पूर्वोत्तर के आतंकियों पर नजर क्यों नहीं!

Last Updated 19 Apr 2014 12:27:35 AM IST

आम चुनाव में उत्तर-पूर्वी राज्यों की सीटों पर निगाहें तो सबकी लगी हैं लेकिन वहां के आतंकवाद व अलगावादी ताकतों पर कोई भी राष्ट्रीय दल खुलकर नहीं बोल रहा है.


पूर्वोत्तर के आतंकियों पर नजर क्यों नहीं!

प्रमुख दलों के घोषणा पत्रों में इस गंभीर समस्या का उल्लेख तक नहीं है. मुल्क में जब कभी आतंकवाद से निबटने का मुद्दा सामने आता है तो क्या आम लोग और क्या नेता और अफसरान- सभी पाकिस्तान विरोध के साथ कश्मीर की चिंता करने लगते हैं. लेकिन लंबे समय से यह बात नजरअंदाज की जाती रही है कि ‘सेवन सिस्टर्स’ कहने जाने वाले हमारे पूर्वोत्तर के राज्यों में अलगाववाद और आतंक कश्मीर से कहीं ज्यादा है और उससे सटी सीमा के देशों- म्यांमार, भूटान, नेपाल, बांग्लादेश ही नहीं, थाईलैंड, जापान तक में बैठक आतंकी संगठनों के आका देश विरोधी गतिविधियां चला रहे हैं. उत्तर-पूर्वी राज्यों में मणिपुर, असम, नगालैंड, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम में कोई पचीस उग्रवादी संगठन सक्रिय हैं. बीते बारह सालों के दौरान यहां कोई बीस हजार लोग मारे गए जिनमें चालीस फीसद सुरक्षा बलों के जवान हैं.

असम में उल्फा, एनडीबीएफ, केएलएनएलएफ और यूपीएसडी के लड़ाकों का बोलबाला है. माना जाता है कि अकेले उल्फा के पास अब भी 1600 लड़ाके हैं जिनके पास 200 एके राइफलें, 20आरपीजी और 400 दीगर किस्म के हथियार हैं. राजन दायमेरी के नेतृत्व वाले एनडीबीएफ के आतंकवादियों की संख्या 600 के करीब बतायी जाती है जो 50 एके तथा 100 अन्य किस्म की राइफलों से लैस हैं. नगालैंड में पिछले एक दशक के दौरान अलगाववाद के नाम पर डेढ़ हजार लोग मारे जा चुके हैं. वहां एनएससीएन के दो घटक- आईएम और खपलांग के बारे में कहा जाता है कि सरकार के साथ युद्ध विराम के नाम पर ये जनता से चौथ वसूलते हैं. इनके आका विदेश में रहते हैं और हथियारों से लैस इनके गुग्रे सरेआम घूमते रहते हैं. यहां तक कि राज्य सरकार का बनना और गिरना इन्हीं संगठनों के हाथों माना जाता है. यह बात वहां विधान सभा चुनाव के समय सामने आ भी चुकी है.

कांग्रेस प्रचार कर रही थी कि आईएम गुट के साथ जल्दी शांति-समझौता हो जाएगा, लेकिन सत्ताधारी नगा नेशनल फ्रंट आईएम गुट को विश्वास दिलाने में सफल रहा कि उनकी सरकार बनने पर उनके लिए राहत होगी. बांग्लादेश की सीमा से सटे त्रिपुरा में एनएलएफटी और एटीटीएफ नामक संगठनों की तूती बोलती है. रंजीत देब वर्मन द्वारा गठित आल त्रिपुरा टाइगर फोर्स के पास करीब 50 एक राइफलें व 200लड़ाके हैं तो नयबंसी जमातिया के संगठन नेशनल लिबरेशन फोर्स ऑफ त्रिपुरा के 150 उग्रवादी अत्याधुनिक हथियारों से लैस हैं. इन दोनों संगठनों के मुख्यालय, ट्रैनिंग कैंप और छिपने के ठिकाने बांग्लादेश में हैं. इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि इन संगठनों को उकसाने व मदद करने का काम हुजी व हरकत उल अंसार जैसे संगठन करते हैं.

मणिपुर में स्थानीय प्रशासन पर पीएलए, यूएनएलएफ और पीआरईपीएके जैसे संगठन हावी हैं. बाहरी लोगों की यहां खैर नहीं है. बीते दस सालों के दौरान यहां पांच हजार से ज्यादा लोग अलगाववाद का शिकार हो चुके हैं. नगा-कुकी तथा कुकी-जोमियो संघर्ष में सात सौ से ज्यादा जानें जा चुकी हैं. यहां सबसे ज्यादा ताकतवर संगठन यूनाईटेड नेशनलिस्ट लिबरेशन फ्रंट है जिसके करीब 1500 लोग हैं. दूसरे सबसे खतरनाक संगठन पीपुल लिबरेशन आर्मी में करीब चार सौ लोग हैं. मेघालय में एएनयूसी और एचएनएलएल नामक संगठन अलगाववाद के झंडाबरदार हैं. मिजोरम में एनपीसी और बीएनएलएफ राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग हैं. इसके अलावा असम को आधार बना कर कई गुमनाम संगठन भी अलगाववाद की रट लगाए हैं. इनमें से कई सीधे-सीधे पाकिस्तानी आईएसआई की पैदाइश बताये जाते हैं.

