हलक से कैसे उतरेगा यह दूध!

Last Updated 17 Apr 2014 12:38:50 AM IST

हाल में नरेंद्र मोदी ने यूपीए सरकार की इसलिए आलोचना की कि उसने दुग्ध उत्पादन में बढ़ोत्तरी के प्रयास करने की बजाय देश में गुलाबी क्रांति की तरजीह दी.


हलक से कैसे उतरेगा यह दूध!

इस कारण देश में दूध को लेकर कई संकट पैदा हो गए. इससे एक तरफ दूध महंगा होता जा रहा है, तो दूसरी तरफ उसमें मिलावट की सारी हदें पार हो चुकी हैं. दुग्ध उत्पादन में मांग के मुकाबले बढ़ोत्तरी नहीं हो पा रही है. कई और कारणों से भी देश में दूध की लगातार कमी होने लगी है. दूध की कमी के दो बड़े संकेत हैं पहला यह है कि खास तौर से शहरों में दुग्ध आपूर्ति करने वाली कंपनियां चारे और उत्पादन लागत में बढ़ोत्तरी के तर्क के साथ दूध की प्रति लीटर कीमतों में इजाफा करती रहती हैं.

इस कारण ज्यादातर अच्छे ब्रांडों का दूध 50 रुपये प्रति लीटर तक जा पहुंचा है. आश्चर्य है कि पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बढ़ोत्तरी पर हंगामा करने वाली जनता दूध की इन कीमतों का मुखर विरोध करती नहीं दिखती. जबकि जल्द ही दूध की कीमतें पेट्रोल के दामों को मुकाबला देने की स्थिति में होंगी. दूसरा संकेत दूध में मिलावट के असंख्य किस्सों का है जिन्हें अदालत के अंकुश और सजाओं के प्रावधान के बावजूद रोका नहीं जा सका है. कई मामलों में तो मिलावटी दूध जहर के बराबर खतरनाक हो चुका है लेकिन दूधिये और दुग्ध कंपनियां अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रही हैं.

सवाल यह है कि मिथकों में दूध-दही-घी की नदियों के इस देश में दूध की इतनी किल्लत क्यों पड़ रही है जिससे उसकी कीमतों में उफान से लेकर मिलावट तक के संकट खड़े हो गए हैं. दूध की आपूर्ति और मांग का एक आकलन रेटिंग एजेंसी क्रिसिल ने किया था. उसके मुताबिक देश में दूध का घरेलू बाजार सालाना छह से आठ फीसद की दर से बढ़ रहा है जबकि उत्पादन में बढ़ोतरी की दर अगले चार-पांच सालों तक 4 से 5 फीसद के बीच ही रहने की संभावना है. दूध की मांग में 60 लाख टन सालाना का इजाफा हो रहा है, जबकि आपूर्ति में सालाना 35 लाख टन के हिसाब ही बढ़ोत्तरी हो पा रही है.  क्रिसिल के हिसाब से 2021-22 में हर साल 180 मीट्रिक टन दूध की जरूरत पड़ेगी. इस जरूरत की पूर्ति के लिए जरूरी है कि दुग्ध उत्पादन में न्यूनतम 5.5 फीसद सालाना और इससे ज्यादा की दर से बढ़ोतरी हो.

उत्पादन में अपेक्षित वृद्धि नहीं होने के कारण ही दूध की कीमतों में बढ़ोतरी की प्रवृत्ति 2006 के बाद से लगातार देखी जा रही है. ऐसा तब है जब मिल्क पाउडर और दूध से निकाले जाने वाले कैसीन के निर्यात पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा है. दुग्ध उत्पादक कंपनियों, उनके उत्पादन और वितरण के साथ-साथ दूध की सप्लाई आदि मुद्दों पर नजर रखने वाले संगठन, यहां तक कि कृषि मंत्री भी बीच-बीच में कहते रहे हैं कि देश में दूध की बढ़ती मांग के आगे इसकी कीमतों पर फिलहाल काबू पाना मुमकिन नहीं है.

दूध की महंगाई के लिए कुछ और कारण भी गिनाए जाते हैं जैसे, खुद सरकार और उसके संगठन इसके लिए देश में मध्यवर्गीय आबादी और उसकी आय में बढ़ोतरी के साथ खानपान की उसकी आदतों में तब्दीली को जिम्मेदार मानते हैं. दूध की महंगाई के इस विचित्र पहलू के मुताबिक आय बढ़ने के साथ लोग दूध और दूध से बने खाद्य पदार्थ जैसे खोया-पनीर-क्रीम आदि का ज्यादा मात्रा में सेवन करते हैं जिससे मांग और आपूर्ति के संतुलन पर दबाव पड़ता है.

तीन साल पहले (2011 में) हुई अमेरिकन डेयरी प्रॉडक्ट्स इंस्टीट्यूट (एडीपीआई) की एक कांफ्रेंस में यह तथ्य जोर-शोर से रेखांकित किया गया था कि अब भारतीयों के भोजन में सबसे बड़ा हिस्सा दूध और उससे बने उत्पादों का होता है. इस देश का सामाजिक, धार्मिंक और सांस्कृतिक ताना-बाना ऐसा है जिसमें दूध की खपत को बढ़ावा मिलता है. भारतीय घी खाते भी हैं और उससे आरती के थाल भी सजाते हैं. दूध से बनी मिठाइयां भी हर तीज-त्योहार का अनिवार्य अंग हैं. पिज्जा जैसे नए खानपान भी दूध के इस्तेमाल को बढ़ावा दे रहे हैं.

