चलन से बाहर होने वाला सिक्का

Last Updated 20 Apr 2014 01:19:23 AM IST

अपनी-अपनी उग्रताओं, आक्रामकताओं और नफरत फैलाने वाली वाक्यावलियों को राजनीतिक संरक्षण प्रदान करने की प्रक्रिया केवल उत्तरप्रदेश में ही चल रही हो, ऐसा नहीं है.


विभांशु दिव्याल, लेखक

उत्तर प्रदेश में चुनाव आयोग ने भड़काऊ भाषण देने और दो समुदायों के बीच वैमनस्य पैदा करने संबंधी आपराधिक धाराओं के अंतर्गत दो धुर विरोधी खेमों के दो स्टार प्रचारकों को प्रचार सभा आदि करने से प्रतिबंधित कर दिया- अमित शाह और आजम खान को. चुनाव आयोग का नजरिया चाहे जो रहा हो लेकिन इन दोनों नेताओं की अपनी पार्टियों ने बिना किसी लाग लपेट के अपने-अपने नेता को निर्दोष करार दिया. दोनों पार्टियों में से किसी ने भी नहीं माना कि उसके नेता ने कोई सांप्रदायिक बयान दिया है या कोई गलत बयान दिया है. दोनों ने ही अपने प्रतिपक्षियों को दोषारोपित करते हुए सीधे चुनाव आयोग के विवेक पर ही सवाल खड़े कर दिए.

भले ही तटस्थ सोच वालों को दोनों नेताओं के बयानों में दो समुदायों के बीच नफरत को बढ़ावा देकर वोटों को अपने-अपने पक्ष में ध्रुवीकृत करने की स्पष्ट कोशिश दिखी हो और अपनी इस दृष्टि के तहत उन्हें चुनाव आयोग का कदम भी पूरी तरह सही लगा हो, मगर जिन पार्टियों के इन दो बड़े नेताओं को आरोपित किया गया है उनकी राजनीतिक मजबूरी है कि वे अपने नेताओं पर लगे आरोपों को पूरी ढिठाई के साथ नकारें और आरोपों को आरोप न मानकर उनके प्रति ज्यादती बताएं. यानी ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रूप से जारी रखें, फिर इसके सामाजिक परिणाम चाहे जो हों.

अपनी-अपनी उग्रताओं, आक्रामकताओं और नफरत फैलाने वाली वाक्यावलियों को राजनीतिक संरक्षण प्रदान करने की प्रक्रिया केवल उत्तरप्रदेश में ही चल रही हो, ऐसा नहीं है. यह प्रक्रिया किसी न किसी रूप में पूरे देश में जारी है. विशुद्ध रूप से सांप्रदायिक मानसिकता वाले तत्व ऐसी प्रक्रिया में भागीदारी करें तो बात समझ में आती है लेकिन विडंबना यह है कि कथित धर्मनिरपेक्षतावादी राजनीतिक ताकतें इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं. पिछले दो दशकों पर नजर डालें तो उन घटनाओं को जो तमाम तरह के राजनीतिक स्वार्थो को साधने के चलते डरावनी सांप्रदायिक हिंसा की प्रतीक बनीं और जिन्हें सद्भावी भविष्य की खातिर इतिहास के कूड़ेदान में डाल दिया जाना चाहिए था, जीवित रखने का काम जितना कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों ने किया है उतना अन्य ने नहीं.

अगर इन दलों को सचमुच इस बहुलतावादी भारतीय समाज को सांप्रदायिकताविहीन बनाने की चिंता होती तो वे चाहे इसकी सांप्रदायिकता हो या उसकी, इसको मिटाने के लिए सामाजिक स्तर पर काम करते, पुलिस-प्रशासन को निरपेक्षता से काम करने देने की व्यवस्थाएं तैयार करते, बिना किसी जाति-धर्म के भेद के किसी की भी आपराधिकता को दंडित करने के लिए सचेत रहते और अपने छाते तले ऐसी जमातों को नहीं पनपने देते जो आदतन सांप्रदायिक विद्वेष के विष बीज बोती चलती हैं. यह याद रखा जाना चाहिए कि एक तरह की सांप्रदायिकता की तरफदारी हमेशा दूसरी तरह की सांप्रदायिकता को बढ़ावा देती है.

