आपातकाल, एक दुखद काल था: नैयर

Last Updated 25 Jun 2010 04:15:00 PM IST

आपातकाल की 35वीं बरसी


चर्चित पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता कुलदीप नैयर का कहना है कि आपातकाल भारतीय इतिहास का एक दुखद काल था।

नैयर ने कहा कि आपातकाल आज भी अनौपचारिक रूप से देश में अलग-अलग रूपों में मौजूद है, क्योंकि शासक वर्ग नौकरशाही, पुलिस और अन्य वर्गो के पूर्ण सहयोग से अधिनायकवादी और लोकतंत्रविरोधी गतिविधियों में लिप्त है। हमारी आजादी लगभग छिन-सी गई थी। नैयर ने आपातकाल की घोषणा की 35वीं बरसी पर साथ एक साक्षात्कार में कहा, इंदिरा गांधी के आपातकाल लागू करने से सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ था कि राजनीति और अन्य लोकतांत्रिक संस्थानों में नैतिक मूल्यों का क्षरण हो गया था। उस रुझान में आज तक बदलाव नहीं आ पाया है।

नैयर स्वयं आपातकाल के दौरान तीन महीने तक जेल में कैद रहे। उन दिनों नागरिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था। राजनीतिक विरोधियों को जेल में ठूंस दिया गया था और प्रेस पर प्रतिबंध लागू कर दिया गया था।
नैयर ने कहा, अधिनायकवादी शासकों द्वारा कई राज्यों और संस्थानों में अनौपचारिक आपातकाल आज भी लागू है। कई राज्यों में जिस तरीके से आपातकाल लागू है, वहां के मुख्यमंत्री नौकरशाही और पुलिस की मदद से अलोकतांत्रिक गतिविधियों में लिप्त हैं। नैयर ने कहा, आपातकाल के सात वर्षों बाद हमने भोपाल में एक पुलिस अधीक्षक को देखा, जिसने गैस त्रासदी के एक मुख्य आरोपी (वारेन एंडरसन) को गिरफ्तार किया था। लेकिन फिर उसी ने उसे रिहा कर दिया और एक वीआईपी विमान में उसे बैठा कर रवाना कर दिया। ऐसा ऊपर से आए किसी निर्देश पर ही हो सकता है।

ज्ञात हो कि नैयर ब्रिटेन में भारतीय उच्चायुक्त के रूप में भी काम कर चुके हैं। उन्होंने कहा कि आपातकाल के पूर्व भ्रष्टाचार निरोधी आंदोलन के दौरान जनता की आवाज तेज सुनाई दी थी।

नैयर ने कहा, इस कारण प्रशासन ने आपातकाल के दौरान राजनीतिक और गैरराजनीतिक, दोनों तरह के लाखों कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया। हालांकि लोकतंत्र की भावना फिर भी नहीं मर पाई। 25 जून, 1975 को याद करते हुए नैयर कहते हैं, वह एक कालरात्रि थी, जब मुश्किल से हासिल की गई हमारी आजादी लगभग छिन गई थी। इंदिरा गांधी कानून के ऊपर हो गई थीं। प्रेस का गला घोट दिया गया था। राजनीतिक नेताओं से लेकर सामान्य जनता तक, एक लाख लोगों को बिना किसी आरोप के हिरासत में ले लिया गया था। श्रीमती गांधी और उनके बेटे संजय गांधी के उस कदम से अधिनायकवादी और संविधानेतर शासन के एक अध्याय की शुरुआत हो गई।

लोकतंत्र के प्रमुख स्तंभों का निर्माण करने वाले राजनेता, नौकरशाह, मीडियाकर्मी और यहां तक कि न्यायाधीश भी तत्कालीन सरकार के अधिनायकवादी और अनधिकृत कदमों पर सवाल खड़ा नहीं करते थे। नैयर ने कहा, यह चकित करने वाला था। आपातकाल की घोषणा ने भय का माहौल पैदा कर दिया था, जिसने लोगों को और संस्थानों को अपनी गिरफ्त में ले लिया था। नैयर याद करते हुए कहते हैं कि ज्यादातर नौकरशाह आंखें मूंद कर श्रीमती गांधी और उनके बेटे के अलोकतांत्रिक आदेशों का पालन करते थे। नैयर ने कहा, इन अधिकारियों से कुछ नैतिक आधार और पारंपरिक मूल्यों की उम्मीद थी। लेकिन वे सभी नतमस्तक हो गए थे। दंडाधिकारी फटाफट ब्लैक वारंट जारी कर रहे थे। पुलिस, प्रशासन के आदेश का पालन करने को तत्पर थी और उसने नागरिकों के मौलिक अधिकारों को दरकिनार कर दिया था।

नैयर ने आगे कहा, यहां तक कि न्यायपालिका ने भी उम्मीदों पर पानी फेर दिया था। बंदी प्रत्यक्षीकरण अधिकार से संबंधित चर्चित मामले में, तत्कालीन महान्यायवादी नीरेन दा ने कहा था कि यदि किसी को गोली मार दी गई या वह गायब हो गया तो उसके आश्रितों को सवाल करने का अधिकार नहीं होगा।

फैसले में केवल एक मात्र न्यायाधीश-न्यायमूर्ति एच.आर.खन्ना ने नागरिक अधिकारों का समर्थन किया था। बाकी पांच अन्य न्यायाधीशों ने, जिनमें कि भारतीय न्यायपालिका के शीर्ष नाम शामिल थे, नागरिक अधिकारों से संबंधित याचिकाओं का समर्थन नहीं किया। नैयर ने कहा कि मीडियाकर्मी आपातकाल के आगे अपने रुख पर कायम नहीं रह सके। नई दिल्ली के प्रेस क्लब में प्रेस पर प्रतिबंध की निंदा करने के लिए 28 जून को बुलाई गई बैठक में 103 पत्रकारों ने हिस्सा लिया था। नैयर याद करते हुए कहते हैं, कुछ दिनों बाद मुझे गिरफ्तार कर लिया गया, क्योंकि मैंने राष्ट्रपति और अन्य अधिकारियों को मीडिया की भावना से अवगत कराते हुए पत्र लिखा था। लेकिन जब मैं तीन महीने बाद तिहाड़ जेल से घर लौटा तो मैंने पाया कि मीडिया का पूरा रुख बदल चुका था।



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