अजन्मे बच्चे की अनिच्छा

Last Updated 03 Feb 2024 01:53:59 PM IST

सर्वोच्च अदालत ने 26 साल की महिला को 32 हफ्ते के गर्भ को गिराने की अनुमति देने से इनकार कर दिया।


अजन्मे बच्चे की अनिच्छा

अदालत ने कहा मेडिकल बोर्ड ने कहा है कि भ्रूण में कोई असमान्यता नहीं है। महिला ने बीते अक्टूबर में अपने पति को खो दिया था। उसके कुछ हफ्ते बाद पता चला कि वह गर्भवती है। अदालत ने 23 जनवरी के दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले पर हस्तक्षेप से इनकार कर दिया।

पीठ ने कहा कि यह 32 सप्ताह का भ्रूण है। इसे कैसे समाप्त किया जा सकता है? मेडिकल बोर्ड ने कहा इसे समाप्त नहीं किया जा सकता। केंद्र सरकार यह सुनिश्चत करे कि प्रक्रिया सुचारू रूप से व जल्द हो।

महिला के वकील का तर्क है कि वह विधवा है, उसे जीवन भर आघात सहना होगा। वह बच्चे को जन्म देगी तो उसकी इच्छा के खिलाफ होगा। वह अवसाद पीड़ित बताई गई। मगर एम्स मेडिकल बोर्ड ने गर्भावस्था या प्रसव का उसके मानसिक स्वास्थ्य पर कोई असर ना पड़ने की बात कही है।

अब वाकई में काफी देर हो चुकी है। गर्भपात के नाम पर जीवित बच्चे को निकालना क्रूरता होगी। 32 सप्ताह यानी आठ माह, जबकि सात महीने में ही कई बार सामान्य प्रसव हो जाता है और जच्चा-बच्चा दोनों स्वस्थ रहते हैं। व्यावहारिक तौर पर कोई भी स्त्री गर्भ रखने या ना रखने के लिए पूर्णत: स्वतंत्र है।

मगर इन स्थितियों में, जब उसे अपने मृत पति की निशानी रखने में किसी भी तरह की असुविधा है तो उसे यह काफी पहले ही निश्चित करना था। हालांकि चिकित्सकीय रूप से अवसादग्रस्त मां का असर नवजात की मानसिक दशा पर पड़ने की संभवना से इनकार नहीं किया जा सकता, परंतु इस मामले में ऐसा नहीं है।

अपने समाज में बाल-बच्चेदार विधवा से ब्याह को राजी होने वाले पुरुष बहुत कम हैं। दूसरे बच्चे के पालन-पोषण को लेकर वह आशंकित हो सकती है। मामला वास्तव में बेहद पेचीदा कहा जा सकता है। मगर गर्भपात के निर्णय में की गयी देरी की कीमत ने उसे प्रसव के लिए मजबूर कर दिया।

अदालत के निर्णय के अनुरूप बच्चे को गोद देने के लिए राजी होना उचित होगा। हालांकि यह निर्णय भी कम कठिन नहीं होगा। नवजात को गोद में लेते ही जच्चा के भीतर का वात्सल्य जो उमड़ पड़ता है। अंतत: निर्णय उसका अपना ही होगा।



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