दलाली के लिए क्रांति का नकाब ओढ़ने वाले

Last Updated 18 Apr 2014 12:13:27 AM IST

माओवादी केवल इसी से संतुष्ट नहीं हैं कि जनता वोट बहिष्कार का समर्थन करे.


दलाली के लिए क्रांति का नकाब ओढ़ने वाले

वह चाहते हैं कि जो सरकारी पदाधिकारी वोट डालने में जनता की सहायता करते हैं, उन्हें भी मार गिराया जाए. माओवादियों का तर्क समझ से परे है. कभी वे दलाल बन जाते हैं तो कभी पैसों के बदले उम्मीदवारों को जीत दिलाते हैं और कभी क्रांतिकारी बन निरीह सरकारी मुलाजिमों की हत्या करने लगते हैं. वे क्रांतिकारी हैं या दलाल, यह परिस्थिति पर निर्भर है.

माओवादियों ने 12 अप्रैल को छत्तीसगढ़ में एक कुछ फासले पर दो घटनाओं को अंजाम दिया. पहले बिजापुर के पास चुनाव कर्मचारियों को चपेट में लिया और फिर वहां से करीब सौ किलोमीटर दूर, दरभा घाटी में सीआरपी जवानों की हत्या कर दी. इसलिए कि उन्होंने वोट डालने के लिए जनता को उत्साहित किया था. हर क्रांति के दौर होते हैं, जिनके बारे में सचेत रहने की हिदायत मार्क्‍सवाद के संस्थापकों ने स्वयं दी थी.

दौरों के बारे में सचेत न रहने का अर्थ है दुश्मन की सहायता करना और इस काम में माओवादियों ने महारत हासिल की है. उनके लिए क्रांति निरंतर प्रवाह है जिसमें ज्वार भाटा नहीं आता. वर्ग दुश्मन, वर्ग-साथी आदि धारणाएं कोरी बकवास है. संभव है, जो चुनाव अधिकारी मारे गए, वे वामपंथियों के समर्थक हों. संभव है सीआरपी के जो जवान मारे गए, उनमें से किसी का भाई जमींदारों के विरुद्ध संघषर्रत हो. पर उससे क्या फर्क पड़ता है? मूल बात यह है कि वे सरकारी आदेश का पालन करने तथा खास चुनाव को अंजाम देने गए थे, जिसके लिए माओवादियों ने मना किया था. उनकी इस ‘गलती’ की सजा उन्हें मिली.

इस ‘युद्ध’ को, जिसमें घात लगाकर और कायरों की तरह सीआरपी जवानों को मारा गया, माओवादी खास नजरिये से देखते होंगे. उनकी समझ यही होगी कि आगे से सीआरपी के जवान उनके खिलाफ कारवाई करने से हिचकेंगे. कहने की जरूरत नहीं कि यह उनकी भूल है. जवान जानते हैं कि यह उनका कर्त्तव्य है. आगे भी वे माओवादियों के खिलाफ लड़ेंगे. फर्क यह होगा कि वे और सावधानी के साथ लड़ेंगे. चुनाव-अधिकारी और सावधान होकर अपने काम को अंजाम देंगे. माओवादी भी आजकल विज्ञापन के औचित्य के बारे में सचेत हो चले हैं? लेकिन वे तो ‘जनता के’ है. ऐसा विज्ञापन क्या उचित है, जिसमें निरीह जानें जाए?

कुछ सवाल रणनीति को लेकर भी है. जनता को यह समझ होनी चाहिए कि उनकी लड़ाई एक शातिर दुश्मन के विरुद्ध है, जो किसी भी दृष्टिकोण से ‘कम्युनिस्ट’ नहीं है. कम्युनिस्ट एक सिद्धांत के लिए जीते-मरते हैं. इनका कोई वैसा सिद्धांत नहीं है. माओवादी समाज विरोधियों की एक जमात है, जो खास उद्देश्य को लेकर इकट्ठी हुई है. इन पर निर्मम होकर चोट करनी पड़ेगी. इनके शातिरपन का जवाब शातिरपन से देना होगा. इस बाबत छत्तीसगढ़ के एडीजी बिज ने जो कहा है, उस पर ध्यान देना आवश्यक है.

