नाकाफी हैं एड्स नियंत्रण के उपाय

Last Updated 02 Dec 2013 04:07:16 AM IST

प्रत्येक वर्ष की तरह इस बार भी विश्व एड्स दिवस पर जागरूकता बढ़ाने के लिए विविध कार्यक्रमों का आयोजन हुआ.


एड्स जागरूकता अभियान (फाइल फोटो)

यह बेहद चिंताजनक स्थिति है कि जागरूकता और सतर्कता के बावजूद भी भारत में एड्स का संक्रमण तेजी से बढ़ता जा रहा है. यूनिसेफ की रिपोर्ट से उद्घाटित हुआ है कि पूरे विश्व में 33.4 मिलियन लोग एड्स संक्रमित हैं और भारत इस मामले में तीसरे स्थान पर है. ब्रिटिश मेडिकल जर्नल की रिपोर्ट के अनुसार भारत में एड्स पीड़ितों की संख्या 14 से 16 लाख है, जबकि संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट को मानें तो एशिया के 83 लाख एचआईवी संक्रमित लोगों में दो तिहाई भारतीय हैं. यानी भारत में एचआईवी संक्रमित लोगों की संख्या 50 लाख से ऊपर पहुंच चुकी है और यह महामारी का रूप ले चुका है.

हालांकि संयुक्त राष्ट्र की 2011 की एड्स रिपोर्ट के अनुसार पिछले 10 वर्षो में भारत में नए एचआईवी संक्रमित लोगों की संख्या में 50 फीसद तक की कमी आई है. लेकिन यह संतोषजनक नहीं है. इसलिए कि एड्स का प्रकोप अब सीमित समूहों और शहरों तक सीमित नहीं है, बल्कि गांवों और कस्बों में रहने वाले आमजन भी इससे संक्रमित होने लगे हैं. आंकड़े बताते हैं कि एड्स के चलते 2007 तक 2.1 मिलियन लोग काल के गाल में समा चुके हैं. भारत में भी एड्स से मरने वालों की संख्या में लगातार इजाफा देखा जा रहा है. हालांकि एड्स से बचाव के लिए सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर जागरूकता से जुड़े कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, लेकिन बचाव की दर अब भी 0.34 फीसद ही है.

आमतौर पर एड्स के संक्रमण के तीन मुख्य कारण माने जाते हैं- असुरक्षित यौन संबंध, रक्त का आदान-प्रदान और मां से शिशु में संक्रमण. लेकिन यूनिसेफ की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में एड्स के तेजी से बढ़ते संक्रमण का एक अन्य कारण लोगों की बदलती जीवनशैली तथा युवाओं में रोमांच के लिए जोखिम लेने की बढ़ती प्रवृत्ति भी है. रिपोर्ट से उद्घाटित हुआ है कि भारत में 85.6 फीसद एड्स पाश्चात्य जीवनपद्धति अपनाने से फैलता है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 24 से 45 वर्ष के आयु वर्ग के लोगों के इस बीमारी के चपेट में आने की आशंका सर्वाधिक रहती है. वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन का कहना है कि एचआईवी संक्रमण की सबसे ज्यादा संभावना संक्रमित व्यक्ति के साथ यौन संपर्क से होती है. लेकिन आश्चर्य है कि सुरक्षित यौन संबंध के प्रचार-प्रसार के बावजूद भी देश में संक्रमित लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है. विभिन्न सर्वेक्षणों के आंकड़े बताते हैं कि देश के बड़े महानगरों में संक्रमित यौनकर्मियों की तादाद में लगातार इजाफा हो रहा है.

