व्यक्तिगत स्थापना की यात्रा
इसमें संदेह नहीं कि इस समय राजनीतिक गतिविधियों में जो गतिविधि चर्चाओं के केंद्र में है, वह कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी की पदयात्रा है।
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पदयात्रा से राहुल और उनकी कांग्रेस पार्टी को क्या वास्तविक लाभ मिलेगा, इसकी सूरत तो तभी स्पष्ट होगी जब वह श्रीनगर में यात्रा का समापन करेंगे। लेकिन अब तक की यात्रा से सामने आई प्रमुख बातों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है कि राहुल संगठन में बिना किसी पद पर रहते हुए भी कांग्रेस के एकमात्र या सर्वोच्च नेता के रूप में मजबूती से स्थापित हो गए हैं।
अब तक की यात्रा में ऐसा ठोस कुछ भी दिखाई नहीं दिया कि वह विपक्षी दलों को साथ लाने में समर्थ हुए हैं अथवा मोदी के विरुद्ध विपक्ष का नेतृत्व करने में अन्य मोदी विरोधियों का समर्थन पाने में सफल हुए हैं। ममता , केजरीवाल, नवीन पटनायक, चंद्रशेखर राव जैसे शक्तिशाली क्षत्रपों से राहुल को भी उम्मीद नहीं थी कि वे साथ आएंगे। इसलिए उन्हें यात्रा से जोड़ने का प्रयास भी नहीं हुआ।
सपा, राजद जैसी पार्टियों से साथ आने की जो अपेक्षाएं की गई थीं, वे भी इनके नेताओं की राहुल के नेतृत्व के प्रति शंका के कारण पूरी होती नहीं दिखीं। वस्तुत: राहुल या उनके सलाहकारों ने इस यात्रा को ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का नाम देने से पहले ‘भारत जोड़ो’ की वैचारिकता को स्पष्ट करने की जहमत नहीं उठाई। राहुल अपने वक्तव्यों के माध्यम से स्पष्ट नहीं कर पाए कि सिवाय बीजेपी के विरोध के भारत जोड़ो से उनका तात्पर्य क्या है।
इस तरह यात्रा बीजेपी विरोध की यात्रा बन कर रह गई है और वह भी कांग्रेस के विरोध की न कि समूचे विपक्ष के विरोध की। राहुल यह भी स्पष्ट नहीं कर पाए कि भविष्य के लिए उनकी रणनीति क्या होगी और बीजेपी की निंदा के अतिरिक्त लोगों को स्वयं से जोड़ने का कोई अन्य ठोस कारक क्या होगा।
बीजेपी की सत्ता को अपदस्थ करना ही उनका वास्तविक उद्देश्य था तो बीजेपी विरोधी शक्तियों को जोड़ने का प्रयास करना चाहिए और यह तभी हो सकता था जब उनके पास स्पष्ट कार्यक्रम, नीतिगत स्पष्टता और ठोस रणनीति होती। क्योंकि ऐसा नहीं था, इसलिए समूची यात्रा व्यक्ति राहुल की यात्रा बनकर रह गई। स्पष्ट वैचारिकता के अभाव में राहुल ने अनेक विरोधाभासी वक्तव्य दिए। बहरहाल, ऐसे दौर में राहुल गांधी ने इतनी लंबी पदयात्रा करने की हिम्मत दिखाई, इसके लिए उन्हें बधाई दी जा सकती है।
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