ऐसे कुछ संगठन हैं - डिमा हालिम डाओगा (डीएचडी), कार्बी लांग्री नेशनल लिबरेशन फ्रंट (केएलएनएलएफ),कार्बी नेशनल वलियंटर्स (केएनवी), बंगाली टाइगर फोर्स (बीटीएफ), आदिवासी टाइगर फोर्स (एटीएफ), आदिवासी नेशनल लिबरेशन आर्मी ऑफ असम (आनला), मुसलिम युनाइटेड लिबरेशन टाइगर्स ऑफ असम (मुल्टा) मुसलिम युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (मुल्फा),  युनाइटेड लिबरेशन मिलिशिया ऑफ असम (उल्मा) आदि. ये सभी संगठन उत्तर-पूर्व के अन्य राज्यों में सक्रिय संगठनों के नेटवर्क में रहते हैं और जरूरत पड़ने पर एक-दूसरे को हथियार व आदमियों की मदद करते हैं.

आंकडे गवाह हैं कि 2009 से 2011 के बीच इन राज्यों में क्रमश: 531, 237 और 114 आतंकवादी मारे गए, वहीं सन 2009 में 44 सुरक्षाकर्मी, 2010 में 28 और 2011 में 32 सुरक्षा बल के जवान शहीद हुए. इन सालों में मारे गए आम लोग क्रमश: 264, 94 और 70 हैं. यदि इन्ही सालों में कश्मीर के आंकड़े देखें तो 2009 में 71 आम लोग,  2010 में 47 और 2011 में 31 लोग मारे गए. जबकि सुरक्षा बलों की मौत के आंकडे क्रमश: 79, 69 और 33 हैं.  साफ है कि उत्तर-पूर्वी राज्यों में बहुत से संगठन सक्रिय हैं और वहां उग्रवाद कश्मीर से कहीं ज्यादा है. इसके बावजूद श्रीनगर में हथगोला फटने की खबर टीवी व अखबारों पर सचित्र दिखती है, जबकि उत्तर-पूर्व के गंभीर घटनाक्रम भी मुश्किल से जगह पाते हैं.

अनूप चेतिया और परेश बरुआ के मामले में सामने आ चुका है कि इन्होंने बैंकाक और ढाका में पांच सितारा होटल से लेकर जहाज कंपनी तक के व्यापार खोल रखे हैं. खुफिया एजेंसियों को कई साल पहले पता था कि बांग्लादेश का काक्स बाजार बंदरगाह हथियारों के सौदागरों का प्रमुख अड्डा बना है और वहां पहुंचने के लिए अंडमान सागर का इस्तेमाल किया जाता है. एक अमेरिकी खुफिया रपट बताती है कि गोल्डन ट्राईंगल से म्यामार के रास्ते हथियारों के बदले नशीली दवाओं के व्यापार पर भारत सरकार न जाने क्यों आंखे मूदे है. यह वही जगह है जहां से लिट्टे तक हथियारों की खेप पहुंचती थी.

जिस तरह उत्तर-पूर्वी राज्यों के उग्रवादी अत्याधुनिक हथियारों और गोला-बारूद से लैस रहते हैं, इससे साफ है कि कोई तो है जो दक्षिण-पूर्व एशिया में अवैध  हथियारों की खपत बनाए रखे है. बंदूक के बल पर लोकतंत्र को गुलाम बनाने वालों को हथियार की सप्लाई म्यांमार, थाईलैंड, भूटान, बांग्लादेश से हो रही है. मणिपुर, जहां सबसे ज्यादा उग्रवाद है, नशे की लत से बेहाल और उससे उपजे एड्स के लिए देश का सबसे खतरनाक राज्य कहा जाता है. यहां नारकोटिक्स व्यापार के बदले हथियार की खेप पर कड़ी नजर रखना जरूरी है. यह दुर्भाग्य है कि दिल्ली में बैठे लोग उत्तर-पूर्वी राज्यों के प्रति उपेक्षित नजरिया रखते हैं.

इसका एक उदाहरण कुछ समय पहले वहां के तीन राज्यों में संपन्न विधान सभा चुनाव कहे जा सकते हैं. वहां के चुनाव परिणाम आए तो दिल्ली के किसी भी हिंदी चैनल पर नतीजों की खबर गायब थी, कारण- उस दिन आम बजट आ रहा था. यह विडम्बना ही है कि हम उन कोई 200 विधान सभा सीटों के मतदाताओें की भावनाओं से तारतम्य स्थापित नहीं कर पाए हैं. बहरहाल, पूर्वोत्तर में अलगाववादी ताकतों पर काबू नहीं पाया गया तो देश को गंभीर परिणाम भुगतने होंगे.

पंकज चतुर्वेदी
लेखक


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