कागजों तक सिमटा शिक्षा का अधिकार

Last Updated 21 Apr 2014 04:56:46 AM IST

यह चुनाव का समय है. हर दल तथा नेता अपनी उपलब्धियां गिनाता है और सपने दिखाता है.


कागजों तक सिमटा शिक्षा का अधिकार

कितने ही सपने सपने ही बने रहते हैं मगर उन्हें परोसने वाले बिना हिचक हर चुनाव में उन्हें दोहराते रहते हैं, जैसे गरीबी हटाओ का नारा आज भी है, कल भी था, कल भी चलेगा. कक्षा आठ तक सभी को निशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा देने का निर्देश संविधान में निहित था- लक्ष्य दस वर्ष के अंदर पूरा करना था. एक अप्रैल, 2010 को शिक्षा का अधिकार अधिनियम \'आरटीई\' लागू किया गया था- लक्ष्य को तीन वर्ष में पूरा करना था. एक अप्रैल, 2014 को चार वर्ष पूरे हो जाएंगे. मोटे तौर पर सभी जानते हैं कि आज भी 90 फीसद से अधिक सरकारी स्कूल उन मानकों पर खरे नहीं उतरते जिन्हें सरकार ने अधिनियम में शामिल किया है. केवल एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा. उत्तर प्रदेश में 1.10 लाख स्कूलों में 4.86 लाख अध्यापक चाहिए. लेकिन अभी केवल 1.77 लाख शिक्षक पदस्थ हैं. हालांकि राज्य सरकार के अनुसार, सभी कुछ ठीक चल रहा है.

इस समय देश में औसतन 70 प्रतिशत स्कूल सरकारी है तथा 28-30 प्रतिशत प्राइवेट है जो पब्लिक स्कूलों के नाम से जाने जाते हैं. ग्रामीण इलाकों में सरकारी स्कूलों का प्रतिशत औसत से काफी अधिक है. जब भी बच्चों की शैक्षिक उपलब्धियों का आंकलन होता है- परिणाम अत्यंत निराशाजनक ही आते हैं. जो लोग शिक्षा व्यवस्था की \'असलियत तथा जमीनी स्थिति\' से वाकिफ हैं उन्हें इन सव्रेक्षणों तथा आंकलनों से कोई आश्चर्य नहीं होता है. सभी कुछ अपेक्षित ही लगता है. तीन वर्ष तक स्कूल जाने के बाद 60 प्रतिशत बच्चे यदि अपना नाम पढ़ नहीं पाते हैं या लिख नहीं पाते हैं तब शिक्षा का अधिकार अधिनियम का उनके लिए या समाज के लिए क्या अर्थ रह जाता है? आज कक्षा एक में नामांकित बच्चों में से केवल 50 प्रतिशत ही कक्षा दस तक पहुंच पाते हैं. इनकी भी एक अलग कहानी है. कक्षा आठ तक कोई परीक्षा नहीं, कक्षा दस और बारह में नकल करने की \'सशुल्क\' व्यवस्था. इनमें आठ करोड़ वह बच्चे भी जोड़ लें जो कक्षा आठ के पहले स्कूल से चले जाते हैं तथा दो-तीन साल में लगभग निरक्षरों की श्रेणी में पहुंच जाते हैं. केवल उत्तर प्रदेश में 42 हजार स्कूलों में एक शिक्षक तैनात है और 62 हजार में केवल दो अध्यापक. इनमें अधिकांश शिक्षाकर्मी हैं जो अनिश्चित भविष्य की आशंका में लगातार परेशान रहते हैं.

प्रारंभिक शिक्षा को मूल अधिकारों में शामिल करने के लिए संविधान संशोधन 2002 में हुआ. आरटीई अधिनियम 2009 में संसद से पारित हुआ, इसे एक अप्रैल, 2010 से पूरी तरह लागू होना था. सभी जानते थे कि ऐसा हो नहीं पाएगा क्योंकि न तो व्यवस्था में आवश्यक परिवर्तन किए गए और न ही ऐसे वातावरण का  निर्माण किया गया जिससे देश के सारे अध्यापकों तथा समाज के सभी लोगों को लगता कि वे एक महान कार्य में हिस्सेदार बनने जा रहे हैं.

स्कूलों तथा अध्यापकों ने इसे \'एक और सरकारी आदेश\' भर माना तथा अधिनियम का \'सामान्यीकरण\' कर दिया. साधनों, संसाधनों की कमी उसी स्तर पर बनी रही. हां, कमरे बनवाने, फर्नीचर खरीदने आदि पर धन खर्च हुआ और व्यवस्था के कर्णधारों की रुचि उसमें बनी रही. यह संदेश लोगों तक भी गया और उनकी अन्यमनस्कता भी बढ़ी. इस अधिनियम को संसद में सर्वसम्मति से पास किया था मगर जब क्रियान्वयन की स्थिति आई तब अनेक राज्य सरकारों ने केंद्र सरकार को स्पष्ट कहा कि उनके पास आवश्यक धनराशि उपलब्ध नहीं है. यदि राज्य सरकारें सतर्क होतीं और उनकी प्रतिबद्धता हर बच्चे को अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा देने की होती तो तैयारी अधिनियम के 2009 में संसद में स्वीकृत होने के साथ ही तेजी से शुरू हो जाती. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. सर्वशिक्षा अभियान जब लागू किया गया था तब \'अभियान\' यानी मिशन शब्द के उपयोग पर काफी चर्चा हुई थी- क्या सरकारें \'मिशन मोड\' में कार्य करने में सक्षम है? सरकार कोई भी हो, वह तो उत्तर \'हां\' में ही देगी. इसी कारण आज भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय में अनेक \'मिशन\' चल रहे हैं. लोग इन्हें केवल सरकारी कार्यक्रम या योजना ही मानते हैं. शिक्षा अधिकार अधिनियम के क्रियान्वयन के घोर शिथिलीकरण का यह भी एक महत्वपूर्ण कारक है.

