परंपरा और लंपट आधुनिकता के बीच का नर्क

Last Updated 03 Jun 2012 02:49:58 AM IST

हाल ही में देश की राजधानी दिल्ली में एक रिश्ता अपनी अंतर्निहित जटिलता के चलते एक बड़ा समाचार बनकर साया हुआ.


दिल्ली में अच्छी खासी नौकरी करने वाले भले परिवारों से संबंधित दो कम्प्यूटर दक्ष युवक-युवती पिछले आठ साल से लिव-इन में रह रहे थे.

जब लड़के पर उसके परिवार ने शादी करने का दबाव बनाया तो उसने उस लड़की से शादी कर ली जो उसके घरवालों ने तय की थी, उसके साथ नहीं जिसके साथ वह आठ साल से रह रहा था. इस लड़की से शादी न करने का प्रत्यक्ष पारिवारिक कारण यह बताया गया कि लड़की गैर जाति की थी. बहरहाल, लड़के की शादी के कुछ दिन बाद ही उसकी लिव-इन पार्टनर ने उसके विरुद्ध पुलिस में रपट दर्ज करा दी और आरोप लगाया बलात्कार का. नवविवाहित यह लड़का जेल पहुंच गया.

न उसे निचली अदालत से जमानत मिली, न उच्च न्यायालय से. जब उसने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया तो वहां भी उसकी जमानत की अर्जी खारिज कर दी गयी. लड़के के वकील ने इस बिना पर जमानत देने की गुहार लगाई कि उसका हाल ही में विवाह हुआ है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस दलील को भी अनसुना कर दिया. यानी यह युवक जेल में ही रहेगा और उस पर बलात्कार का मुकदमा चलेगा.

इस प्रकरण की परिणति: लड़के की नौकरी गई, वैवाहिक जीवन तबाह हुआ, और अगर बलात्कार का आरोप सिद्ध हुआ तो रहा-बचा जीवन भी समाप्त. लिव-इन पार्टनर लड़की की फौरी शिकायत पर कार्रवाई हो गई सो ठीक, मगर आगे? जो लड़की आठ साल तक बिना विवाह किये किसी लड़के के साथ पत्नी की तरह रही हो और जिसने उसी लड़के पर बलात्कार का आरोप लगाकर उसे सींकचों के पीछे पहुंचा दिया हो, उस लड़की का सामाजिक भविष्य?

क्या ऐसी लड़की का हाथ थामने के लिए सचमुच कोई आगे आएगा? तीसरी वह लड़की जिसने लड़के के साथ घरवालों की मर्जी से शादी की, एक अच्छे वैवाहिक भविष्य का सपना देखा, उसका तो अनायास ही सबकुछ खत्म हो गया. उसने न तो किसी सामाजिक नियम को तोड़ा था, न कानून को ध्वस्त किया था, फिर उसे किस बात की सजा मिली? न समाज-परिवार के पास उसके लिए कोई तात्कालिक राहत है, न कानून के पास. इन तीनों के अलावा, इनके परिवारों की भी सारी सुख-शांति छिन गई.

इस तरह की घटनाएं भारत के शहरी समाज में व्यापक परिघटना के तौर पर घट रही है. और इनके मामले में जहां कानून सफेद-स्याह के तौर पर अपराध और अपराधी का निर्धारण करता है फिर चाहे इसका पश्च प्रभाव किसी भी निदरेष के लिए कितना भी घातक क्यों न हो, वहां सामान्य समाज का अपराध निर्धारण उन अनेकानेक पारंपरिक नैतिकताओं और व्यवस्थाओं से होता है जो सामाजिक व्यवहार में अब भी गहरे धंसी हुई हैं. जब ये पारंपरिक नैतिकताएं और व्यवस्थाएं इधर एक वर्ग में स्वीकृत होने लगे ‘लिव-इन’ जैसे आधुनिक सामाजिक व्यवहार से टकराती हैं तो एक गहरा वैयक्तिक और सामाजिक संकट खड़ा कर देती हैं, जिसमें तय करना मुश्किल हो जाता है कि कौन प्रताड़क है और कौन प्रताड़ित.

जिस घटना का यहां उल्लेख है उसी को ले लीजिए. युवक-युवती के बीच जो लिव-इन संबंध था, वह शहरी समाज में संभव था. इसलिए संभव था कि आधुनिकता प्रसूत कानून दो वयस्क व्यक्तियों को स्वेच्छा से यौन संबंध बनाने और साथ रहने की अनुमति देता है. इस तरह के संबंध में रहने के लिए व्यक्ति या व्यक्तियों को साहस भर जुटाना होता है.

आधुनिकता एक औरत को ‘लिव-इन’ जैसा संबंध बनाने की अनुमति भी देती है और अपने विरुद्ध हुए अन्याय के प्रतिकार स्वरूप पुलिस में शिकायत करने की अनुमति भी. घटना में लिप्त औरत ने यही किया. लेकिन पुलिस में बलात्कार की शिकायत दर्ज कराने की स्थिति परंपरागत नैतिकता ने पैदा की. लड़के के परिवार ने लड़की को इसलिए स्वीकार नहीं किया कि उनकी परंपरा विजातीय लड़की को घर की बहू बनाने की अनुमति नहीं देती. यह प्रत्यक्ष बहाना था, लेकिन अप्रत्यक्ष तौर पर परंपरागत नैतिकता ने ज्यादा बड़ी भूमिका निभाई.

आखिर जो लड़की शादी से पहले किसी से खुलकर रिश्ता बना ले उस लड़की को कोई संभ्रांत परिवार अपने घर की बहू कैसे बना सकता है. और वह लड़का भी परंपरागत नैतिकता का शिकार था. उसकी मानसिकता अगर अपने परिवार से भिन्न होती तो वह लड़की से विवाह करता. लेकिन वह उस लंपट आधुनिकता से ग्रस्त था जिसके तहत एक पुरुष किसी भी लड़की के साथ देहानंद के लिए यौन संबंध बनाने को तो सही समझता है लेकिन उसके साथ शादी करना उचित नहीं समझता.

इस समय भारतीय समाज की वे लड़कियां जो आधुनिक सोच के साथ जीना चाहती है दुहरी प्रताड़ना की शिकार हो रही हैं. जब वे औरत को सती-सावित्री रूप में देखने वाली परंपरा को तोड़कर आगे बढ़ती हैं तो उन्हें ‘कुलटा’, ‘चालू’, ‘चरित्रहीन’ जैसी बेहूदी स्थापनाओं से जूझना होता है और जब वे आगे बढ़ जाती हैं तो लंपट आधुनिकता उन्हें शिकार बनाने के लिए घात लगाए बैठी रहती है. एक औरत के लिए न परंपरा राहत देने वाली है न कथित आधुनिकता. कानूनी राहत भी उसके लिए एक सीमा के बाद चुक जाती है. जरूरत उस आधुनिकता की है जो औरत के प्रति सभ्य और संवेदनशील होने का नजरिया पैदा करे. फिलहाल यह कोशिश समाज से नदारद है.

विभांशु दिव्याल
लेखक


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