इसके अलावा जिस एक और वजह से दुग्ध उत्पादक कीमतें बढ़ाने को जायज ठहराते हैं, वह है कि मवेशियों को खिलाए जाने वाले चारे की महंगाई. हालांकि देश में हाल-फिलहाल के वर्षो में ऐसा सूखा नहीं पड़ा है कि चारे की भीषण किल्लत हो जाए, लेकिन मांग बढ़ने से पशु चारे की भी कमी लगती है. चारे में मिलाकर दिए जाने वाले शीरे (मोलेसेस) की कीमतें कुछ ही अरसे में 3500 से 4000 रुपये प्रति टन तक हो गई हैं. इसी तरह एक अन्य पशु आहार कैस्टर सीड (अरंडी के बीज) की कीमतें 500-1000 रुपये प्रति टन बढ़ गई है.

हालांकि ये कारण और दबाव कितने जायज हैं, यह फैसला दुग्ध कंपनियों के कामकाज पर निगरानी वाले संगठन और सरकार को करना है पर दिल्ली-एनसीआर में बड़ी कंपनियों के एकाधिकार और दबाव के खिलाफ आवाज उठाने वाले संगठन- ग्वाला गद्दी के संचालक दावा कर चुके हैं कि यदि बड़ी दुग्ध कंपनियों के नेटवर्क से आजादी दिला दी जाए, तो दूधिये आम लोगों को बड़े ब्रांडों के मुकाबले प्रति लीटर दस रुपये कम कीमत में दूध उपलब्ध करा सकते हैं.

हालांकि आज शहरों में दूध बड़ी दुग्ध वितरण कंपनियों के मार्फत नियोजित ढंग से मिलता है पर दूध के संकट का एक विरोधाभासी पहलू यह है कि अब भी यह एक अनियोजित इंडस्ट्री की तरह काम कर रहा है.  उल्लेखनीय है कि आजादी से पहले दुग्ध उत्पादन के मामले में भारत कोई हस्ती नहीं था. लेकिन 1946 में गुजरात में आणंद मिल्क यूनियन लिमिटेड (अमूल) के नाम से शुरू सहकारिता के उद्यम से देश में जो डेयरी मूवमेंट शुरू हुआ, उससे तस्वीर बदलने लगी. स्थापना के दो साल बाद श्वेत क्रांति के अग्रदूत डॉ. वर्गीज कूरियन के नेतृत्व में आणंद में रोजाना पांच हजार लीटर दूध की प्रोसेसिंग होने लगी थी. वैसे तो इन कोशिशों की बदौलत आज भारत दुनिया के सबसे बड़े दुग्ध उत्पादक देशों में गिना जाता है, लेकिन इस उपलब्धि के बावजूद दूध की महंगाई की असली वजह यही है कि देश की डेयरी इंडस्ट्री का ज्यादातर हिस्सा अनियोजित है.

मदर डेयरी और अमूल जैसी नियोजित इकाइयां देश की कुल मांग के महज 20 फीसद हिस्से की ही पूर्ति कर पाती हैं. शेष 80 फीसद जरूरतें गांव-देहात के दूधिये पूरी करते हैं. अब तक 20 फीसद नियोजन में भी कैसे-कैसे झोल हैं, इस पर भी नजर जानी चाहिए. मसलन, बड़ी दुग्ध कंपनियां दूध उत्पादकों और उपभोक्ताओं दोनों को लूट रही हैं. जिस दूध को वे शहरों में करीब 50 रुपये प्रति लीटर बेच रही हैं, उसके लिए वे मवेशी पालकों को औसतन 22-25 रुपये प्रति लीटर का भुगतान करती हैं. दूध उत्पादकों की आमदनी घटने की यह एक अहम वजह है. इसी कारण वे महंगा पशु आहार नहीं खरीद पा रहे हैं. इसी के फलस्वरूप दूध का उत्पादन अपेक्षित तेजी से नहीं बढ़ पा रहा है.

यदि दूध के इस अनियोजित बाजार को भी किसी तरह नियोजित किया जाए और उसमें कायम असंतुलन को दूर किया जाए तो यह उद्योग करीब 12 अरब डॉलर के व्यवस्थित बाजार में बदल सकता है. इसी तरह यदि दूध उत्पादन में लगे पशुपालक ज्यादा दूध देने वाली विदेशी नस्लों के मवेशी पालने लगें तो दूध की घरेलू मांग की आसानी से पूर्ति हो सकती है. अभी कुल दुग्ध उत्पादन का 56 प्रतिशत हिस्सा देसी भैंसों से मिलता है जो दूध देने वाली एक अवधि में 1400 से 2000 लीटर दूध देती हैं. यह मात्रा 600 लीटर देने वाली देसी गायों के मुकाबले तो ज्यादा है लेकिन विदेशी नस्ल वाले मवेशियों द्वारा मिलने वाले औसतन 2200 लीटर के मुकाबले कम है.

दुग्ध उद्योग के अनियोजन की अहम वजह यह है कि आज भी इसे फैमिली बिजनेस की तरह चलाया जाता है. प्राय: हर किसान एक या दो मवेशी रखता है जिनसे मिलने वाला दूध तभी बेचा जाता है जब वह परिवार की आवश्यकता की पूर्ति के बाद बच जाए. यदि पशुपालक इसे व्यवस्थित व्यवसाय के रूप में लेंगे, तो इससे न सिर्फ  उनकी आय में बढ़ोत्तरी होगी, बल्कि इससे देश के डेयरी मार्केट की तस्वीर भी बदल सकती है और हर छठे-छमाही दूध की कीमतें बढ़ाने की प्रवृत्ति पर भी कुछ अंकुश लग सकेगा.

अभिषेक कुमार सिंह
लेखक


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