परदे के पीछे खेल और बेबस ’राजा‘

Last Updated 18 Apr 2014 12:19:39 AM IST

पत्रकार उन्हें पुस्तक बम कहने लगे हैं जो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर फेंके गए लेकिन जिनकी चपेट में कठिन परिस्थितियों में चुनाव लड़ रही कांग्रेस पार्टी भी आ चुकी है.


परदे के पीछे खेल और बेबस ’राजा‘

इन्हें बम इसलिए कहा गया क्योंकि इनमें जो मसाला है वह विस्फोटक है और सत्तारूढ़ दल की पहले से गिरी हुई साख को तार-तार करने की क्षमता रखता है. विरोधी नेताओं को कहने का मौका मिल गया कि हम तो पहले से कहते रहे हैं, अब तो उनके घर के ही आदमियों ने भेद खोल दिया है.

पहली पुस्तक संजय बारू ने लिखी है जो पांच साल तक प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार थे और दूसरी पुस्तक कोयला मंत्रालय में सचिव रहे पीसी पारख ने. दोनों का विषय अलग-अलग होने पर भी पाठक और मतदाता की नजर के सामने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी सरकार ही आते हैं. प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा पर गहरी चोट करने और प्रधानमंत्री पद के इस्तेमाल की तीखी आलोचना के बावजूद दोनों में से किसी भी लेखक ने व्यक्तिगत रूप से मनमोहन सिंह को गलत या भ्रष्ट राजनेता नहीं बताया है और न ही उनकी व्यक्तिगत विशेषताओं को नकारा है. संजय बारू तो मनमोहन सिंह के व्यापक दृष्टिकोण पर भी काफी कुछ लिख चुके हैं.

दोनों पुस्तकों के लेखकों का मानना है कि अगर मनमोहन सिंह को अपना काम करने दिया जाता तो वे बेहतर प्रधानमंत्री साबित होते. लेकिन लेखक जिन बातों को सामने लाये हैं, वे प्रशासन, अनुशासन, संवैधानिक व्यवस्था और प्रधानमंत्री पद की गरिमा पर प्रकाश डालती हैं और इस प्रकाश में यह भी प्रकाशित होता है कि मनमोहन सरकार किन हालात में चलती थी, कितनी बेबस थी, कितनी अप्रभावी और अकुशल थी.

यह भी साफ होता है कि जो बड़े घोटाले होते रहे, वे खुलेआम कैसे हुए और उनको रोकने का साहस किसी ने क्यों नहीं किया. बारू के अनुसार ‘शक्तिरहित उत्तरदायित्व और अधिकार से वंचित शासन की जिस घातक व्यवस्था को मनमोहन सिंह को सौंपा गया था, उसमें वे अपने मंत्रालयों में भ्रष्टाचार पनपता देखते हुए भी उसे रोकने में इसलिए असमर्थ थे कि कहीं वह राजनीतिक जुगाड़ टूट न जाए जिसके वे नाममात्र के मुखिया थे.’

संजय बारू ने विभिन्न संदर्भ में जिन घटनाओं का विस्तार से वर्णन किया है उनको संक्षेप में दो बातों में समेट लिया जा सकता है. एक यह कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर सोनिया गांधी हावी थीं और सभी महत्वपूर्ण फैसले दस जनपथ से ही होते थे. वे भी जिनको गोपनीय माना जाता है और जिनको गोपनीय रखने की शपथ विशेष रूप से प्रधानमंत्री को दिलाई जाती है. उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री को अपनी रुचि के मंत्री चुनने का अधिकार नहीं था. सबसे महत्वपूर्ण मंत्री के रूप में जिन प्रणब मुखर्जी को चुना गया, उनका नाम मनमोहन सिंह से पूछे बिना ही दस जनपथ पर तय हुआ था. यह भी तय हुआ कि उन्हें वित्त मंत्रालय दिया जाएगा.

इसी तरह टूजी घोटाले की जानकारी मिलते ही मनमोहन सिंह राजा को हटाना चाहते थे लेकिन दस जनपथ से उन्हें न छेड़ने का आदेश आया. दूसरी बात यह कि मनमोहन सिह मान चुके थे कि सरकार उनके कारण नहीं, पार्टी के कारण बनी है और उसकी मुखिया को ही वास्तविक शासन का जनादेश प्राप्त हुआ है. प्रधानमंत्री को उनके राजनीतिक विवेक के अनुसार ही काम करना चाहिए. स्पष्ट है कि इसका परिणाम यह निकला कि मंत्री परिषद में जितने भी सदस्य थे वे जानते थे कि सोनिया गांधी से निर्देश पाने के बाद  प्रधानमंत्री के हस्ताक्षर केवल औपचारिकता हैं. प्रधानमंत्री पद व्यवहार में धीरे-धीरे राष्ट्रपति पद में बदल दिया गया.

