वैज्ञानिकों की अहम उपलब्धि

Last Updated 16 Apr 2014 12:29:01 AM IST

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने एक और सफलता हासिल करते हुए अपने दूसरे नौवहन उपग्रह (नैविगेशन सेटेलाइट) का परीक्षण किया है.


वैज्ञानिकों की अहम उपलब्धि

चार अप्रैल, 2014 को चेन्नई से लगभग 100 किमी की दूरी पर स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पीएसएलवी) सी 24 से इंडियन रीजनल नेविगेशन सेटेलाइट सिस्टम (आईआरएनएसएस) -1 बी को लांच किया गया. उड़ान भरने के 19 मिनट के अंदर इसे धरती के ऊपर कक्षा में स्थापित कर दिया गया. इसरो के जनसंपर्क निदेशक देवी प्रसाद कार्णिक के अनुसार प्रक्षेपण की उल्टी गिनती से पहले इसका पूर्वाभ्यास किया गया जो सफल रहा था. इस पूर्वाभ्यास में रॉकेट में दहन शुरू होने वाले बटन को दबाना छोड़कर शेष अनेक प्रक्रियाएं एक-एक कर पूरी की गई थीं.

अमेरिका के ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस) की तरह अपना नेविगेशन सिस्टम विकसित करने के लिए भारत ने 1420 करोड़ रुपए की योजना के तहत सात नेविगेशनल सेटेलाइट को स्थापित करने की योजना बनाई है. इस योजना के तहत वर्ष 2015 तक सातो उपग्रहों को नक्षत्रों की तरह अंतरिक्ष में स्थापित करने की योजना है. इसके बाद जो क्षेत्रीय नेविगेशन प्रणाली तैयार होगी वह अमेरिका के ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम की तरह काम करेगी. योजना से संबंधित उपग्रहों में से पहले आईआरएनएसएस-1ए सेटेलाइट का प्रक्षेपण पिछले वर्ष एक जुलाई को अपने ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान सी-22 से किया गया था.

आईआरएनएसएस-1बी इस योजना का दूसरा सेटेलाइट है. इसका वजन 1432 किलोग्राम है. यह प्रणाली स्थलीय, हवाई एवं सामुद्रिक निगरानी हेतु अपनी सेवाएं प्रदान करेगी. इसके अलावा रियल टाइम पोजिशनिंग तथा आपदा प्रबंधन में भी यह प्रणाली मदद करेगी. इसे 10 साल के लिए अभियान पर भेजा गया है. यह स्वतंत्र प्रणाली देश की सीमा के 1500 किमी की परिधि में 10 मीटर की शुद्धता की स्थिति बताएगी. यह अमेरिका के जीपीएस सिस्टम की बराबरी वाली है.

इस नेविगेशन सेटेलाइट के सफल प्रक्षेपण के बाद इसरो के चेयरमैन के राधाकृणन ने कहा कि स्मार्टफोन और अन्य गैजेट्स में अब तक हम अमेरिकी जीपीएस प्रणाली का उपयोग करते आए हैं लेकिन सैन्य सुरक्षा के लिए यह सुरक्षित नहीं थी. अब अपनी स्वदेशी प्रणाली काफी सुरक्षित होगी. इसरो के जनसंपर्क निदेशक के मुताबिक इस प्रणाली से भारत अंतरिक्ष में एक और हस्ताक्षर करेगा. भारत ऐसी नैविगेशन प्रणाली वाला अब अमेरिका, रूस, यूरोप, चीन और जापान के बाद छठा देश बन गया है. यह प्रणाली अमेरिका के ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम, रूस के ग्लोनास, यूरोप के गैलीलियो, चीन के बीदाउ व जापान के कासी जेनिथ सेटेलाइट सिस्टम की तरह है.

इसरो के अधिकारियों के मुताबिक इस साल के अंत तक दो ऐसे और उपग्रह आईआरएनएसएस-1सी और आईआरएनएसएस-1डी प्रक्षेपित किए जाएंगे. इन चारों उपग्रहों के कक्षा में पहुंचने के साथ भारतीय क्षेत्रीय नौवहन उपग्रह प्रणाली अपना काम करना शुरू कर देगी. इसके बाद अगले वर्ष 2015 में तीन उपग्रहों को और भेजे जाने की योजना है. तब भारत के पास संपूर्ण नौवहन उपग्रह प्रणाली होगी.

