किस दल को है पर्यावरण की चिंता!
आज पर्यावरण क्षरण का सवाल समूचे वि के लिए गंभीर चिंता का विषय है.
पर्यावरण की चिंता किसी दल को नहीं |
हमारे देश में सरकारें इस बारे में ढिंढोरा तो बहुत पीटती हैं लेकिन इस सवाल पर वे कभी गंभीर नहीं रहतीं. इसका जीता-जागता सबूत है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में देश के राजनीतिक दलों के लिए पर्यावरण का मुद्दा कोई अहमियत नहीं रखता. दुख इस बात का है कि आजादी के बाद से आज तक किसी भी राजनीतिक दल ने पर्यावरण को चुनावी मुद्दा बनाया ही नहीं. सवाल उठता है ऐसा पार्टियों ने क्यों किया? कारण बिल्कुल साफ है कि यह मुद्दा चुनावों में उनकी जीत का आधार नहीं बनता. इससे उनका वोट बैंक मजबूत नहीं होता. उस हालत में वह इसे क्यों अहमियत दें. उनकी नजर में यह बेकार का सवाल है. जबकि यह कटु सत्य है कि पर्यावरण का जीवन के साथ अमिट संबंध है. इसके बिना जीवन असंभव है.
दुनिया के वैज्ञानिकों और जीव विज्ञानियों का एकमुश्त मानना है कि अब समय की मांग है जिसके चलते दुनिया को पर्यावरण की रक्षा के लिए तुरंत जरूरी कदम उठाने होंगे. हमें आर्थिक लाभ से परे उठकर अपने दिमाग और दिल को जीवन के मूल्य और सिद्धांतों से जोड़कर इसको न केवल देखना होगा, बल्कि पर्यावरण की रक्षा के उच्च आदर्शों का भी पालन करना होगा, तभी कामयाबी मिल सकेगी. देश के राजनीतिक दल भले आज इस पर ध्यान न दें लेकिन इस सचाई को नकारा नहीं जा सकता और हालात भी इस बात के सबूत हैं कि मानवीय स्वार्थ के चलते हुए तापमान में बदलाव का दुष्परिणाम जहां सूखा, ग्लेशियरों के पिघलने, खाद्य संकट, पानी की कमी, फसलों की बर्बादी, मलेरिया, संक्रामक रोगों और यौन रोगों में वृद्धि के रूप में सामने आया है, वहीं इसकी मार से क्या शहर, क्या गांव, क्या धनाढ्य, क्या गरीब, हरी-उच्च-निम्न वर्ग या प्राकृतिक संसाधनों पर सदियों से आश्रित आदिवासी-कमजोर वर्ग कोई भी नहीं बचेगा और बिजली-पानी के लिए त्राहि-त्राहि करते लोग जानलेवा बीमारियों के शिकार होकर मौत के मुंह में जाने को विवश होंगे.
दुनिया के वैज्ञानिकों ने भी इसकी पुष्टि कर दी है. असल में तापमान में वृद्धि पर्यावरण प्रदूषण का ही परिणाम है. देश ने आजादी मिलने के बाद चहुंमुखी प्रगति की है, उसके बावजूद गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, लिंगभेद, जातिभेद, गैरबराबरी और सांप्रदायिक विद्वेष मिटाने में हम नाकाम रहे हैं. देश के दिशानायकों ने आजादी के बाद तेज विकास को ही सबसे बड़ी जरूरत माना. वह हुआ भी लेकिन उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी. इससे सबसे बड़ा नुकसान हमारे जीवन के आधार पर्यावरण का हुआ जिसे मानवीय स्वार्थ ने विनाश के कगार पर पहुंचा दिया है.
प्राचीन काल से हमारे जीवन में परंपराओं-मान्यताओं का बहुत महत्व है. हमारे पूर्वजों ने धर्म के माध्यम से पर्यावरण चेतना को जिस प्रकार हमारे जन-जीवन में बांधा, उसे संरक्षण प्रदान किया, वह उनकी गहन व व्यापक दृष्टि का परिचायक है. हमारी संस्कृति वन प्रधान रही है. उपनिषदों की रचना वनों से ही हुई. हिमालय, उसकी कंदराएं योगी-मुनियों की तपस्थली रहे जहां उन्होंने गहन साधना कर न केवल जीवन दर्शन के महत्व को बतलाया, बल्कि यह भी कि वन हमारे जीवन की आत्मा हैं. वृक्ष पूजन की परंपरा पर्यावरण संरक्षण का ही तो प्रयास है. वट, पीपल, खेजड़ी, तुलसी आदि की उपादेयता-उपयोगिता इसका जीवंत प्रमाण है. देव पूजन में तुलसी पत्र का उपयोग आवश्यक कर उसको प्रतिष्ठा प्रदान करना पर्यावरण को स्वच्छ एवं सुभाषित रखने के उद्देश्य से प्रेरित एवं सौंदर्यबोध का परिचायक है.