पूर्व कोयला सचिव पीसी पारख भी मानते हैं कि मनमोहन सिंह कोयला क्षेत्र में व्यापक सुधारों के पक्ष में थे और कुछ महत्वपूर्ण सुधार तो उनके उत्साहवर्धन से ही संभव हुआ, लेकिन वे अपने मंत्रियों को नियंत्रित नहीं कर सके. कई बार प्रधानमंत्री के फैसले मंत्रालय ने बदलवा दिए. पारख के विरुद्ध भी सीबीआई जांच कर रही है. इस बारे में पारख का कहना है कि अगर कोई गड़बड़ी हुई है तो सबसे पहले प्रधानमंत्री और कोयला मंत्री से पूछताछ करनी चाहिए क्योंकि हर फैसला इन्हीं के आदेश से होता रहा है.

विपक्ष इन पुस्तकों का चुनाव में इस्तेमाल करेगा और जितना संभव होगा सरकार की साख को नुकसान पहुंचाने का प्रयास करेगा. इसलिए कांग्रेस की ओर से बारू और पारख को विश्वासघाती और गलत तथ्यों की अनुचित व्याख्या करने का दोषी बताना भी स्वाभाविक है. लेकिन कुछ प्रश्न ऐसे हैं जो प्रबुद्ध मतदाता के मन को परेशान अवश्य करेंगे. अगर दोनों लेखकों- बारू और पारख- की बातें आंशिक तौर पर भी सही हैं तो क्या सचमुच इतने बरसों से हमारे देश में सरकार गैरसरकारी शक्ति-केंद्र से संचालित थी? क्या यह संवैधानिक व्यवस्था की अवमानना नहीं है? यह मानने में किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि प्रधानमंत्री एक भले मानुस हैं, लेकिन क्या दल विशेष के नेता के इशारे पर सरकार चलाने की अनुमति देकर यह नहीं पूछा जा सकता है कि गैर-सरकारी राजनेताओं की हित साधना के लिए सरकार चलाने के बाद भी नैतिकता का दावा कैसे किया जा सकता है.

ये दोनों पुस्तकें बम साबित हों या न हों, लेकिन आने वाली सरकार को इनमें सचेत करने के लिए बहुत कुछ है. मनमोहन सिंह की सरकार दो तरह के विपरीत तनावों के बीच बनाई गई थी. सोनिया गांधी, जिन्हें सरकार बनाने का जनादेश था, स्वयं प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहती थी क्योंकि उनको लगता था कि यह पद उनके बेटे के लिए ही सुरक्षित रखा जाना चाहिए. उन्हें प्रधानमंत्री पद पर एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी, जिसकी राजनीतिक जमीन न हो और जो एक नौकरशाह की तरह अपने पद के आगे महत्वाकांक्षाएं न पाले.

इसलिए मनमोहन सिंह के समक्ष पृष्ठभूमि में रहने की मजबूरी थी ताकि जो भी बड़े काम हों, उनका श्रेय पहले दौर में पार्टी को मिले और दूसरी पारी में राहुल गांधी को दिया जाए. राहुल की वरीयता और अधिकार संपन्नता का सबसे बड़ा प्रदर्शन मनमोहन सिह के फैसले को सार्वजनिक तौर पर बकवास कह कर फाड़ देने की घटना से मिलता है. दूसरा तनाव कांग्रेस पार्टी पर उसके सहयोगी दलों का था जो अपने क्षेत्रीय और राजनीतिक स्वाथोर्ं के लिए लगातर फैसले करवाते या बदलवाते रहते थे. राजा हों या कलमाडी, कोयला आवंटन हो या स्पेक्ट्रम आवंटन, सभी घोटाले चोरी छिपे नहीं, बल्कि दिनदहाड़े सरकार को धमकाते हुए किए गए. इस मामले में सोनिया गांधी ने एक भूल अवश्य की.

वे समझती थीं कि जितने भी आरोप लगेंगे, उनकी कीचड़ मनमोहन सिंह पर ही पड़ेगी, लेकिन कमजोर प्रधानमंत्री और अकुशल सरकार का सारा दोष केवल प्रधानमंत्री पर ही नहीं लग रहा है. मनमोहन सिह की ढाल पार्टी को बदनामी से नहीं बचा सकती.  
इन दोनों पुस्तकों के आने के बाद शायद मतदाता के कुछ वगरे में मनमोहन सिंह से अधिक आक्रोश पार्टी को ही भोगना होगा क्योंकि प्रधानमंत्री अकुशल कम, बेबस अधिक दिखते हैं. लोग मनमोहन सिंह के पीछे भी देखने की कोशिश करेंगे तो उन तत्वों को भी जानने-पहचानने का प्रयास करेंगे जिनके कारण एक ईमानदार प्रधानमंत्री को इतना प्रभावहीन बनना पड़ा. इससे परदे के पीछे झांकने की जिज्ञासा बढ़ेगी ही.

(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

जवाहरलाल कौल
लेखक


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