सात उपग्रहों की इस श्रंखला के काम करना शुरू होते ही हम देश में कहीं से भी अपना स्थान एवं भविष्य का मार्ग खोजने में सक्षम हो जाएंगे. सड़कों पर दौड़ती छोटी-बड़ी गाड़ियां, समुद्र में तैरते युद्धपोत व जहाज तथा आसमान में उड़ते विमान आदि के मार्गदर्शन के लिए यह प्रणाली काफी कारगर एवं प्रभावी सिद्ध होगी. इससे भारतीय नौसेना की निगहबानी काफी मजबूत हो जाएगी. इसके अलावा यातायात साधनों एवं उनकी सही स्थिति व पोजीशन का पता लगाना भी आसान हो जाएगा. इस तरह अब जल एवं थल की निगरानी अंतरिक्ष से संभव हो जाएगी.

इन मार्गदर्शक उपग्रहों की मदद हमारी रक्षा एवं सैन्य तैयारियों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी. सीमा पर इन उपग्रहों की सतर्क निगाहों से दुश्मन की गतिविधियों का छिपना मुश्किल होगा. उल्लेखनीय है कि लगभग 15 वर्ष पूर्व करगिल क्षेत्र में पाकिस्तानी घुसपैठियों के काबिज होने की सूचना मिलने पर अमेरिका से जानकारी देने का अनुरोध भारतीय सेना ने किया था लेकिन उसने इसे अनसुना कर दिया था. उस समय हम अमेरिका के जीपीएस सिस्टम पर निर्भर रहते थे और उसका खामियाजा हमें कारगिल संघर्ष में भुगतना पड़ा था.

अब इस प्रणाली का उपयोग धरती, आकाश, जल में दिशासूचक, आपदा प्रबंधन, वाहनों की खोज, जहाजी बेड़े का प्रबंधन, मोबाइल फोन के साथ संपर्क, मैपिंग और भूगणित आदि कार्यों में किया जाएगा. प्राकृतिक आपदा की पूर्व सूचना, उसकी संभावित विभीषिका और राहत कार्यों में इसकी मदद से हम वह सब कुछ करने में सक्षम होंगे जिसकी हमें आवश्यकता है.

इस तरह इस नई प्रणाली से देश के पास स्वयं का जीपीएस सिस्टम होगा. इस नौवहन उपग्रह को इस तरह डिजाइन किया गया है कि देश के उपयोगकर्ताओं के साथ-साथ देश की सीमा से 1500 किलोमीटर की दूरी तक की सही वस्तुस्थिति की जानकारी मिल सके. यह सिस्टम रियल टाइम पोजिशनिंग और नेविगेशन सेवाएं देने में सक्षम होगा.

इसका पेलोड सिस्टम दो तरह का होगा जिसमें पहला नेविगेशन और दूसरा रेंजिंग है. नेविगेशन पे-लोड का परिचालन एल-5 और एस बैंड से होता है, जबकि रेंजिंग पे-लोड का परिचालन सी-बैंड ट्रांसपोंडर से होगा. इसकी मदद से देश की खुफिया जानकारियों और ठिकानों को अपने तक सीमित रखना आसान हो जाएगा. खासकर संवेदनशील रक्षा एवं अन्य प्रतिष्ठानों को लेकर सरकार ने अभी से सतर्कता बरतनी शुरू कर दी है. इस तरह यह प्रणाली किसी भी प्रकार के खतरे से निपटने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण कदम है.

भारत के वैज्ञानिकों ने यह तकनीक बेहद कम समय में हासिल की है. यहां गौरतलब बात यह है कि उच्च तकनीक दिए जाने को लेकर विकसित देशों का रवैया हमेशा भारत विरोधी रहा है. इसका प्रमुख उदाहरण अंतरिक्ष में रॉकेट भेजने के लिए जरूरी क्रायोजेनिक इंजन से संबंधित है. इस तकनीक को भारत ने रूस से लेने का प्रयास करते हुए एक समझौता भी कर लिया था लेकिन तब रूस ने अमेरिकी दबाव में आकर यह तकनीक देने से मना कर दिया था.

स्वयं अमेरिका ने भी यह तकनीक भारत को सिर्फ इसलिए नहीं थी कि भारत सैन्य क्षेत्र में कहीं आगे न निकल जाए. इसके बाद भारत ने खुद क्रायोजेनिक इंजन तकनीक को अपने देश में विकसित करने का निर्णय लिया. भारतीय वैज्ञानिकों ने इस क्षेत्र में सफलता हासिल कर ली. इसी सफलता का परिणाम सामने है कि भारत बड़े-बड़े उपग्रह पृथ्वी की कक्षा में स्थापित कर रहा है. निश्चित है कि यदि भारतीय वैज्ञानिकों के कदम इसी तरह आगे बढ़ते रहे तो देश उन्नति के विभिन्न आयामों को हासिल करेगा.

डॉ. लक्ष्मी शंकर यादव
लेखक


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