यह विडंबना है कि धर्मनिरपेक्ष दलों ने सांप्रदायिकता को राजनीतिक सिक्का बना लिया है. वर्तमान परिदृश्य का अवलोकन करें तो इन दलों के लिए सबसे बड़ी सांप्रदायिक पार्टी भाजपा है जो मोदी के नेतृत्व में बहुत ज्यादा सांप्रदायिक हो गई है. यानी इस समय समूची सांप्रदायिकता सिर्फ मोदी के पीछे चलती भाजपा में निहित है और समूची धर्मनिरपेक्षता भाजपा के विरुद्ध मुसलमानों को अपने साथ कर लेने में निहित है. याद रखिए, मुसलमानों का साथ देने में नहीं, बल्कि उनको अपने साथ लेने में यानी चुनाव के दौरान ज्यादा से ज्यादा मुसलमान वोट अपने पक्ष में जुटा लेने में, यानी देश के मुसलमान में मोदी के प्रति जो आम गुस्सा है, उसे अपने तई भुना लेने में.

अगर ऐसा नहीं होता और कथित धर्मनिरपेक्ष दलों के लिए एक सांप्रदायिक ताकत को पराजित करना ही बड़ा मुद्दा होता तो उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में सभी धर्मनिरपेक्ष दल यानी कांग्रेस, बसपा, सपा आदि अपने-अपने निहित स्वार्थो को परे रख एकजुट हो जाते और भाजपा को आसानी से पराजित कर देते. लेकिन नहीं, इन्हें सांप्रदायिकता को पराजित नहीं करना बल्कि इस सांप्रदायिकता को ज्यादा से ज्यादा भयावह बताकर ज्यादा से ज्यादा मुसलमान मतदाताओं को अपने पक्ष में लाना है- सत्ता की खातिर. अब स्वयं मुस्लिम संगठन भी इन धर्मनिरपेक्ष दलों पर मुसलमानों का इस्तेमाल करने का आरोप खुलकर लगाने लगे हैं.

ये धर्मनिरपेक्ष दल मुसलमानों की शिकायतों से कुछ निकाल पा रहे हैं या नहीं, यह दीगर बात है लेकिन हैरानी की बात यह है कि वे इस समय दीवार पर लिखी जा रही इबारत को भी नहीं पढ़ रहे हैं. इस समय अगर कुछ दिमागी तौर पर दिवालिया हिंदू-मुसलमानों की बात छोड़ दी जाए तो न तो आम हिंदू सांप्रदायिक है और न आम मुसलमान. अगर उन्हें साफ-स्वच्छ प्रशासन मिले और ईमानदार राजनीति, तो वे न केवल शांति से बल्कि सहकार से भी रहना चाहते हैं.

अगर किसी ने इस तथ्य को अपने राजनीतिक इस्तेमाल के लिए चुना है तो वह भाजपा है. उसने अपने चुनावी अभियान से वे सारे भावनात्मक मुद्दे बाहर कर दिए हैं जिनसे हिंदू-मुसलमान झलकता हो. भाजपा का वह शीर्ष नेता जिसके प्रति सर्वाधिक धर्मनिरपेक्ष नफरत बहाई जा रही है, केवल समावेशी विकास की बात कर रहा है यानी ऐसे विकास की जिसमें न हिंदू बेहतर है न मुसलमान कमतर.

इसके चलते ही मोदी ने बड़ी संख्या में ऐसे लोगों को, निश्चित तौर पर मुसलमानों को नहीं, जो अब तक धर्मनिरपेक्ष दलों के सहचर थे अपनी ओर आकषिर्त किया है. अगर कल को मोदी के हाथ में देश की बागडोर आ गई तो न तो देश में खून की नदियां बहेंगी, न मुसलमान दोयम दज्रे के नागरिक हो जाएंगे और न उनके विरुद्ध राजसत्ता सौतेला व्यवहार करेगी. इसलिए कि वह ऐसा कर ही नहीं पाएगी. उसे मुसलमानों की खातिर नहीं, स्वयं अपनी खातिर मुसलमानों के हितों का ध्यान रखना पड़ेगा. यह इस देश की संवैधानिक मांग होगी और लोक आकांक्षा भी.

अब कल्पना करिए कि मोदी राज में ऐसा होता है तो धर्मनिरपेक्ष दलों की जेब में पड़े सांप्रदायिकता के खोटे सिक्के का क्या होगा. किस बाजार में चलेगा यह?



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