन में कही गई बातों को 2007 में अंगीकार किया. पूर्व में विकलांग व्यक्तियों के लिए बने अधिनियम 1955 को संयुक्त राष्ट्र द्वारा पारित कन्वेंशन, जिस पर मई 2008 में अमल शुरू हुआ के अनुरूप बदलने को कहा गया.
विकलांगों के अधिकारों की पैरवी करने वाला ‘संयुक्त राष्ट्र विकलांगता समझौता’ विश्वव्यापी मानवताधिकार समझौता है. यह समझौता विकलांगों को अपेक्षित मानवाधिकार ही नहीं देता बल्कि इस बात को भी स्पष्ट करता है कि उनके अधिकार वही हैं जो किसी सामान्य व्यक्ति के हैं. यह तमाम देशों की सरकारों को बताता है कि इनके मार्ग की बाधाओं को किस प्रकार दूर किया जाना चाहिए और किस प्रकार यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विकलांग लोगों को उनके अधिकार प्राप्त हों. कुछ समय पूर्व उच्चतम न्यायालय की एक जनहित याचिका के संदर्भ में, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश के जी बालकृष्णन, न्यायमूर्ति पी सदाशिवम और न्यायमूर्ति बीएस चौहान की पीठ के सामने इसका खुलासा हुआ था कि विकलांग व्यक्तियों के लाभ के लिए बने ट्रस्ट और उसमें एकत्रित राशि का सदुपयोग नहीं हुआ.
अदालत ने स्वीकारा कि न्यायालय के प्रगतिशील रुख एवं सरकार द्वारा की गई पहल के बावजूद विकलांग अधिनियम का अमल कतई संतोषजनक नहीं हैं. यूं तो राइट्स ऑफ पर्सन्स विद डिसेबिलिटीज बिल को दिसम्बर 2013 में मंत्रिमंडल की मंजूरी मिली परन्तु उसके पश्चात विभिन्न व्यवधानों के चलते वह कानूनी जामा नहीं पहन पाया. यह बिल इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है कि इसमें विकलांगजन की समानता, गरिमा और सम्मान के साथ जीवन व्यतीत कर सकने की बात कही गई है और विकलांगों को बराबरी के स्तर पर रहते हुए शिक्षा पाने का अधिकार सवरेपरि उल्लेखित है.
उल्लेखनीय है कि शिक्षा द्वारा ही व्यक्ति अपनी हर अक्षमताओं पर विजय प्राप्त कर सकता है और जब बात अशक्त बच्चों की हो तो यह कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है. मई 2013 में यूनिसेफ की वाषिर्क स्टेट ऑफ द वल्र्डस चिल्ड्रन रिपोर्ट के अनुसार विकलांग बच्चे को समविष्ट करना उनको और उनके समुदाय दोनों को लाभ दे सकता है. रिपोर्ट कहती है कि ‘जब आप विकलांगता को बच्चे से पहले देखते हैं तो यह बच्चे के लिए ही गलत नहीं बल्कि बच्चे को जो समाज पेश कर रहे हैं उसके लिए भी गलत है.’ यह बेहद दु:ख की बात है कि देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बावजूद अब भी सरकारी और गैर-सरकारी स्कूलों के मध्य इस बात को लेकर विवाद कायम है कि अशक्त बच्चों को शिक्षा तभी दे सकते हैं जब उन्हें कुछ जरूरी सुविधाएं मुहैया करवाई जाएं.
विशेष बच्चों को मुख्यधारा में शामिल करने की पहल एक जनहित याचिका से शुरू हुई. 16 सितम्बर 2009 को उच्च न्यायालय ने राजधानी के सभी सरकारी एवं स्थायी निकायों के स्कूलों में विशेष श्रेणी के इन बच्चों को उपयुक्त शिक्षा देने के लिए छह माह के भीतर कम से कम दो विशेष प्रशिक्षित शिक्षक नियुक्त करने को कहा लेकिन इन आदेशों की पालना नहीं हुई. नवम्बर 2011 में पहले दिल्ली सरकार और बाद में नगर निगम ने भी अपने स्कूलों के लिए, वर्तमान में एक-एक विशेष शिक्षक नियुक्त किये जाने की प्रक्रिया शुरू की थी.
संविधान के अनुसार 18 साल तक के विकलांग बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा मुहैया कराना सरकार का उत्तरदायित्व है. विशेष शिक्षकों की नियुक्ति एवं स्कूल विकलांग बच्चों की सुविधा के अनुसार नहीं बनाने वाले स्कूलों की मान्यता समाप्त करने की बात कहकर उच्च न्यायालय ने सरकार के कंधे पर दोहरी जिम्मेदारी रख दी. पहले से ही अपने स्कूलों में विशेष शिक्षकों की नियुक्ति में तीन साल की देरी कर चुकी सरकार के लिए निजी स्कूलों में इस आदेश को लागू कराना खास चुनौतीपूर्ण होगा.
स्वावलंबी बनने हेतु शिक्षा प्रथम पायदान है क्योंकि बिना अक्षर ज्ञान के जीवन की विकटताएं और बढ़ जाती हैं और इसीलिए ‘सर्वशिक्षा अभियान’ जैसी योजनाओं के माध्यम से समस्त भारत को शिक्षित करने का प्रयास किया जा रहा है. देश का प्रत्येक बच्चा, भावी निर्माणकत्र्ता है फिर चाहे वह किसी भी प्रकार की विकलांगता का शिकार क्यों न हो. विशेष बच्चों को भी आम बच्चों की तरह शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार है पर क्या इन बच्चों के लिए रास्ते उतने ही सहज हैं जितने आम बच्चों के लिए होते हैं?
उच्च न्यायालय ने अशक्त बच्चों की शिक्षा को लेकर कठोरता बरतते हुए दिल्ली सरकार को निर्देश दिया कि शिक्षा निदेशालय के प्रमुख सचिव की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया जाए. यह कमेटी सभी सरकारी या प्राइवेट शिक्षा संस्थानों में अशक्त बच्चों के दाखिले सुनिश्चित करने के लिए उनकी सूची बनाए.
शिक्षा और रोजगार अशक्तता से लड़ने के महत्वपूर्ण शस्त्र है परन्तु जहां शिक्षा का पाया इतना कमजोर है वहीं रोजगार के परिप्रेक्ष्य में आंकड़े बताते हैं कि कुल विकलांग आबादी का मात्र एक प्रतिशत ही रोजगार से जुड़ा हुआ है. ऐसी स्थिति में कल्पना करना स्वाभाविक है कि रोजगार की अनुपलब्धता उन्हें न केवल अपने परिजनों पर निर्भर बनाती है बल्कि उनके आत्मबल को भी तोड़ती है. विकलांगों को रोजगार देने के क्षेत्र में कुछ संस्थाओं की पहल पर विकलांग लोगों को स्किल ट्रेनिंग देकर रिटेल क्षेत्र में नौकरी के लायक बनाया जाता है.
फिलहाल करीब चालीस कम्पनियां विकलांग लोगों को नौकरियां दे रही हैं. गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा ऐसी पहल, विकलांगों के लिए एक ऐसी दुनिया निर्मित कर सकती है जहां वह स्वाभिमान के साथ अपना जीवनयापन कर सकें. हमे स्वयं समझना होगा कि अशक्त-जन, देश की मुख्यधारा का ही हिस्सा हैं. उन्हें सहयोग और सानिध्य की आवश्यकता है न कि दया की.
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