दूसरी बात यह है कि सीआरपी तथा पुलिस के नेतृत्व के बीच जो वैमनस्य है, उसे पाटना आवश्यक है. इस वैमनस्य से माओवादी लाभान्वित हो रहे हैं. जब दोनों का दुश्मन एक है, तब वैमनस्य के लिए जगह कहां बनती है? दोनों को एक नेतृत्व के अधीन काम करना होगा, तभी माओवादी पराजित होंगे. आज तक, सीमित तौर पर ही सही, माओवादी जहां-जहां पराजित हुए हैं, वहां-वहां शातिरपन के अस्त्र को उनके विरूद्ध इस्तेमाल किया गया है. जंगल महल को लें, जहां उन्हें काफी हद तक नाकाम कर दिया गया है. आंध्र प्रदेश को लें, जहां काफी हद तक उन्हें जड़ से उखाड़ फेंक दिया गया है. इसलिए एक नेतृत्व और सृजनात्मक रणनीति, इनका कोई विकल्प नहीं है.

विकास के औजार को और सजगता से माओवादियों के विरुद्ध प्रयोग में लाना होगा. इस औजार ने उन्न्हें काफी हद तक पीछे हटने पर बाध्य किया है. सरकार की लाख आलोचना की जाए, तथ्य यह है कि माओवादी आधार के ढहने में विकास कार्यक्रमों की एक भूमिका है, जिसे माओवादी भी मानते हैं. वे इसके पीछे ‘वर्ग दुश्मनों’ का षडयंत्र देखते हैं, लेकिन मूल बात यह है कि जो भूखा है, उसे खाना मुहैया कराया जा रहा है. माओवादी सैद्धांतिक रूप से दिवालिया हो चुके हैं इसलिए बात-बात में उन्हें ‘वर्ग दुश्मनों’ का षडयंत्र दिखता है, वरना उन्हें तो विकास कार्यक्रमों का स्वागत करना चाहिए. लेकिन ऐसा वे नहीं करेंगे, क्योंकि विकास-कार्यक्रमों पर भी उन्हें एकाधिकार चाहिए.

इसे भी इतिहास का मजाक ही कहा जाएगा कि जिन दिनों पहली बार पश्चिम बंगाल में संसदीय वामपंथी, चुनाव जीतकर सत्ता में आ चुके थे, उन्हीं दिनों चारु  मजूमदार के नेतृत्व में नक्सलियों ने ‘चुनाव बहिष्कार’ का नारा दिया था. साम्राज्यवादी भी यही चाहते थे कि वामपंथी इस सवाल पर आपस में उलझ जाएं और उनकी सरकार को स्थायित्व न मिले. उन दिनों नक्सल-पंथी जाने-अनजाने साम्राज्यवादी हित साध रहे थे. आज भी वे वही कर रहे हैं.

फर्क इतना भर हुआ कि माओवादियों को छोड़ नक्सलियों का एक बड़ा हिस्सा अब चुनाव में भाग ले रहा है. इसे बड़ी उपलब्धि मानना चाहिए और माओवाद-विरोधी कार्यक्रम को बल प्रदान करना चाहिए. छद्म ‘क्रांतिकारियों’ के विरुद्ध लड़े बगैर हमें परिपक्वता हासिल नहीं हो सकती है. इस बात की ठोस समझ आवश्यक है. जिनकी मौत बिजापुर तथा दरभा में हुई, उन्होंने भारतीय लोकतंत्र की रक्षा के लिए अपनी जान न्योछावर की, इसको भी स्वीकार करना चाहिए.

इस बात को जोर देकर कहने की आवयकता इसलिए पड़ी कि अखिल भारतीय स्तर पर माओवादियों की गोली के सामने सीआरपी ही खड़ी होती है, जिसने मरना कबूल किया, भागना नहीं. इस खास घटना को लेकर उनकी आलोचना की जा रही है, जो अनुचित है. इस तरह की आलोचना से सीआरपी के मनोबल पर असर पड़ता है और फायदा माओवादियों को होता है. बेशक हम एक नेतृत्व वाली अवधारणा को लागू करें और ढांचागत बदलाव को भी अंजाम दें, लेकिन आलोचना से परे हटकर. वे गरीबों के बाल बच्चे हैं और अपनी जान इसलिए जोखिम में डाल रहे हैं ताकि हम चैन की नींद सो सकें. इस बात का ज्ञान आवश्यक है.

बिश्वजीत सेन
लेखक


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