2003 के एक सर्वेक्षण के मुताबिक मुंबई के 70 फीसद यौनकर्मियों के शरीर में एचआईवी वायरस पाया गया. इसी तरह सूरत में किए गए एक सर्वेक्षण से भी खुलासा हुआ कि वहां के यौनकर्मियों में 1992 में 17 फीसद के शरीर में एचआईवी वायरस था, जबकि 2001 में यह बढ़कर 43 फीसद हो गया. यह एक खतरनाक संकेत है. पर देखा जाए तो इस स्थिति के लिए एड्स के बारे में लोगों का सतही ज्ञान ही जिम्मेदार है. 2001 में राष्ट्रीय आचरण सर्वेक्षण (नेशनल बिहैवियर सर्वे) में 85 हजार लोगों से उनके यौन आचरण से जुड़े सवाल पूछे गए. इनमें 50 फीसद से अधिक लोग 25 से 40 वर्ष के थे. इनके द्वारा बताया गया कि उन्हें एड्स के बारे में बहुत कम जानकारी है. हैरान करने वाला तथ्य यह है कि बिहार, उत्तर प्रदेश, गुजरात, पश्चिम बंगाल और मध्यप्रदेश में सिर्फ 60 फीसद लोगों ने एड्स का नाम सुना था. देश के अन्य हिस्सों में भी एड्स संबंधी जानकारी 70 से 80 फीसद लोगों को ही थी. यही नहीं वे इस जानकारी से भी वंचित थे कि एड्स यौन संपर्क से भी होता है. 90 फीसद लोगों का मानना था कि एड्स मच्छर के काटने से भी हो सकता है.  यह सर्वेक्षण रेखांकित करता है कि देश के एक बड़े हिस्से में आज भी लोगों के बीच एड्स के बारे में समुचित जानकारी का अभाव है.

एचआईवी के संक्रमण का दूसरा सबसे प्रमुख कारण रक्त संक्रमण माना जाता है. चेतावनी के बावजूद भी एचआईवी संक्रमित व्यक्ति द्वारा इस्तेमाल की हुई सुई का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है और एचआईवी का जोखिम बढ़ता जा रहा है. यूनिसेफ की रिपोर्ट में कहा गया है कि एचआईवी पीड़ित दंपतियों में प्रसव के दौरान ‘प्रिवेंशन ऑफ पैरेंट्स टू चाइल्ड ट्रांसमिशन’ तकनीक का प्रयोग करने के बाद भी पांच फीसद मामले संक्रमित बच्चों के देखने को मिल रहे हैं. रिपोर्ट में बताया गया है कि 27 मिलियन महिलाएं हर वर्ष बच्चों को जन्म देती हैं जिनमें 49 हजार महिलाएं एचआईवी संक्रमित होती हैं. देश में 21 हजार हजार बच्चे प्रतिवर्ष माता-पिता के कारण एचआईवी संक्रमण का शिकार होते हैं.

एचआईवी का संक्रमण रोकने के लिए 2006 में नेशनल पीडियाट्रिक एंटीरेट्रो तकनीक आरंभ हुई. अब तक देश में इसके चार सौ से अधिक एआरटी सेंटर भी स्थापित हो चुके हैं. लेकिन इस तकनीक के बाद भी बचाव की दर सिर्फ 0.2 फीसद है. रिपोर्ट में इस जानलेवा महामारी से बचने के लिए बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं को अमल में लाने के साथ ही सामाजिक कार्यक्रमों एवं शिक्षा के जरिए इसके रोकथाम के लिए ठोस कदम उठाने की जरूरत पर बल दिया गया है. लेकिन विडंबना है कि हमारे समाज में यौन विषयों पर चर्चा शुरू से वर्जना का विषय रहा है. और नतीजा यह है कि आम जनता एड्स को लेकर भ्रम की स्थिति में है.

यही नहीं समाज में इस बीमारी को कलंकित भी समझा जाता है और पीड़ित के प्रति लोगों का व्यवहार असहिष्णु होता है. हालांकि अब लोगों में एड्स और इससे पीड़ित लोगों को लेकर जागरूकता और संवेदनशीलता बढ़ी है, लेकिन उचित होगा कि एड्स को शैक्षिक पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाए. यह सही है कि स्कूलों के पाठ्यक्रमों में एड्स को एक खतरनाक बीमारी के तौर पर सम्मिलित किया गया है लेकिन बात तब बनेगी जब इस पर संजीदगी से विचार होगा. समझना होगा कि एड्स स्वयं में कोई रोग नहीं है, बल्कि वह मनुष्य की अन्य रोगों से लड़ने की क्षमता को घटा देता है. अब समय आ गया है कि सरकार और स्वयंसेवी संस्थाएं एड्स की रोकथाम के लिए लोगों को जागरूक करें और औषधियों की उपलब्धता सुनिश्चित कराएं.

अरविंद जयतिलक
लेखक


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