किसने बनाई दुर्जेय छवि!

Last Updated 20 Apr 2014 01:39:56 AM IST

अगर किसी एक खबरिया चैनल के प्राइम टाइम की कुल बाइटों का हिसाब लगाने की कोशिश करें तो हम शायद कह सकते हैं कि सबसे ज्यादा बाइटें मोदी ने ही बनाई होंगी.


सुधीश पचौरी, लेखक

वे हर अनुरोध में, हर विरोध में और  हर आपत्ति तक में छाए हैं. अगर उनकी आलोचना की जाती है तो भी उनकी ‘जगह’ बनती है और अगर उनकी तीखी निंदा की जाती है तो भी उनकी ‘जगह’  बनती है. वे किसी रैली में बोलते हैं तो उनके भाषण का लाइव कवरेज होता है. स्तुति हो या निंदा, वे हर हाल में मीडिया के फोकस में रहते हैं. अगर हम अखबारों को देखें तो वहां भी मोदी के कहे-किए की खबरें बड़ी जगह बनाती हैं और कई पन्नों पर बिखरी रहती हैं.

मोदी इन चार-पांच तरीकों से हर दिन हर समय खबरों में बने रहते हैं- पहला तरीका: मोदी की रैलियों के लंबे भाषण, कांग्रेस या अन्यों के लिए चुनिंदा कटाक्ष, बयान या इंटरव्यूज आदि. दूसरा तरीका: मोदी का विरोध करने वालों द्वारा किया जाता आलोचनात्मक जिक्र जैसे गुजरात के विकास मॉडल की आलोचना, 2002 दंगों के लिए जिम्मेदार बताना, अल्पसंख्यकों को पसंद न करने वाले के रूप में मोदी का वर्णन. तीसरा तरीका:

अमेरिका द्वारा वीजा मना करने की बातें, विभाजनकारी होने के आरोप, फासिस्ट की जीत के विरोध में चलाए जाते बुद्धिजीवियों कलाकारों के अभियान आदि. चौथा तरीका: एक कथित कमजोर निकम्मी और भ्रष्ट सरकार के विकल्प के रूप में एक मजबूत इरादे वाले, काम करके दिखाने वाले, निडर और चुनौती विहीन नेता के रूप में मोदी की छवि का सतत निर्माण. पांचवां तरीका: सोशल मीडिया में और विज्ञापनों में मोदी की ‘त्राणदाता’ छवि को बराबर स्थापित करते रहना, उसे हर समय फोकस में रखना, ‘दुर्जेय’ बनाए रखना और हर हाल में मोदी की अनिवार्यता को सिद्ध करना. ‘आपकी परेशानियों से निजात दिलाने वाला कोई है तो सिर्फ मोदी है’ की भावना को पुष्ट किए जाना.

कहने की जरूरत नहीं कि यह एक बेहद फैला हुआ और जटिल काम है जिसके लिए बड़े संसाधन और बड़ी सुलझी हुई संगठित मशीनरी चाहिए. मीडिया में मोदी-ब्रांड की ‘पोजीशनिंग’ बड़ी ही दिलचस्प और चकित करने वाली है. राजनीति में मोदी की जो पोजीशनिंग है वही मीडिया में है. पूरी तरह रणनीतिक और आक्रामक.

मोदी की इस ब्रांड को लगातार मैनेज करने का, साधने का, हमलों से बचाने का और मजबूत बनाकर आगे बढ़ाने का काम पिछले छह महीने से लगातार चलता नजर आता है. मोदी का ट्रीटमेंट मीडिया की भी रणनीति का एक हिस्सा है. मीडिया का मुहावरा कभी निराशावादी नहीं हो सकता. वह तो निराशा में भी अपने गाने बजाने से आनंद मनाने वाला, सबको ‘गो शापिंग’ कहने का काम करता है. हतोत्साहित उपभोक्ता उसके और बाजार के किसी काम का नहीं. समकालीन सिस्टम से मीडिया की निराशाएं मोदी की आशावादिता और उनकी आस्तियों में पनाह पाती नजर आती हैं.

