अर्थशास्त्र की फैंटेसी है स्वस्थ प्रतियोगिता

Last Updated 20 Apr 2014 12:44:46 AM IST

द्वंद्व या टकराव भारतीय मूल्य नहीं है. भारतीय संस्कृति ‘सहमना और सहचित्त’ है. विचारभिन्नता ऋग्वैदिक काल से भी पुरानी है.


हृदयनारायण दीक्षित, लेखक

देवशक्तियां भी ढेर सारी हैं. भारत बहुलवादी राष्ट्र है लेकिन सारे विचारों का लक्ष्य लोकमंगल है. प्रसन्नमन समृद्ध राष्ट्र ही सार्वजनिक अभीप्सा है. भारतीय साम्यवादी राष्ट्र सर्वोपरिता से नहीं जुड़ सके. उन्होंने भारतीय संस्कृति के उदात्त तत्वों का भी विरोध किया. वे विचारधारा का भारतीयकरण नहीं कर सके. इसलिए वामपंथी यहां कालवाह्य हो गए हैं. वामपंथ का मुख्य बीज अर्थशास्त्र है.

भारतीय परंपरा में भी अर्थ की महत्ता है. अर्थ पुरुषार्थ है. राष्ट्रीय उत्पादन का समान वितरण उचित ही है. श्रम प्रतिष्ठा वैदिक काल से उच्चतम मूल्य है. वामविचार भी यही मानता है. अर्थ प्रवाह का नियमन जरूरी है. वरना अर्थ का अनर्थ हो जाता है. इच्छा अभिलाषा हरेक मनुष्य का स्वभाव है. नियमन इनका भी जरूरी है. भारतीय परंपरा में अर्थ और काम अभिलाषा इच्छा प्राप्त किए जाने योग्य है. इनका नकार नहीं स्वीकार है लेकिन नियमन के लिए धर्म की आचार संहिता है.

भौतिक जगत् में धर्म, अर्थ और काम तीनों की महत्ता है. पहला नियामक है. बाकी दोनों प्राप्त किए जाने योग्य उपलब्धियां हैं. यहां धर्म आस्था नहीं, आचार संहिता है. राजव्यवस्थाएं अर्थ और इच्छाओं का नियमन करती है. भारत में राजव्यवस्था के नियमन का सर्वोच्च निकाय संविधान है. संविधान और भारत के धर्म में कोई टकराव नहीं. यहां दर्शन का विकास पहले हुआ था. धर्म का विकास दार्शनिक तर्क-वितर्क के वातावरण में बाद में हुआ. संविधान का जन्म और विकास भी बहस से हुआ.

उस पर भी बहस जारी हैं. कोई जड़ता नहीं. धड़ाधड़ संशोधन हो रहे हैं. कोई भी समाज व्यवस्था परिपूर्ण नहीं होती. राजव्यवस्था भी नहीं. सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन जरूरी ही होते हैं. व्यक्ति समाज और राष्ट्र की इकाई है. समाज या राज में व्यक्ति की गरिमा-महिमा और रोजी-रोटी की गारंटी होनी चाहिए. ऐसी व्यवस्था प्राय: नहीं होती तो परिवर्तन के विचार आते हैं. ऐसी व्यवस्था होती भी है तो और गुणवान व्यवस्था बनाने या नई वैकल्पिक व्यवस्था के विचार आना भी स्वाभाविक है.

अर्थव्यवस्था के नियमन पर भी कई विचार हैं. उत्पादन प्रणाली पर राज्य का परिपूर्ण आधिपत्य एक विचार है. उत्पादन प्रणाली पर निजी क्षेत्र का मुक्त अधिकार दूसरा विचार है. पहले को साम्यवादी/समाजवादी कहा जाता है और दूसरे को पूंजीवादी. दोनों को मिलाकर एक तीसरा विचार भी चलता है- इसे पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप साझेदारी कहा जा रहा है. राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी पर क्रोनी कैपिटलिज्म को बढ़ाने का आरोप लगाया है. क्रोनी का अर्थ मित्रता या याराना होता है. राहुल के क्रोनी कैपिटलिज्म का अर्थ हुआ- पूंजीवाद से याराना. वे क्रोनी का अर्थ शायद अवैध रिश्ता करते हों.

पूंजीवाद या 1991 से जारी कांग्रेसी अर्थशास्त्र का मुख्य सिद्धांत है कि निजी क्षेत्र की स्वस्थ प्रतियोगिता में संपदा बढ़ती है और गरीबी घटती है. लेकिन कांग्रेसी राज में ऐसा नहीं हुआ. स्वस्थ प्रतियोगिता अर्थशास्त्र की फैंटेसी है. औद्योगिक घरानों व व्यापारियों में कभी स्वस्थ प्रतियोगिता नहीं देखी गई. विज्ञापन के सहारे बढ़ना स्वस्थ प्रतियोगिता नहीं. सरकार के सहारे बढ़ना तो रूग्ण प्रतियोगिता ही है. कांग्रेस 10 साला सरकार में घोटाले हुए. घोटाले के पीछे अस्वस्थ प्रतियोगिता थी. राहुल इसे ही क्रोनी कैपिटलिज्म कहे तो उचित होगा.

पूंजी निंदनीय नहीं होती. व्यवसायी भी नहीं. बेशक पूंजीवाद की अपनी बुराइयां हैं. ‘राष्ट्र सर्वोपरिता’ का सिद्धांत व्यापक है. राष्ट्रीय संपदा और राजकोष का सदुपयोग राष्ट्र संवर्धन के लिए ही होना चाहिए. बेशक निजी क्षेत्र का उद्देश्य लाभ होता है. निजी क्षेत्र के अनेक घराने कम या ज्यादा सामाजिक दायित्व भी निभाते हैं. राज्य व्यवस्थाएं उनकी क्षमता का प्रयोग राष्ट्रहित में कर सकती हैं. लेकिन राहुल की पार्टी ने उनका प्रयोग प्राय: दलहित में किया. घोटाले इसी का साक्ष्य हैं और चहुंतरफा विरोध इसी के प्रति जनआक्रोश. ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ का आरोप उन्हीं पर चस्पा है, वे अनावश्यक ही यह आरोप दूसरों पर लगा रहे हैं.



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