लोगों में यह विचार बड़ी तेजी से स्वीकार्य होने लगा है कि सरकारी तंत्र तथा उससे जुड़े लोग चाहते ही नहीं है कि संविधान में निहित बराबरी तथा समानता का अधिकार समाज के हर वर्ग को मिले. नीति-निर्धारकों से लेकर क्रियान्वयन के अंतिम छोर तक व्यवस्था के अंग बने लोग और समाज का साधन संपन्न वर्ग  अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर पूरी तरह संतुष्ट है. इनमें केवल कुछ प्रतिशत के बच्चे ही सरकारी स्कूलों में पढ़ते होंगे. बाकी सभी के लिए पब्लिक यानी प्राइवेट स्कूल व्यवस्था है, अंग्रेजी माध्यम है; देश में ही नहीं, विदेश जाने के रास्ते खुले हैं. जब समाज में संचालन, निर्धारण, क्रियान्वयन वर्ग विशेष के हाथ में सिमट  जाता है तब वे अन्य की चिंता क्यों करें? ऐसा तो तभी संभव था जब स्वतंत्रता के बाद बनी हर सरकार गांधी के उस \'जंतर\' को याद रखती कि जब भी कोई नया प्रकल्प प्रारंभ करो, सबसे पहले यह सोचो कि \'पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति\' को उससे क्या लाभ मिल सकेगा- उनकी ऐसी अपेक्षा केवल सरकारों से नहीं, व्यक्तियों से भी थी.

\'बेसिक एजुकेशन\' या बुनियादी तालीम की संकल्पना और क्रियान्वयन हर व्यक्ति को शिक्षा देने का तथा साथ में कौशल सिखाने का वह चिंतन था जिसमें लक्ष्य वही थे जो शिक्षा अधिकार अधिनियम में निहित हैं. फर्क यह है कि बेसिक एजुकेशन/बुनियादी तालीम, समान स्कूल व्यवस्था तथा पड़ोस का स्कूल जैसी अवधारणाओं के किनारे कर 1947 के बाद भी शिक्षा व्यवस्था का प्रारूप जैसे का तैसा बरकरार रखा गया. समाज के जो वर्ग सर्वाधिक वंचित थे उन्हें रोटी, कपड़ा, मकान के साथ यदि एक अच्छा स्कूल मिल जाता तो उनका जीवन स्तर स्वत: ही ऊपर उठ जाता. आज अल्पसंख्यक समुदाय यानी मुस्लिम समाज को लेकर अनेक प्रकार की अवधारणाएं उनकी कमजोर आर्थिक और शैक्षिक स्थिति को लेकर सामने आती हैं. आज इस वर्ग की स्थिति केवल अशिक्षा, बेरोजगारी के तत्वों से ही प्रभावित है. यदि मुस्लिम बहुल, अनुसूचित जाति/जनजाति बहुल क्षेत्रों में \'चलने वाले स्कूल, पढ़ाने वाले अध्यापक तथा आवश्यक संसाधन\' 50-60 वर्ष पहले मिलते तो आर्थिक दृष्टि से संपन्नता अवश्य आती, समाज का दृष्टिकोण बदलता और देश की प्रगति की गति बदलती.

शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई) में भी इस सबको दोहराने की जरूरत पड़ी है. किसी को भी विास नहीं है कि अगले चार-छह साल में भी \'आरटीई\'पूरी तरह लागू हो पाएगा. वादों पर सरकारें खरी नहीं उतरती हैं और वे इसकी चिंता भी नहीं करती हैं. इस चुनाव में भी जीडीपी का छह प्रतिशतशिक्षा को आवंटित करने का वादा किया गया है. अभी यह चार प्रतिशत से भी कम रहता है. जब तक नीति-निर्धारक यह समझ नहीं रखते हैं किशिक्षा में उचित निवेश न करने के कारण देश को कितनी बड़ी हानि हो रही है तब तक बड़ा यानी आमूलचूल परिवर्तन असंभव ही है. भारत औरभारतीयों की समावेशी प्रगति की अवधारणा के सफल होने का रास्ता जब गांवों के सरकारी स्कूलों के दरवाजे से होकर गुजरेगा तब भारत दुनिया की निगाहों में अपनी श्रेष्ठता स्थापित कर सकेगा.

(लेखक शिक्षाविद हैं और एनसीईआरटी के निदेशक रहे हैं)

जगमोहन सिंह राजपूत
लेखक


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