जिस तरह एक नए ब्रांड का पंखा आपकी गरमी भगाने की गारंटी देता है, जिस तरह एक नया एसी आपके आवास की गरमी को कूल करने की गारंटी है, जिस तरह एक नई ब्रांड कार आपको परिवार समेत आराम से पिकनिक मनाने कहीं ले जाती है; मोदी की ब्रांड भी उसी तरह से आपके कष्टों का हरण करने वाली हो सकती है. मोदी की छवि की यह आस्ति मीडिया के अपने ‘सुखवादी’ मुहावरे के साथ मेल खाती है. मोदी मीडिया का एक ‘सुखदायक’ मुहावरा है जो कइयों के लिए ‘दुखदायक’ भी है.

मीडिया में और उसके बाहर मोदी की ताकत को बढ़ाने, उनके चाहने वालों की संख्या बढ़ाने के काम में स्वयं मोदी शायद उतने कामयाब नहीं  होते जितने कि उनके निंदकों ने उन्हें किया है. पब्लिक की नजर में अगर किसी का निंदक ही ‘निकम्मा’ है तो उसकी निंदा भी भोथरी हो जाती है. इकहरी, निर्विकल्प और निरंतर निंदा ने किस तरह से मोदी की छवि को आगे बढ़ाया है और किस तरह से मोदी की नित्य एक जैसी निंदा को जनता के उपभोग का विषय बनाकर ‘विचित्र स्तुति’ में बदल दिया गया है, यह देखते ही बनता है- मोदी दंगों के ‘अपराधी’ हैं, मोदी ‘हिंदुत्ववादी’ हैं, मोदी ‘विभाजनकारी’ हैं, मोदी आएंगे तो जनतंत्र को खत्म कर देंगे, फासिज्म आ जाएगा..आदि इत्यादि आरोप मोदी पर चिपकने की जगह किस तरह फिसलते गए हैं और किस तरह उनका विरोध करने वाले तत्व किनारे हुए हैं, यह स्वयं अचरज की बात है!

कथित सेकुलरों के अवसरवादी रवैये और कथित सांप्रदायिक के सातत्यवादी रवैए का जब भी आमना-सामना होगा तो कथित सांप्रदायिक सातत्य ही ताकत बटोरेगा. मीडिया के अब तक के विमर्शों में सेकुलरों का अपने आपको हर हाल में सही मानने का अहंकार और अवसरवाद  इस विमर्श से बाहर रहने वाली विराट जनता का दिल जीतने में नाकाम रहा है. मोदी की रैलियों में आने वाली भीड़, उनके एक-एक कटाक्ष पर ताली मारने वाले हजारों युवा अचानक बीजेपी के नहीं हो गए. उनकी मौजूदा हताशाएं, उनकी आगे बढ़ने की कामनाएं उन्हें उधर ही ले जा सकती हैं जहां से कुछ ‘आस्ति’ मिलती हो, भले वह झूठी हो!

मोदी उन्मादी हैं, वे भीड़ जुटाते हैं, वे ताकत की भाषा में बोलते हैं, वे बदलाखोर हैं..आदि ‘आरोप’ उलटे यही सिद्ध करते चलते हैं कि कुछ भी हो, बंदा कुछ तो करता है, कुछ तो करेगा; ये निकम्मे तो कुछ भी नहीं कर सकते!

पिछले दो साल से मीडिया द्वारा बनाए जाते दैनिक राजनीतिक विमर्शों ने वर्तमान सरकार को ‘एक अक्रिय’ और ‘एक निकम्मी’ सरकार की छवि दी है. इसके विकल्प में अगर कोई ‘सक्रिय’ नजर आता है तो इस वक्त उसके ‘जोखिम’ की परवाह किसे है? ‘मरता क्या न करता’ की स्थिति में जनता क्या करे? आप विकल्पहीन हैं तो जो भी जैसा भी विकल्प है, वही सही. मीडिया ने पब्लिक की आम सोच को यहीं लाकर स्थिर किया है. मोदी इसी का लाभ उठा रहे हैं. इसीलिए लाख निंदाओं के बावजूद उनकी छवि दुर्जेय-सी बन चली है.



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