वनस्पति की महत्ता को आदिकाल से पर्यावरण चेतना के अभिन्न अंश के रूप में प्रमुखता दी गई है. जीवों को हमने देवी-देवताओं के वाहन के रूप में स्वीकार किया है. इनकी महत्ता न केवल पूजा-अर्चना में बल्कि पर्यावरण संतुलन में भी अहम है. जल देवता के रूप में प्रतिष्ठित और नदियां देवी के रूप में पूजनीय हैं. इनको यथासंभव शुद्ध रखने की मान्यता और परंपरा है. पूर्व में लोग आसमान देखकर आने वाले मौसम, भूमि को देख भूजल स्रोत और पक्षी, मिट्टी एवं वनस्पति के अवलोकन मात्र से भूगर्भीय स्थिति और वहां मौजूद पदाथरे के बारे में बता दिया करते थे. यह सब उनकी पर्यावरणीय चेतना के कारण संभव था. यह प्रमाण है कि पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता हमारी परंपराओं-मान्यताओं का अभिन्न अंग था. लेकिन आज हम उससे कोसों दूर हैं.
आज विकास का परिणाम पर्यावरण विनाश के रूप में हम सबके सामने है. विकास के दुष्परिणाम के रूप में जंगल वीरान हुए, हरी-भरी पहाड़ियां सूखी-नंगी हो गई, जंगलों पर आश्रित आदिवासी रोजी-रोटी की खातिर शहरों-महानगरों की ओर पलायन करने लगे, पारिस्थितिकी तंत्र गड़बड़ा गया, वन्यजीव विलुप्ति के कगार पर पहुंच गए और जीवनदायिनी नदियां प्रदूषित हो गईं. हमने यह कभी नहीं सोचा कि हम नदियों को सहेजें तो वे हमें सहेजेंगी. यदि वे विलुप्त हो गई तो इतिहास के साथ हमारा आने वाला कल भी समाप्त हो जाएगा. देखा जाए तो पिछले करीब 40-50 बरस से डीजल और बिजली के शक्तिशाली पंपों के सहारे कृषि, होटल उद्योग और नगरीय जरूरतों की पूर्ति की खातिर अत्यधिक जल का दोहन, औद्योगिक प्रतिष्ठानों से निकले विषैले सायनयुक्त अपशेष-कचरे, उर्वरकों-कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग से पानी के अक्षय भंडार माने जाने वाले भूजल स्रोत के संचित भंडार अब सूखने लगे हैं.
भूजल स्तर दिनोंदिन तेजी से नीचे गिरता जा रहा है. वह 50 फीसद प्रदूषित होकर पीने लायक नहीं बचा है. जलवायु में बदलाव के चलते सदानीरा गंगा और अन्य नदियों के आधार भागीरथी बेसिन के प्रमुख ग्लेशियरों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं. अब तो हिमाच्छादित क्षेत्रों में जलवायु में हलचल बढ़ने से हजारों-लाखों बरसों से जमी बर्फीली परत तक पिघलने लगी है. यदि यही स्थिति रही तो अगले 50 बरसों में गोमुख ग्लेशियर समाप्ति के कगार पर पहुंच जाएगा. इसका दुष्परिणाम नदियों के थमने के रूप में सामने आएगा. यह सबसे खतरनाक स्थिति होगी.
धरती को बचाने के लिए हरियाली बेहद जरूरी है जो मानवीय स्वार्थ के चलते दिनोंदिन खत्म होती जा रही है. वन क्षेत्र घट रहा है. देश का एक भी मैदानी क्षेत्र ऐसा नहीं है जो 33 फीसद वन क्षेत्र के मानक पर खरा उतरता हो. वनों के क्षेत्रफल में कमी के साथ उनकी गुणवत्ता भी बुरी तरह प्रभावित हुई है. सरकारों का ध्यान आर्थिक विकास पर ही केंद्रित है, उनकी प्राथमिकता सूची में न तो जंगल हैं और न ही नदी है. आज भीषण सूखा पड़ रहा है, सतह के ऊपर के तापमान में हुई खतरनाक बढ़ोतरी से वाष्पीकरण की दर तेज हुई है, नतीजतन कृषि भूमि सिकुड़ती जा रही है और खेत मरुस्थल में तब्दील होते जा रहे हैं. बारिश की दर में खतरनाक गिरावट और मानसून की बिगड़ी चाल के चलते देश कहीं सूखे और कहीं बाढ़ के भयावह संकट से जूझ रहा है. सच तो यह है कि देश में आज पर्यटन विकास के नाम पर पर्यावरण की अनदेखी हो रही है. पर्यावरण के मुद्दे को रोजगार से नहीं जोड़ा जा रहा है. यदि हम समय रहते कुछ कर पाने में नाकाम रहे तो वह दिन दूर नहीं जब इंसान, जीव-जंतु और प्राकृतिक धरोहरों तक का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा.
| Tweet |